माँ गायत्री के वरदपुत्र युग के विश्वामित्र

August 1990

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“तप के धनी ज्ञान के सागर, चिन्तन के उद्गाता”-इन शब्दों में हम उस विराट व्यक्तित्व का वर्णन करते हैं जो हमारे बीच अस्सी वर्षों तक सक्रिय रह अपना अस्तित्व बनाये रहा व फिर अनेकों को रोता-बिलखता हुआ छोड़ गया। वस्तुतः यह मूल्याँकन किया जाय कि अगणित मनोव्यथा पीड़ितों, अभावग्रस्तों, शोषितों की उस करुण हृदय सम्पन्न महामानव ने कितनी सेवा की, किस सीमा तक उनके दुख में दुख बंटाया व किस तरह उन्हें पतन से उत्थान की राह दिखाई तो एक गौरव की अनुभूति होती है कि हम सौभाग्यशाली हैं जो उसके जीवनकाल में उसके साथ रहे।

गुरुदेव की उदार-सहकार वृत्ति हर क्षेत्र में बढ़ी चढ़ी रूप में देखी जा सकती है। उपासना के क्षेत्र में प्रवेश किया तो नवनीत रूपी हृदय वाला यह सन्त पिघल कर अगणित व्यक्तियों को अपनी तप साधना के अनुदान बाँटता चला गया। उसके गुरु ने उनसे कहा, “सौ हाथों से कमाना, हजार हाथों से लुटाना। जितना तुम समाज रूपी खेत में बोओगे कई गुना तुम्हें वापस मिलेगा, उसे काटना व वितरित कर देना।” ऐसे औघड़दानी को साक्षात् रुद्र न कहा जाय तो क्या कहें? नवनीत और हिमखण्ड जब गलते और पिघलते रहते हैं तथा अपने तप अनुदान सहज वितरित करते रहते हैं।

सामान्य गृहस्थों जैसा रहन सहन व वेशभूषा देखकर उन्हें एक अति सामान्य व्यक्ति समझा जाता था। न वे तिलकधारी महामण्डलेश्वर थे, न छत्रधारी महन्त। जीवन भर एक ऐसा जीवन जिया जिसे पर्वतराज हिमालय की ऊँचाई जैसा माना जाता है। ऐसा जीवन जीने वाले की महानता को कूता जाना सामान्यतः साधारण बुद्धि वाले के लिए शक्य नहीं है। बच्चों जैसी निश्छल पवित्रता तथा बादलों जैसी उदारता उनके मुख्य गुण था, वह था माता के स्तर की ममता। जो भी उनके संपर्क में आया, उनका होता चला गया। हर व्यक्ति जो पहली बार आता यही समझता कि हम से अधिक गुरुजी का और कोई निकटवर्ती नहीं।

प्रत्यक्ष सिद्धियों की चर्चा करने वालों को यह समझा पाना मुश्किल है कि उनकी अगणित सिद्धियों विभूतियों में एक यह भी थी कि वे जिसे चाहते, अपना बना लेते थे, अपनी विकसित संवेदनशीलता, सहज औदार्य की वृत्ति के कारण। इसे जन्मजात संस्कार भी कह सकते हैं एवं चौबीस लक्ष महापुरश्चरणों की सिद्धि भी। पवन के विषय में हर कोई समझता है कि यह हमारे ही ऊपर हवा फेंक रहा है। सूर्य के विषय में सब यही मानते हैं कि उन्हीं के घर रोशनी, गर्मी बिखेरने वह आता है पर समझा जा सकता है कि पवन और सूर्य दोनों ही इतने विशाल और महान हैं कि एक नहीं, असंख्यों को उनकी सहायता का लाभ समान रूप से मिलता रहता है! करुणा-ममता से भरा स्नेहसिक्त अन्तःकरण सब पर अपनी आत्मीयता बरसाता रहता है यहाँ तक कि हिंस्र पशुओं पर भी। क्योंकि वह समष्टिगत विश्वात्मा का प्रतिनिधि होने के नाते मात्र कर-स्नेह लुटाना जानता है। महर्षि रमण के पास जीव जन्तु मनुष्य सभी एक समान विचरते रहते थे। उनकी दृष्टिमात्र से जीवजन्तु अपनी हिंस्रवृत्ति छोड़ देते थे। यह चमत्कार उस विशाल अन्तःकरण का है जो आत्मीयता से सराबोर है

जो भी पूज्य गुरुदेव के पास आया वे उसे जीभर अनुदान देते रहे। कभी निराश नहीं लौटाया कुछ गिने चुने अमिट प्रारब्धग्रस्तों को छोड़कर प्रायः उन सभी को उनने भरपूर सहायता की जो तनिक से सहयोग अथवा अनुदान पाने की इच्छा से उनके पास आया। सदैव यह कहा कि हमारे पास कुछ नहीं, हम अपनी माँ से माँगेंगे व जो भी मदद संभव होगी, करेंगे। यह उनकी सबसे बड़ी महानता थी।

हिमालय निवासी त्रिकालदर्शी परमसिद्ध महात्मा विशुद्धानन्द जी महाराज ने उनके विषय में दिसम्बर 1957 की अखण्ड ज्योति में लिखते हुए अपने उद्गार इस तरह व्यक्त किए है

“आचार्य जी कच्ची मिट्टी के नहीं बने हैं। उनकी नस-नाड़ियाँ फौलाद की हैं। विगत तीस वर्षों में उनने अपने को घनघोर तपस्याओं में तपा-तपा कर अष्टधातु का बना लिया है। जिन कमजोरियों पर शत्रु हमला करता है उन्हें उनने पहले ही ठोक-पीटकर काफी मजबूत बना लिया है। गिराने वाली वस्तुओं में तृष्णा, कंचन, कामिनी, वासना प्रधान हैं। अपनी जीवन भर की कमाई पूर्वजों की छोड़ी सम्पत्ति का एक-एक पैसा उनने मिशन के लिए अर्पण कर दिया है। उनकी धर्म-पत्नी माता भगवती देवी ने अपने शरीर के आभूषणों की एक एक कील माता के चरणों में अर्पण करके एक सतयुगी उदाहरण प्रस्तुत किया है। जौ की रोटी व नमक छाछ को अपना प्रधान भोजन और तन ढकने भर के लिए खादी के टुकड़े पहनने का व्रत लेकर धन लोभ को एक प्रकार से इन दोनों ने अपने से हजारों कोस दूर कर दिया है।”आगे स्वामी जी लिखते हैं कि ‘गृहस्थ को तपोवन बनाते हुए दोनों परस्पर एक दूसरे को माता-पिता जैसी दृष्टि से ही देखते हैं। यह उनकी जीवन साधना है। हिमालय जैसी उदार हृदय और मानसरोवर जैसी निर्मल इन आत्माओं में वह विष बीज निश्चित रूप से नहीं है जो इतने बड़े अनुष्ठानों के संयोजकों को झुका सके। आचार्य जी असंख्यों को पार कराने वाले अनुभवी मल्लाह हैं। वे महान पैदा हुए हैं, महानता के साथ जी रहे हैं और उनका अन्त भी महान ही होगा”।

कितना सही कथन था इस दिव्य द्रष्टा का जिसने उन्हें सहस्रकुंडीय महायज्ञ का आशीर्वाद देते हुए ही अच्छी तरह पढ़ लिया था। उनकी गायत्री साधना का यह चमत्कार था कि एक स्वर से सारे भारत के महात्मागण उन्हें गायत्री विद्या व उसकी साधना पद्धति का एक अनुभवी निष्णात विद्वान मानते थे। ब्रह्मलीन श्री देवरहा बाबा से विगत महाकुँभ पर्व पर इलाहाबाद में मिशन से जुड़े एक उच्चाधिकारी ने पूज्य गुरुदेव के विषय में पूछा कि आपकी उनके संबंध में क्या मान्यता है? तो देवरहा बाबा ने पूर्व की ओर मुख करके कहा कि “साक्षात् सविता का जो रूप है, ब्रह्मतेज सम्पन्न उस अवतारी सत्ता को मेरा नमन है। वे माँ गायत्री के सिद्ध साधक है व युगपरिवर्तन उन्हीं के बताये पद चिह्नों पर चल कर होगा।” युग निर्माण योजना से प्रत्यक्ष उनके क्या संबंध है, यह पूछने पर दीर्घ-जीवी उस महापुरुष ने कहा कि “सभी देवसत्ताएं धरती पर सतयुग लाने को जन्मी है। जो काम आचार्य जी ने प्रत्यक्ष रूप से अपनी स्थूल काया द्वारा किया है, उससे अधिक वे अन्यान्य ऋषि सत्ताओं के साथ जिनमें मैं भी शामिल हूँ सूक्ष्म रूप में काया के महाप्रयाण के बाद, सम्पन्न करेंगे। दुर्गम हिमालय से हम सबका सामूहिक तपोबल वह प्रचंड ऊर्जा उत्पन्न करेगा कि भारत को विश्व संस्कृति में सर्वोच्च स्थान दिलाकर ही रहेगा।” यहाँ यह स्मरणीय है कि विगत जून माह में ही दोनों ही महाशक्तियों ने अपनी काया का परित्याग कर सूक्ष्म शरीर में प्रवेश किया। यह रहस्यमय प्रसंग मात्र संयोग नहीं है, नियन्ता की योजना का एक अंग है।

गायत्री उपासना उनने जिस लगन व एक निष्ठा भाव से की, अगणित व्यक्तियों से करा ली उसने उन्हें युग का विश्वामित्र बना दिया। उनने व्यक्ति व्यक्ति को यह बोध करा दिया कि जीवन शोधन को स्वास्थ्य और कर्मकाण्डों को श्रृंगार मानकर चलना चाहिए। दोनों उनने तब प्रतिपादित किया जब लोगों में यह भ्रान्ति बड़ी गहराई तक जड़ जमाए बैठी थी कि ब्राह्मणत्व अर्जित करने के लिए भीतर से उत्कृष्ट व बाहर से आदर्शवादी जीवन जीने की कोई आवश्यकता नहीं है। जीवन कैसा भी जिया जाय बस स्थूल कर्मकाण्ड येन केन प्रकारेण पूरा होना चाहिए। इस भ्रान्ति का उन्मूलन एक प्रकार की विचार क्रांति थी।

गायत्री यों एक ऐसा मंत्र माना जाता है जिसका जब अनुष्ठान करने पर संकटों के निवारण और सुख सुविधाओं का संवर्धन होता है। पर यह एक अधूरी जानकारी है। गायत्री को महाप्रज्ञा कहते है। महाप्रज्ञा अर्थात् चिन्तन की वह शैली जो मनुष्य जैसे बुद्धिमान प्राणी को भटकावों एवं जंजालों की विपन्नता से छुड़ा सके।

पूज्य गुरुदेव कहते थे कि “गायत्री के चौबीस अक्षरों में सन्निहित अर्थ सूत्रों का विचार किया जाय तो उन्हें संसार का सबसे छोटा किन्तु समग्र प्रकाश प्रेरणाओं से भरा पूरा महामंत्र कह सकते है। गायत्री के अंतिम चरण में भगवान से सद्बुद्धि की याचना की गई है। वह मात्र याचना ही नहीं है वरन् गायत्री का मंत्रोच्चारण उसी स्तर की क्षमताओं वे प्रेरणाओं से भरा हुआ है। जिसने भाव भरे अंतःकरण से इस कामधेनु का पयपान किया, वह सद्बुद्धि सद्भावना का वरदान पाकर निहाल हो गया।” सही अर्थों में सामान्य व्यक्तियों को महामानव बनाने की क्षमता गायत्री मंत्र में है। यह पूज्य गुरुदेव ने अपने जीवन को एक प्रयोगशाला बनाकर तथा अन्यान्यों से साधना कराके उनकी आत्मिक प्रगति का पथ प्रशस्त कर प्रमाणित कर दिया। अन्यान्य देवताओं की अनुकम्पा पाने हेतु भटकने वालों के लिए उनका एक ही संदेश था कि एक ही मंत्र ऐसा है जो संसार भर के सभी मंत्रों की बराबरी करता है, वह है गायत्री मंत्र। सभी अवतारों ने इसकी उपासना की तथा महामानवों, ऋषिसत्ताओं ने भी। फिर जगह जगह कुआँ खोदते रहने की विडंबना क्यों रची जाय? आज के बुद्धिवादी युग में महाप्रज्ञा के तत्वदर्शन के विस्तार की और अधिक आवश्यकता है। वह सही अर्थों में नवयुग ला सकता है और लाकर रहेगा।

पूज्य गुरुदेव ने गायत्री साधना के समग्र रूप का प्रस्तुतीकरण गायत्री महाविज्ञान के तीन खण्ड रचकर किया जो कि एक प्रकार से विश्वकोष माने जा सकते है। उस में उनने लिखा है कि मंत्राराधना के अतिरिक्त एक निष्ठावान साधक को अपनी जीवनचर्या में उपासना, साधना और आराधना का समन्वय करना चाहिए।

त्रिपदा गायत्री के तीन चरणों में इन्हीं तीन विशिष्टताओं को मनोभूमि में ओत−प्रोत कर लेने की आवश्यकता बताई गई है।

उपासना-कारण शरीर अंतःकरण से संबंधित है। साधना चिन्तन से-सूक्ष्म शरीर से और आराधना समाज सेवा के लिए किये गये उदार सहकार भरे कृत्यों से-स्थूल शरीर से। पूज्य गुरुदेव ने अपने तीनों शरीरों से पूरी निष्ठा के साथ गायत्री साधना स्वयं सम्पन्न की व माँ गायत्री के वरदपुत्र बन गए। असंख्यों की सहायता करने वाला ब्रह्मवर्चस् इससे कम में संग्रहित हो भी तो नहीं सकता था। अपने व्यक्तित्व को उर्वर क्षेत्र की तरह विकसित करने में यदि इतनी सतर्कता न बरती होती तो संभवतः उनके चौबीस वर्षों के चौबीस गायत्री महापुरश्चरण तथा सामान्य समय के जप-तप उतने प्रभावी न हो सके होते जितने कि देखे और पाये गये।

साठ वर्ष की आयु में देश के एक मूर्धन्य नेता ने तपोभूमि में भेंट करने पर उनसे अकेले में पूछा कि “आपके द्वारा अनेकों को जो असाधारण लाभ मिले है, उसका विवरण मुझे मालूम है। जरा उस सिद्धि का रहस्य हमें भी बता दीजिए। उत्तर दिया गया कि “गायत्री उपासना के प्रतिफल तो अभी किसी विशेष कार्य के लिए तिजोरी में बंद कर रखे है। यह तो हमारी काया के इस पृथ्वी से ऊर्ध्वारोहण के बाद ही रहस्य खुलेगा। आपने जो कुछ जाना और सुना है, वह सब तो जीवन में उतारे गये ब्राह्मणत्व का प्रतिफल हैं। ब्राह्मणत्व अपने आपमें एक तपश्चर्या है। अभी तक तो उसी का लाभ उठाया और दिया है व आगे भी यही प्रतिफल उससे मिलता रहेगा।

कहीं किसी प्रकार का घमण्ड नहीं कहीं कोई गायत्री के सिद्ध उपासक होने का गुरूर नहीं-सब कुछ सीधा सादा स्पष्टवादी-यह है उनके जीवन का वह पक्ष जो साधारण दृष्टि देख नहीं पाती, मात्र, स्थूल काया को ही सब कुछ मान बैठती है।


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