ब्रह्मवर्चस शोध संस्थान के सत्र चल रहे थे विज्ञान, दर्शन विद्या के कई विशेषज्ञों ने जो मिशन के कार्यकर्ता भी थे, उसमें भाग लिया था। सूत्र समापन पर पूज्य गुरुदेव का अन्तिम प्रवचन हुआ जिसमें समस्त संकल्पनाओं पर प्रकाश डाला तथा इस पुनीत कार्य हेतु समर्पित कार्यकर्ताओं का आह्वान किया गया था। अगले ही दिन सत्र में आए एक रसायन शास्त्र के पोस्ट ग्रेजुएट ऊपर गुरुदेव से आज्ञा लेने जा पहुँचे। बोले कि “यहीं रहकर काम करना चाहता हूँ।” बार बार अपनी योग्यता की रट लगा रहे थे। गुरुदेव ने सारी बात सुनकर एक ही बात पूछी। “तुम क्या काम करोगे ब्रह्मवर्चस् में?” उत्तर आया- “मैं तो उपकरणों पर काम करूंगा। निदेशक महोदय के साथ काम कर उनको सहयोग दूँगा”। गुरुदेव ने पूछा “कभी झाडू लगानी पड़े। प्रयोगशाला की सफाई करनी पड़े। पखाने की धुलाई करनी पड़े तो कर सकोगे?” उत्तर आया यह काम तो कोई भी नौकर कर लेगा। मैं तो वैज्ञानिक हूँ।” कड़े शब्दों में गुरुदेव बोल उठे जो “स्वयं सेवक बन सके, वही मेरा प्रिय परिजन बन सकता है। जाओ तुम नौकरी करो। तुम्हारे अन्दर लोकसेवा के संस्कार जाग जाएं तब आना”। यह थी इनकी मूल्याँकन की कसौटी।
बड़ी विनम्रता से गुरुदेव स्वीकार करते हैं कि सुव्यवस्था एवं आश्रम दिनचर्या का शिक्षण जो उन्हें बापू के साबरमती आश्रम में प्राप्त हुआ, वह वे जीवन भर नहीं भूलते व यही उपदेश आजीवन सभी को देते रहेंगे कि व्यवस्था बुद्धि के विकास द्वारा छोटी छोटी बातों से शिक्षण लेते हुए ही व्यक्ति प्रगतिपथ पर बढ़ सकता है। वे साबरमती आश्रम में थे। 1935-36 की बात हैं प्रातः दातौन तोड़ी तो जार बड़ी टूट गई। फिर दातौन कर उसे जब वे नाली में फेंकने जा रहे थे, मीराबेन ने देख लिया। तुरन्त हाथ पकड़कर समझाया कि “तुमने दो व्यक्तियों के बराबर दातौन की डाली तोड़ कर एक का हम छीना, दूसरे उसे कचरे में फेंक कर बर्बाद भी कर रहे हो। इसे अच्छी तरह धोकर सूखने डाल दो। सूख जाने पर जलावन के काम आएगी।”
छोटी सी बात किन्तु इसने उन्हें मथकर रख दिया। बाद में जब भी आश्रम में व्यवस्था की बात चलती तो इसका हवाला देते व कहते कि इन्हीं सूत्रों से सुव्यवस्था निभ सकती है। जन जन के पैसों से बना यह आश्रम तभी अस्तित्व बनाए रखेगा जब तुम अपनी सूक्ष्म व्यवस्था बुद्धि ऐसी ही विकसित कर लोगे।