विश्व माली का बगीचा (Kavita)

August 1990

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प्रेम का अमृत पिला जो, सींचता था स्नेह जल से। आज वो ही स्रोत सूखा देख, मन मुरझा रहा है॥ तड़पते दिल, रो रही हर आँख, उर है छलछलाया। ज्योति हो शाश्वत भले ही, किंतु तुम तो छा रहा है॥1॥

होश आया तो मनुजता, छटपटाती रो रही थी। संस्कृति अध्यात्म की गरिमा, युगों से सो रही थी॥ वेदना थी पा रही पीड़ा, जगत के ताप से। जर्जरित छाती घुटन, दुःख शोक के अभिशाप से॥

तड़प जागी मोम से दिल में, भ्रमित जग के लिए। विश्व माली का बगीचा, सूखता क्यों जा रहा है॥2॥

लोक हित में दीप बनकर, फिर अहर्निश वह जला। लहलहाने विश्व उपवन, बीज बन कर खुद गला॥ सघन तम की चोर छाती, फिर अखण्ड ज्योति जली। और युग निर्माण करने, योजना नूतन चली॥

रात दिन, हर पल घड़ी हर, साधना करता रहा है। कह उठ जग क्रान्ति करने, फिर मसीहा आ रहा है॥3॥

प्यास पाई प्यार हृदय की यादें, मातृवत् उर से लगाया। घाव यदि देखा हृदय में, हाथ से मरहम लगाया॥ थाम अंगुली फिर तुम्हीं ने, तो हमें चलना सिखाया। लड़खड़ाते पैर तो कंधे पकड़, तुमने उठाया॥

काल ने ऐसे निकटतम से, हमें बिछुड़ा दिया है। सोच कर ही डूबता दिल, सामने वह आ रहा है॥4॥

अब समय, अनुदान की कीमत चलो हम भी चुकाएं। राह जो तुमने दिखाई, दृढ़ चरण उस पर बढ़ाएं॥ दे रहे हम आज श्रद्धा, रूप में सक्रिय समर्पण। अब तुम्हारे लक्ष्य में ही, है सदा ये प्राण अर्पण॥

ज्योति जो तुमने जलाई, वह नहीं हरगिज बुझेगी। जा हर परिजन यही, सौगंध पावन खा रहा है॥5॥


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