लतीफ मियाँ के पते पर (Kahani)

August 1990

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सन 1943 में पूज्य गुरुदेव ने एक पुस्तक लिखी “मित्रभाव बढ़ाने की कला”। यह सद्ज्ञान ग्रन्थ माला का तेईसवाँ पुष्प था। पुस्तक के नाम की ही तरह उनके उन दिनों अनेक मित्र थे। कुछ गाँव के साथी जो उन्हें मत्त जी कहते थे, घर जब मनचाहा, चले आते थे, कुछ कांग्रेस के कार्यकर्ता मित्र, कुछ आर्य समाज के धर्मोपदेशक मित्र कुछ पण्डित कुछ मुसलमान तो कुछ ईसाई मित्र। सभी से उनका परस्पर स्नेहभाव व सम्मान देने के गुण ही ने उन्हें सबका प्रिय पात्र बनाया। वैसे प्रसंग चलने पर वे कहा करते थे-”मेरे ढ़ाई मित्र है।” ये कौन हैं? कौन से दो हैं व शेष आधे में कौन कौन हैं, यह पूछने पर सदैव मुस्करा देते।

अखण्ड ज्योति कार्यालय में तब पैर से चलने वाली ट्रेडिल मशीन लगी थी। बूढ़े नसरुमियाँ एवं लतीफ नाम का एक युवा लड़का मिलकर इसे चलाते थे व सतत् काम करते हुए अखण्ड ज्योति की छपाई करते थे। उनका अपना खर्च भी इसी से चल रहा था। इसी बीच 1947 का भारत-पाक विभाजन का दौर आया। सभी नगर उसकी चपेट में आ चुके थे। नसरु व लतीफ के न आने के कारण मशीन बंद हो गयी थी। पूज्य गुरुदेव स्वयं लतीफ के घर पहुँचे व उसके पूरे परिवार को अपने संरक्षण में अपने घर ले आयें। नसरुमियाँ कही और जा चुके थे। बाद में उन्माद थमने पर उनने लतीफ के पूरे परिवार की उसकी इच्छानुसार पाकिस्तान जाने की व्यवस्था भी कर दी। साम्प्रदायिक सौहार्द्र का यह अद्भुत उदाहरण था।

1984 में वही लतीफ कराची से वीसा लेकर भारत आया व वंदनीया माताजी व गुरुदेव से मिल कर गया। 1947 से अब तक सतत् एक अखण्ड ज्योति 3876, कौरंगी कालोनी कराची लतीफ मियाँ के पते पर जाती है।


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