युग निर्माण का सत्संकल्प मिशन का घोषणापत्र

August 1990

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मैं आस्तिकता और कर्तव्यपरायणता को मानव जीवन का धर्म कर्तव्य मानता हूँ”- यही थीं प्रथम पंक्तियाँ उस अधिकृत सत्संकल्प की, घोषणा पत्र की जिसे युग निर्माण योजना का प्रारम्भिक उद्घोष कहा जा सकता है। मार्च 1962 की अखण्ड-ज्योति में पहली बार पूज्य गुरुदेव ने इस सत्संकल्प एवं शुभ अवसरों पर इसे सामूहिक रूप से पढ़ा जाय। सभी परिजनों, पंजीकृत शाखाओं को एवं ज्ञान मंदिर चलाने वाले परिजनों को उद्बोधन करते हुए सितम्बर 1962 के अंक में लिखा गया कि यह वह विचार बीज है जिसके आधार पर युग निर्माण की संभावनाएँ सुनिश्चित होंगी।

युग परिवर्तन की बात एक क्रान्तिकारी स्तर का विचारक ही कह सकता है। वही सोच सकता है कि सड़ी गली मान्यताओं से घिरा यह समाज तभी बदल सकता है जब व्यक्ति अपने आपको आमूलचूल बदले। परिस्थितियों को बदलने की बात तो सब कहते है पर मनःस्थिति को बदल कर, विचार करने की शक्ति द्वारा अपने श्रेष्ठ संकल्पों को जाग्रत कर यदि व्यक्ति स्वयं को बदल ले तो यह सारा समाज बदल जाय। यह एक दार्शनिक एवं मनोविज्ञान का मनीषी विद्वान ही सोच सकता है कि “युग” को बदलने जैसे असंभव दीखने वाले कार्य को तभी व्यावहारिक रूप दिया जा सकता है जब उसकी एक इकाई समाज व उसकी भी एक इकाई परिवार तथा अन्ततः व्यक्ति का सर्वांगपूर्ण परिष्कार हो। मनुष्य बदलना है तो जमाना भी बदलने लगता है। दृष्टिकोण में परिवर्तन आते ही वातावरण बदला हुआ दिखाई पड़ने लगता है। “एक-एक व्यक्ति का निर्माण होता चला तो युग निर्माण हुआ दृष्टिगोचर होगा,” यह एक अवतार स्तर की सत्ता ही कह सकती है जिसे भविष्य भी दिखाई पड़ना है एवं वर्तमान को बदलने का सारा ताना-बाना भी जो परोक्ष जगत के साथ ही बुनती चलती है।

कोई यह भी कह सकता है कि “युग निर्माण”-”युग परिवर्तन” बड़े-बड़े शब्द है, लच्छेदार अभिव्यंजनायें है एवं कैसे यह सब सम्भव है। जब विषमताएँ, अलगाववाद, मूढ़ मान्यताएँ ही चारों ओर संव्याप्त हो। क्या यह एक यूटोपिया नहीं है कि व्यक्ति समाज ही नहीं, एक पूरे युग को, “एरा” को बदलने की बात कह रहा है। परन्तु इन सबके मूल में उस सत्साहस एवं प्रचण्ड मनोबल, इच्छाशक्ति को देखा जाना चाहिए जो स्रष्टा के “एकोऽहं बहुस्यामि” संकल्प स्तर की है तथा “धर्म संस्थापनार्थाय संभवामि युगे-युगे" के रूप में मानव मात्र को दिये गये आश्वासन के रूप में विद्यमान है। यह महामानव का संकल्प है एवं उसी की परिणिति है कि उसी विषमता भरे समुदाय में आज जो परिवर्तन की बात सोची जा रही है, सभी विचारक जिसके बारे में अपना मतैक्य प्रकट करते दिखाई देते हैं, उसके मूल में व्यक्ति निर्माण ही है।

इतना बड़ा समुदाय जो प्रज्ञापरिवार, गायत्री परिवार के रूप में अखण्ड-ज्योति, युगशक्ति गायत्री के पाठकों के परिकर के रूप में दिखाई देता है उसने इस सत्संकल्प की संजीवनी द्वारा ही स्वयं को उस स्तर तक पहुँचाया है, जहाँ वे आते हैं।

पूज्य गुरुदेव लिखते हैं कि “युग परिवर्तन के लिए जिस अवतार की आवश्यकता है वह पहले आकाँक्षा रूप में ही अवतरित होगा। इसी अवतार का सूक्ष्म स्वरूप यह युग निर्माण सत्संकल्प है। “यह कथन एक निश्छल निर्मल अन्तःकरण वाले उस महामानव का है जो जीवन भर इसी निमित्त तपा तथा कुन्दन की तरह उस अग्नि में तप कर सोना बना। उसके विचार ही आज सूक्ष्मजगत में छाए सारे परिवर्तन का सरंजाम बनाते दिखाई देते हैं। कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी यदि यह कहा जाय कि स्वयं निष्कलंक प्रज्ञावतार के संकल्प के रूप में यह घोषणा पत्र प्रकट हुआ एवं स्रष्टा का संकल्प कभी अधूरा रहता है?

अपने इस सत्संकल्प में पहला स्थान पूज्य गुरुदेव ने आस्तिकता को दिया जो व्यक्ति को सन्मार्ग पर चलाती है, उसे भगवत्सत्ता के अनुशासन में रहना सिखाती है। आस्तिकता भी ऐसी जो व्यक्ति को पलायनवादी न बनाए बल्कि कर्मयोगी कर्तव्यपरायण बनाए। भगवान के प्रति सच्चा समर्पण सक्रिय समर्पण है, यही सूत्र समझाते हुए वे कहते है कि यदि आस्तिकता कभी जीवन में फलित होगी जो व्यक्ति कर्तव्यपालन को सबसे पहले महत्व देगा। कर्तव्य शरीर के प्रति तो यह है कि उसे भगवान का मंदिर समझा जाय व आत्मसंयम व नियमितता के माध्यम से उसे स्वस्थ, निरोग, सशक्त बनाये रखा जाय। मन को स्वच्छ रखना, कलुष रहित, निष्पाप बनाये रखना उतना ही जरूरी है जितना व्यक्ति शारीरिक स्वास्थ्य का ध्यान रखता है। यदि मानसिक स्वास्थ्य अक्षुण्ण बना रहा तो जीवनीशक्ति भी सही बनी रहेगी। मनोविकार व दुर्भावनाएँ सतायेंगी नहीं तथा आधि-व्याधि समीप भी नहीं आयेंगी। मनन व चिंतन, स्वास्थ्य व सत्संग से रोक कर सही दिशा दिखाती हैं व सदैव आत्मनिर्माण, आत्मविकास की प्रेरणा देती रहती है। सद्विचारों के लिए श्रेष्ठ साहित्य ही वरेण्य होना चाहिए व सतत् स्वाध्यायरत रह, श्रेष्ठ व्यक्तियों के समूह में रह कर व्यक्तियों को सही चिन्तन की शैली का अभ्यास करना चाहिए, यह सत्संकल्प का प्रथम पाठ है एवं सही कहा जाय तो यही मर्म है। यदि इतनी व्यवस्था भी कोई जीवन में कर ले तो वह बदल जाए, साथ ही अनेकों को बदल दे।

आगे वे लिखते हैं कि सामुदायिकता की भावना जब तक विकसित नहीं होगी, हर व्यक्ति अपने हित के बजाय सब का हित पहले नहीं सोचेगा तब तक चारों ओर संकीर्ण स्वार्थपरता का ही साम्राज्य होगा। आध्यात्मिक साम्यवाद का मूलमंत्र यही है जो पूज्य गुरुदेव बताते हैं-”सबसे हित में अपना हित है।”यही एकता -समता का, सामाजिक, न्याय का मूल आधार स्तम्भ है। “मैं नहीं, हम सब” की बात सोची जाय तथा “वर्ण” और “लिंग” का अनुपयुक्त भेद-भाव समाप्त किया जाय। आज जब चारों ओर साम्राज्यवाद, अधिनायकवाद ढह चुका है व वर्ण भेद के खिलाफ संघर्ष जारी है, यह कथन तब कितना समयानुकूल था, यह भलीभाँति समझा जा सकता है।

आत्मसुधार की प्रेरणा देने के लिए कुछ गुणों को जीवन में उतारने की बात संकल्प में आगे कहते है-”नागरिकता, नैतिकता, मानवता, सच्चरित्रता, शिष्टता, उदारता जैसे सद्गुणों को सच्ची सम्पत्ति समझ कर मैं उन्हें अपने जीवन में बढ़ाया चलूँगा।” “सच्ची सम्पत्ति” शब्द गौर करने योग्य है। सम्पदा तो भौतिक जगत में कई रूपों में बिखरी पड़ी है पर सच्ची सम्पत्ति वह है जो व्यक्ति को नर मानव से देवमानव बना दें। ये गुण जो ऊपर बताये गये हैं, जीवन में उतारे जायें तो व्यक्ति महामानव बनकर ही रहेगा। साधना, स्वाध्याय,

संयम व सेवा इन चारों सूत्रों में जो वे आगे लिखते है सारा अध्यात्म दर्शन समाया हुआ है। आत्मशोधन व फिर सद्विचारों का आरोपण अपने ऊपर कठोर नियंत्रण एवं सत्प्रवृत्ति संवर्धन हेतु सेवा-साधना या समाज देवता की आराधना जो करता चले वह आत्मकल्याण का पथ तो प्रशस्त करेगा, औरों की मुक्ति का निमित्त भी बन सहज ही श्रेय पाता चलेगा।

वस्तुतः सत्संकल्प का एक-एक अक्षर क्रांति का बीज है। किसी एक को भी जीवन में उतार लिया जाय तो व्यक्ति को स्वयं को आत्मिक प्रगति ही नहीं भौतिक प्रगति का द्वार भी खुला मिलेगा। न केवल वह बदलेगा, उसके आस-पास का परिकर भी बदल जायेगा।

बुद्धावतार के उत्तरार्ध रूप में जन्मे प्रज्ञावतार के प्रतीक पूज्यवर ने आगे सूत्र दिया है कि “परम्पराओं की तुलना में विवेक को महत्व दिया जायगा तथा अनीति के प्राप्त सफलता की अपेक्षा नीति पर चलते हम असफलता ही शिरोधार्य होगी।” विवेक परम्पराओं के समक्ष यदि जाग्रत रहे तो समाज में भेड़ों के अंधानुकरण की लहर देखी जाती है वह समाप्त हो जाय। दुष्प्रवृत्तियाँ कुरीतियाँ, मूढ़ मान्यताएँ विवेक की उपेक्षा करने से ही पनपती है। विवेक रूपी नेत्र के जाग्रत होते ही इनके मिटने में देर नहीं लगती। आज समाज में व्यक्ति अनीति का “शार्टकट” वाला रास्ता अपना कर अदूरदर्शितापूर्ण ढंग से सफलता दिखाई देता है। यदि नीति का स्थायी महत्व समझा जाय तो व्यक्ति नीति की राह पर चलना, ईमानदारी से जीवन बिताना श्रेयस्कर मानेगा। मनुष्य के मूल्याँकन की कसौटी भी फिर वह नीति तथा विधि रहेगी, जिसके आधार पर सफलता प्राप्त की गयी।

स्वार्थ नहीं, परमार्थ को प्रधानता देते हुए सत्प्रवृत्ति का एक अंश लगाने की प्रेरणा देते हुए पुरुषार्थ का एक अंश लगाने की प्रेरणा देत हुए पूज्यवर कहते हैं कि यही सच्चा धर्म है, युगधर्म है। ब्राह्मण वही है जो सौ हाथ से कमाए, हजार हाथों से दान करें। ऐसा ब्राह्मणत्व अर्जित करने की वे सबको प्रेरणा देते है।

“आत्मनः प्रतिकूलानि परेषाँ न समाचरेत्” यह सूक्त पढ़ा तो कइयों ने होगा पर जीवन में इसे उतारना जो संभव कर लेता है वह सबकी निगाह में चढ़ जाता है। यदि हम दूसरों से अच्छे व्यवहार की अपेक्षा रखते हैं तो हमें भी उनसे वैसा ही व्यवहार करना चाहिए। जनसंपर्क के, व्यवहार, कौशल के, दूसरों को अपना बनाने के, संजीवनी विद्या के, जीवन जीने की कला के सारे सूत्र इस एक ही वाक्य में समा जाते है। कि-”मैं दूसरों के साथ वह व्यवहार न करूंगा जो मुझे अपने लिए पसंद नहीं।”

ईमानदारी और परिश्रम की कमाई ही पचती है। इससे उलटे व्यवहार वाली तो बीमारी बनकर, कोढ़ बनकर इसी जन्म में व्यक्ति को त्रास देती व क्रिया की प्रतिक्रिया का कर्मफल वाला सिद्धान्त समझाती है। अनीति की राह पकड़ कर अधिक कमाने वाले वित्तेषणाग्रस्त व्यक्ति शोषण करते है, नर-पिशाच की पदवी पाते हैं व लोक भर्त्सना के भाजक होते है। जो अपना उपार्जन श्रम की स्वेद बूँदें बहाकर ईमानदारी से करता है, वह स्वभावतः सेवा परायण, उदारमना तथा सज्जन होगा। अध्यात्मवादी को यही जीवन नीति अपनानी चाहिए भले ही प्रत्यक्ष घाटा दिखाई देता हो।

अगला सूत्र है नारी जाति के प्रति माता, बहिन और पुत्री की दृष्टि रखेंगे, कुदृष्टि से ही कामुकता पनपती व अन्यान्य विकार जन्म लेते है। विश्व शांति का एक प्रमुख आधार बताते हुए पूज्य गुरुदेव लिखते है कि विश्व की आधी जनशक्ति नारी है।

यदि उसके प्रति पूज्य व पवित्र दृष्टि रखी जाने लगे, उस पर शोषण, अत्याचार स्वतः बन्द हो जायेगी व दोनों मिलकर एक स्वस्थ व श्रेष्ठ समाज की रचना करेंगे। दाम्पत्य जीवन तो जिया जाय पर संतानोत्पादन को एक कर्तव्य मात्र मानते हुए कुदृष्टि प्रधान कामुक जीवन न जिया जाय। नारी की महत्ता अग्नि के समाज बताते हुए वे कहते है कि इसे ऊष्मा माना जाय, जीवन का स्रोत मना जाय। नारी की भावनाओं को यथोचित सम्मान देकर उसे भी ऊँचा उठने का पूरा अवसर दिया जाय। रमणी की नहीं, भोग्या की नहीं अपितु माता की, भगिनी की दृष्टि रखी जाय तो ही व्यक्ति निर्माण, परिवार निर्माण संभव है।

अंत में पूज्य गुरुदेव लिखते है कि मनुष्य भाग्य निर्माता है, अपने भविष्य का निर्धारण वह स्वयं करता है। इस असाधारण सामर्थ्य का अधिपति होने के कारण यह उद्घोष करने में उसे कोई संकोच नहीं होना चाहिए कि यदि वह उत्कृष्ट बनेगा व दूसरों को श्रेष्ठ बनाने का प्रयास करेगा तो युग अवश्य बदलेगा। “तन्मे मनः शिवसंकल्पमस्तु” के आध्यात्मिक मनोविज्ञान के सिद्धान्त के अनुसार कितना शुभ व श्रेष्ठ यह संकल्प है कि युग अवश्य बदलेगा क्योंकि मैं वह नहीं रहूँगा जो आज हूँ। मैं आज से भी श्रेष्ठ व उत्कृष्ट अपने को बनाता रहूँगा व पारस से छूकर लोहे से सोना बना जाने की तरह औरों को भी वैसा बनाता चलूँगा। यदि ऐसा हुआ तो युग अवश्य बदलेगा क्योंकि फिर समाज में श्रेष्ठ व्यक्तियों का, सद्भावना को महत्व देने वाले नर रत्नोँ का, संवेदना से भरे-पूरे देवमानवों का बाहुल्य होगा। पुरुषार्थ ही प्रधान है भाग्य नहीं, यह मान्यता इस घोषणा में कूट-कूट कर भरी हुई है कि “मनुष्य अपने भाग्य का निर्माता आप है।” ऐसे व्यक्ति जो पुरुषार्थ द्वारा अपने भविष्य को श्रेष्ठ व उत्तम बनाते है सुगंधित चन्दन के वृक्षों के समाज अपनी सुरभि चारों ओर बिखेरते हैं, युग प्रवर्तक कहलाते है व मल्लाह बनकर अपनी नाव स्वयं खेते, औरों को पार लगाते है। जब ऐसे व्यक्ति हों तो युग क्योँ नहीं बदलेगा? अवश्य बदलेगा।

एक युग पुरुष द्वारा लिखा गया यह सत्संकल्प (घोषणा पत्र) स्वयं में एक दस्तावेज है, युग निर्माण के लम्बे सफर में एक कीर्ति स्तम्भ है। बाद में मार्च 1971 में इसी को एक संशोधित प्रगतिशील रूप दिया गया जिसमें मूल बातें तो वही थीं, जिनका विवेचन ऊपर किया गया, कुछ पक्षों को इसलिए जोड़ा गया कि वे समय के अनुकूल अब उपयुक्त भी थीं। इसमें समझदारी बहादुरी व जिम्मेदारी को भी ईमानदारी के साथ जोड़ दिया गया। राष्ट्रीय एकता व अखण्डता की बात नये सिरे से दुहराई गई तथा अंत में अपना विश्वास पूरी मजबूती से इस संकल्प पर प्रकट करते हुए लिखा कि- “हम बदलेंगे युग बदलेगा, हम सुधरेंगे-युग सुधरेगा।”

महाकाल जब यह कह रहा हो तब उसकी अंशधर आत्माएँ ऐसा क्यों नहीं करेंगी। युग परिवर्तन का शुभारंभ हो चुका हैं, नवयुग निश्चित ही आना है, यह विश्वास यदि हम बनाये रखें स्वयं को बदलते हुए ऊँचा उठाने की दिशा में बढ़ते चलें तो पूज्य गुरुदेव का “इक्कीसवीं सदी, उज्ज्वल भविष्य” उद्घोष निश्चित की साकार होकर रहेगा।


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