अन्तः करण की जाग्रत शक्तियाँ न केवल व्यक्ति वस्तु बल्कि मशीनों को भी प्रभावित करने में समर्थ हैं। योग शास्त्रों का यह प्रतिपादन जिसे अब परामनोवैज्ञानिक भी स्वीकारने लगे हैं-सन् 81 की उस ग्रीष्मकालीन संध्या को प्रत्यक्ष हो गया। बगल में वन्दनीया माताजी भी बैठी थीं। एक कार्यकर्ता की काफी दिनों से इच्छा थी कि ऐसी किसी गोष्ठी को टेप किया जाय, अभी हाल में ही उसने नया टेपरिकार्डर भी लिया था। सी उसने नया कैसेट, नये सेल लगाकर भली प्रकार जाँच लिया और उनके ठीक सामने टेपरिकार्डर चालू कर बैठ गया। गुरुदेव ने मुसकरा कर एक बार उसकी ओर कनखियों से देखा और बात शुरू कर दी। गोष्ठी समाप्त होने के बाद उसने नीचे आकर टेप शुरू कर बातें सुननी चाहीं। पर उसमें साँय-सायं की आवाज के सिवा और कुछ न था। सोचा शायद कुछ मशीन में खराबी आ गई हो, इसलिए दुबारा जाँच की, पर वह तो पूर्ववत् ठीक था। तब कहीं जाकर उसे उनकी मुसकान का गूढ़ार्थ स्पष्ट हुआ। उनकी इच्छा के बगैर बातें टेप होती भी तो कैसे। उसे रिकार्ड न हो पाने का दुख था साथ ही योग की इस विभूति को साक्षात करने की खुशी भी।
अणोरणीयान्-महतो महीयान्-इन दोनों का एकीकरण परमेश्वर के अतिरिक्त यदि और कहीं होता है तो उनकी विभूति रूप महापुरुषों में। भारी भरकम व्यक्तित्व व वृहदाकार कर्तव्य के साथ सरलता और सादगी यहीं आकर एक जुट होती है। इसका साक्षात्कार उनके डबरा प्रवास के दौरान हुआ। एक कार्यक्रम के सिलसिले में वह यहाँ आने वाले थे। स्टेशन पर उन्हें लेने के लिए आस पास कई मिल मालिक, गणमान्य व्यक्ति अपनी कारों, मोटरसाइकिलों के साथ उपस्थित थे। स्वागतार्थियों की इस भीड़ में सिर्फ एक व्यक्ति उन्हें पहचानता था। नियत समय रेलगाड़ी आकर रुकी। इन सभी ने एयरकण्डीशंड, फर्स्ट क्लास के सारे डिब्बे खोज डाले कहीं गुरुजी नहीं। आर्ष साहित्य का भाष्य करने वाला, इतना बड़ा लेखक, मनीषी, एक बड़े अभियान का संचालक के रूप में उन्होंने कुछ ऊंचे ठाठ की कल्पना कर रखी थी।
गाड़ी तो चली गई। इसी बीच इन सबने देखा कि उन्हें पहचानने वाला वह व्यक्ति एक ऐसे आदमी के चरणों पर झुका है- जिसके एक हाथ में लोहे की छोटी पेटी है, कन्धे पर बिस्तर का पुलिंदा है। पहले उन्होंने सोचा कि हो न हो, इसका कोई रिश्तेदार आ गया हो। निकट पहुँचने पर पता चला-”यही गुरुजी हैं।” गुरुजी और ये सपने दाँतों तले अंगुली दबा ली। यह उनके अणोरणीयान् रूप का साक्षात्कार था। कार्यक्रम मैं उनके दूसरे स्वरूप को लोगों ने देखा। सरलता और महानता के संगम रूप सबल तीर्थ को देख सभी कृतकृत्य थे।