‘गुरु-रूप’ की तुम्हारे, अब कल्पना करेंगे। लेकिन पिता! तुम्हें हम कैसे भुला सकेंगे॥1॥
गुरु-रूप में दिया जो, वह ज्ञान याद तो है। जो भी सृजन किया, वह हर ग्रन्थ साथ तो है॥
उस ज्ञान का सहारा, हमको प्रकाश देगा। गुरुवर! सृजन तुम्हारा, उत्साह, आस देगा॥
कहकर ‘पिता’ मगर हम, किसको बुला सकेंगे। बोलो पिता! तुम्हें हम कैसे भुला सकेंगे॥2॥
देता जिसे पिता ही, वह प्यार अब कहाँ है। कंधे कहाँ पिता के, आधार वह कहाँ है॥
वे हाथ अब कहाँ हैं, जो थपथपा दिये थे। वे नयन अब कहाँ, जो ममता मधुर लिये थे॥
अब कौन पितृ ममता, को छलछला सकेंगे। बोलो पिता! तुम्हें हम कैसे भुला सकेंगे॥3॥
‘परिवार’ बनाया था, क्या छोड़ चले जाने। क्या प्यार बढ़ाया था, दिल तोड़ चले जाने॥
हम सीख ही रहे थे, उंगली पकड़ के चलना। बाहें पकड़ तुम्हारी, सत्पथ पर पैर धरना॥
अब कौन थाम बाहें, हमको चला सकेंगे। बोलो पिता! तुम्हें हम कैसे भुला सकेंगे॥4॥
बोलो! जहाँ कहीं हो, विश्वास तो हमें दो। निर्मम नहीं हुये हो, आभास तो हमें दो॥
छाया बने रहोगे, हम पर पिता सदा ही। वात्सल्य भावना से, होंगी नहीं जुदाई॥
हम इस तरह दिलासा, दिल को दिला सकेंगे। बोलो पिता! तुम्हें हम कैसे भुला सकेंगे॥5॥
कोई न कह यह पाये, हम हैं बिना पिता के। हों हौसले हमारे, इतने बुलंद बाँके॥
बन भव्य भावनाएं, मन में विहार करना। हम भटकने न पायें, हरक्षण विचार करना॥
है साथ में पिता, यह जग को बता सकेंगे। बोलो पिता! तुम्हें हम कैसे भुला सकेंगे॥6॥