एक बीजारोपण जिसकी परिणति वटवृक्ष के रूप में हुई

August 1990

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

प्रस्तुत पंक्तियाँ अप्रैल 1984 को अखण्ड ज्योति के जीवन वृत्त विशेषाँक में पूज्य गुरुदेव द्वारा लिखी यहाँ उद्धृत है। यह प्रसंग सहस्रकुंडीय यज्ञायोजन का चल रहा है जो वस्तुतः राजसूय बाजपेय स्तर का एक विशाल आयोजन था। कई रहस्यमयी विशेषताओं से भरा पूरा यह सारा कार्य क्रम रहा। आमंत्रित तो मात्र एक लाख नैष्ठिक उपासक थे किंतु आ गए थे इससे सात-आठ गुने अधिक। दस मील के घेरे में ये सब ठहरे। किसने आवास व्यवस्था की व किसने भोजन की? सब पहेलियाँ है पर कही भी कोई अव्यवस्था नहीं थी। राशि जो सहयोग हेतु जुटी थी वह मात्र टेंट खड़ा कर लेने जितनी थी। शेष व्यवस्था किस महाशक्ति ने सँभाल ली, इसे पूज्य गुरुदेव अदृश्य मार्गदर्शक सत्ता का खेल विनम्रतापूर्वक मानते है पर यदि इसे उनकी संगठन क्षमता का चमत्कार भी कहा जाय तो कुछ अत्युक्तिपूर्ण न होगा। इस विशाल आयोजन में उनने अपने आत्मबल के सहारे सब कुछ जुए पर लगा दिया। बदले में एक लाख से अधिक निष्ठावान परिजनों का एक संगठन देखते-देखते खड़ा हो गया। इस दिव्य वातावरण में अन्तः प्रेरणा ने उन्हीं परिजनों को यह दायित्व भी सौंपा कि प्रत्येक व्यक्ति न्यूनतम एक हजार विचारशील व्यक्तियों को अपने समीपवर्ती क्षेत्र में से ढूँढ़कर अपना सहयोगी बनाए।

वस्तुतः युग निर्माण योजना के विचार क्रान्ति अभियान एवं धर्मतंत्र से लोकशिक्षण की भूमिका इस आयोजन से पूरी तरह बन गई। जिन जिन व्यक्तियों ने इसमें भाग लिया उन्हें विभिन्न काम सौंपे गए जिनसे संगठन सशक्त बना-

कार्यकर्ताओं के जन्मदिवसोत्सव मनाने की परम्परा चलाना एवं पारिवारिक यज्ञ एवं सत्संग के रूप में न्यूनतम साप्ताहिक आयोजन। इनका बड़ी संख्या में प्रचलन हुआ।

(2) विधिवत् स्नान-ध्यान नियम पूजन न कर पाने वालों के लिए गायत्री मंत्र लेखन का क्रम चला। 2400 मंत्र लिख कर लोग कापियाँ गायत्री तपोभूमि में जमा करने लगे। इससे आँदोलन बच्चों बड़ों सभी के माध्यम से घर-घर तक पहुंच गया।

(3) एक करोड़ गायत्री चालीसा छापी गयीं व जो पाठ कर सकें उनमें वितरण करने के लिए एक रुपये की सौ की दर से महायज्ञ के प्रसाद के रूप में इन्हें बाँटा गया।

(4) विचारक्राँति को घर घर पहुँचाने के लिए तथा पढ़ाने, वापस लेने की योजना के अंतर्गत झोला पुस्तकालयों का क्रम चला। ज्ञानरथ लोहे की धकेल गाड़ी के रूप में बने जिनके माध्यम से युगसाहित्य, के प्रसार में और भी तीव्रता आई। जन जन तक प्रचार के लिए पूज्य गुरुदेव ने छोटी छोटी विज्ञप्तियों व विभिन्न विषयों पर पच्चीस पैसा सीरीज के सत्तर ट्रैक्ट लिखे। यह साहित्य झोला पुस्तकालयों व ज्ञान रथों द्वारा घर घर पहुंचा।

(5) इसी अभियान के अंतर्गत सद्वाक्यों के स्टीकर पोस्टर छपे जो घरों में कमरों में सर्वत्र लगे दिखाई देने लगे। दीवारों पर आदर्श वाक्य लेखन का आँदोलन हर शाखाओं द्वारा चलाया गया जिसमें युगपरिवर्तन के लिए जिस विचारधारा की आवश्यकता थी उसे सुन्दर अक्षरों से गाँव गाँव की दीवारों पर लिखाया गया।

(6) साइकिलों पर धर्मप्रचार की पद यात्रा हेतु चार चार के जत्थे निकले। रास्ते में मिलने वालों को गीत सुनाने और रात्रि को प्रज्ञा सत्संग के माध्यम से रामचरित मानस की प्रगतिशील प्रेरणा, गीता कथा, बाल्मीकि रामायण तथा प्रज्ञा पुराण कथा का आयोजन चल पड़ा।

(7) इसी महायज्ञ में स्थान स्थान पर इसी स्तर के महायज्ञ विशुद्ध रूप से वनौषधियों द्वारा आयोजित होने की योजना बनी, जिनमें स्वयं पूज्य गुरुदेव कई स्थानों पर गए। इन यज्ञों में सम्मिलित होने वालों में से प्रत्येक से यह कहा गया कि वे अपनी वैयक्तिक दुष्प्रवृत्तियों और सामाजिक कुरीतियों में से एक को संकल्पपूर्वक छोड़ें और न्यूनतम एक सत्प्रवृत्ति बढ़ाने का व्रत लें। उपस्थित लोगों में से अधिकांश ने ऐसा किया। कुरीतियों में से विशेषतया जातिगत ऊँच-नीच, धूमधाम और दहेज को विवाहों में से हटाना भिक्षा व्यवसाय, मृतक भोज जैसी कुप्रचलन एवं स्वार्थ प्रेरित अनैतिकताओं को हटाने पर विशेष जोर दिया गया।

(8) गायत्री तपोभूमि में आने वाले कार्यकर्ताओं को शिक्षण दिया गया कि वे न्यूनतम एक घण्टा समय और दस पैसा नित्य अपने क्षेत्र से सत्प्रवृत्ति संवर्धन के लिए लगाते रहने का व्रत लें। अधिक सक्षम लोगों ने एक दिन की आय भी इस पुण्य प्रयोजन हेतु दी।

(9) वानप्रस्थ परम्परा को पुनर्जीवित किया गया एवं अनेकों रिटायर्ड व्यक्तियों को समीपवर्ती क्षेत्र में सेवा कार्य करने के लिए तत्पर होने को कहा गया। इस प्रकार हजारों अनुभवी व्यक्ति सेवा कार्यों में जुट गए।

(10) वृक्षारोपण, स्वच्छता अभियान, सामूहिक श्रमदान, शिक्षा संवर्धन, नशा निवारण, पर्दा प्रथा निवारण, चल पुस्तकालयों की स्थापना जैसे रचनात्मक कार्यों को स्थान स्थान पर आरंभ कर उनका मार्गदर्शन क्रम आरंभ कर दिया गया।

(11) युग निर्माण योजना का एक शत सूत्रीय कार्यक्रम बनाया गया तथा 1064 में एक घोषणापत्र (मेनीफेस्टो) बनाकर उसे जनसाधारण में वितरित कर दिया गया। इसे नाम दिया गया “हमारा युग निर्माण सत्संकल्प”। लाखों व्यक्ति इसमें दी गई आचार संहिता के अनुरूप चलने लगे। इससे संगठन की जड़ें मजबूत हुई।

(12) कार्यकर्ताओं के किशोर बालकों की विशेष शिक्षा के लिए एक वर्षीय पाठ्यक्रम निरन्तर चलाने का क्रम 1964 से आरंभ किया गया जिसमें वे गृह उद्योगों के माध्यम से आजीविका उपार्जन व समाज सेवा की शिक्षा सीखने लगें। ऐसे एक सौ छात्रों की भर्ती का छात्रावास एवं प्रशिक्षण का प्रबंध किया गया।

(13) गायत्री तपोभूमि मूलतः उपासना कार्यों के लिए बनी थी। 1971 तक तो नौ दिवसीय सत्रों के माध्यम से पूज्य गुरुदेव यह क्रम बराबर चलाते रहे, फिर प्रचार प्रकाशन तंत्र के तेजी से बढ़ने से उनके वहाँ से शाँतिकुँज आ जाने के बाद नई भूमि खरीद कर वहाँ प्रज्ञा नगर बसाया गया तथा बढ़े कार्यक्रमों के अनुरूप नई इमारतें बना दी गई रोटरी आँफसेट मशीनें खरीदी गई। इस प्रकार गायत्री तत्वज्ञान से आरंभ हुआ लोकशिक्षण युगपरिवर्तनकारी साहित्य रचने वाली बहुमुखी कार्यपद्धति के रूप में विकसित हो सब दिशाओं में फैल गया। गुजराती मराठी, उड़िया, अँग्रेजी आदि भाषाओं में साहित्य का अनुवाद होकर पत्रिका कई रूपों में प्रकाशित होने लगी।

(14) चूंकि पूज्य गुरुदेव को ऋषि परम्परा के बीजारोपण व नई गतिविधियों को कार्य रूप देने हेतु मथुरा छोड़कर हरिद्वार आना था, उनकी विदाई के पूर्व जिम्मेदारी वितरण के निमित्त मथुरा के सहस्रकुंडीय यज्ञ स्तर के पाँच महायज्ञ विभिन्न स्थानों पर हुए। बिहार में टाटानगर, उत्तर प्रदेश में बहराइच, राजस्थान में भीलवाड़ा, मध्य प्रदेश में महासमुन्द तथा गुजरात में पोरबन्दर स्थानों पर ये कार्यक्रम बड़े उत्साहपूर्वक सम्पन्न हुए। पूज्य गुरुदेव एवं माताजी दोनों इन कार्यक्रमों में गए एवं पूरे भारत में एक नये उत्साह का उभार आया व निर्धारित कार्यक्रमों में असाधारण अभिवृद्धि हुई।

संक्षेप में यही है सहस्रकुंडीय महायज्ञरूपी समुद्र मंथन की 14 रत्नों के रूप में उपलब्धियाँ जो आने वाले चौदह वर्षों में एक विशाल संगठन के रूप में परिणति गायत्री परिवार को हस्तगत हुई एवं नवयुग के एक ऐसे मत्स्यावतार का जन्म हुआ जो बढ़ते बढ़ते आज 1990 में उस स्थित में आ पहुँचा है जिसे एक सुनियोजित अनुशासित समाजसेवी संगठन के रूप में लाखों देवमानवों द्वारा सम्पन्न होता देखा जा सकता है।

जो अखण्ड ज्योति एकाकी एक व्यक्ति द्वारा आंवलखेड़ा से मथुरा एवं फिर वहाँ से शांतिकुंज तक प्रज्ज्वलित रखी गई थी, उसका विराट रूप उस दावानल के रूप में देखा जा सकता है जो विचारक्रान्ति से मिले हुए गायत्री उपासना कार्यक्रम के रूप में दावानल की तरह व्यापक क्षेत्र में फैलती और गजब की ऊर्जा उत्पन्न करती चली गयी।

जो गुरुदेव को एक सिद्ध पुरुष, महामानव के रूप में जानते हैं वे उनका एक दूसरा रूप संभवतः न देख पाए हों एक विशाल जन-समुदाय से आत्मीयता के आधार पर घनिष्ठ जन-संपर्क कर उन्हें लोक-सेवा के क्षेत्र में मोड़ देने वाला एक करामाती बाजीगर। यह एक सत्य है कि उनने गायत्री व यज्ञ को जन-जन तक पहुँचा दिया परंतु बिखरे हुए मणि मुक्तकों को एक माला में पिरोकर आपस में गूँथकर उन्हें समाज देवता के चरणों में अर्पित कर देना एक अवतारी शक्ति का ही काम हो सकता था व इस कार्य को ऊपर से साधारण नजर आते, इस महाब्राह्मण ने सर्वोदय स्तर का कार्य करने वाले लोकनायक ने ऐसे अमली जामा पहनाये कि देखने वाले दंग रह गए।

यह एक संयोग नहीं, अकाट्य सत्य है कि जिन व्यक्तियों से पूज्य गुरुदेव ने सहस्रकुंडीय महायज्ञ में भागीदारी करवा ली तथा बाद में अपने क्षेत्रीय दौरों से लेकर व्यक्तिगत जनसंपर्क तक जिन-जिन से वे मिले, उन्हीं में से अगणित

उनका दायित्व संभालने आगे आए व आज स्थायी कार्यकर्ता व समयदानी कर्मठ परिजनों के रूप में सक्रिय है। जिन स्थानों पर इस महायज्ञ में शाखा संगठन स्थापित होने के संकल्प लिये गए, वहीं बीस वर्ष बाद शक्तिपीठ बने। क्या इसे एक सुनियोजित संगठन के सुयोग्य सूत्रधार की महालीला नहीं कहेंगे?


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118