यह सब एक ऐसे व्यक्ति के लिए ही संभव है जो अतिमानवी सत्ता का रूप हो। एक और तो इतना स्नेह, इतना प्यार कि अन्तःकरण मक्खन की डली समान नजर आता है व एक और इतनी निर्मोहिता-स्वयं का कड़ा दिल होना कि उद्धव के उलाहना सुनने पर ब्रज की गोपियों द्वारा श्रीकृष्ण के बुलावा भेजने पर इनकार कर न आने की तरह अपनी क्रियास्थली उसी ब्रज से मोह की डोरी एक झटके से तोड़ देना। क्या यह साधारण मानव के बस की बात है? संभवतः नहीं।
जून 1971 में जब गुरुदेव ने मथुरा से विदाई ली तब जो अभिव्यक्ति उनकी रही, वह आज पुनः स्मरण किये जाने योग्य है क्योंकि वे आत्मीय जनों को, जिन्हें अंग-अवयव कहते थे, कदापि अपनी पार्थिव काया के ऊर्ध्वारोहण पर शोक न कर निर्लिप्त भाव से कर्त्तव्य में जुटा रहने को कह गये हैं। पहले तो शरीर मथुरा से हरिद्वार होता हुआ हिमालय गया था व संभावना पूरी थी कि पुनः दर्शन होंगे। पर अब? अब तो उस शरीर का महाप्रयाण हो चुका। लाख मन को समझा लें कि वे सूक्ष्म रूप से हमारे मध्य विद्यमान है, पर मन का मोह तो मोह ही है। स्वयं वे कठोर-हृदय रहे होते व परिजनों से इतनी आत्मीयता न जोड़ी होती तो संभवतः मन को कठोर भी किया जा सकता था। किंतु जिसने इतनी स्नेहवर्षा की हो कि सामने वाले को अपने स्पर्श मात्र से, वाणी के वचनों मात्र से अंदर से हिला कर रखा दिया हो उसकी पार्थिव देह के महाप्रयाण पर क्या यह हृदय इतना कठोर हो जाय कि उनकी उन मधुर स्मृतियों को ही भुला बैठें। संभवतः हमारे स्थान पर पूज्य गुरुदेव भी रहें होते तो उनका अन्तःकरण भी ऐसा ही पर किया क्या जाय? याद आती हैं उन्हीं की लिखी पंक्तियां विदाई के दिनों की सन् 1971 की तथा साथ ही इस वर्ष महाप्रयाण से पूर्व एक माह से सतत् उनकी अभिव्यक्ति की, जिसमें उनका निर्देश था कि “पार्थिव काया से मोह न करना। हमें तो गायत्री जयन्ती को जाना ही है। तुम सबको हमारा काम आगे बढ़ाना है।” पूज्य गुरुदेव ऐसी ही परिस्थितियों में अप्रैल 1971 की अखण्ड-ज्योति में भाव भरे अन्तः करण से कहते हैं ”अपनी कमजोरी को हम छिपाते नहीं। हमारा अन्तःकरण अति भावुक ओर मोह ममता से भरा पड़ा है। जहाँ तनिक सा स्नेह मिलता है, मिठास को तलाश करने वाली चींटी की तरह रेंगकर वहीं जा पहुँचता है। स्नेह, सद्भाव की, प्रेम और ममता की मधुरिमा हमें इतनी अधिक भाती है कि शहद में पर सनी मक्खी की तरह उस स्थिति को छोड़ने की रत्ती भर भी इच्छा नहीं होती। जिन लक्ष लक्ष परिजनों का स्नेह, सद्भाव हमें मिला है, जी लेकर हजार शरीर धारण कर हजार कल्प तक लेते रहें। प्रेमी के लिए मिलन का आनन्द बड़ा सुखद होता है पर बिछुड़ने का दर्द उसे मर्माहत करके ही रख देता है। वही जान सकता है कि प्रियजनों के बिछुड़ने की घड़ी कितनी मर्मान्तक और हतप्रभ कर देने वाली होती है। लगता है कोई उसका कलेजा ही चीर कर निकाल लिये जाता है”।
“भगवान ने न जाने हमें क्यों स्नेहसिक्त अन्तःकरण देकर भेजा जिसके कारण हमें जहाँ प्रिय पात्रों के मिलन की थोड़ी सी हर्षोल्लास भरी घड़ियाँ उपलब्ध होती हैं वहाँ उससे अधिक वियोग-बिछुड़न के बारम्बार निकलने वाले आँसू बहाने पड़ते हैं। इन दिनों हमारी भी मनोभूमि इसी दयनीय स्थिति में पहुँच गयी है। मिशन के भविष्य की बात एक ओर उठाकर भी रख दें तो भी प्रियजनों से बिछोह वह भी सदा के लिए हमें कष्टकर बन शूल रूप में चुभ रहा है।”
परिजन इन पंक्तियों पर ध्यान दें। कितना निश्छल स्नेहसिक्त अन्तःकरण था उस सत्ता का कि उसने जिन से नाता जोड़ा, उन्हें वह अंत तक याद करता रहा। 60 वर्ष का जन संपर्क व लोकमंगल के लिए शरीरयज्ञ जिसने किया वह यदि इतनी वेदना के साथ तब जाने की बात कहता था तो 1990 में महाप्रयाण के समय उसके भीतर कितनी पीड़ा रही होगी, कितनी मर्मान्तक वेदना उसे टीस रही होगी, इसकी कल्पना भर की जा सकती है। किंतु महापुरुषों की लीला अपरंपार हैं। पूज्यवर श्रीकृष्ण की तरह ही नीति पुरुष थे। यदि वे लोकमंगल के लिए तिल-तिल कर अपनी आहुति देकर जाते समय तक परिजनों की याद भी करते हैं वे उज्ज्वल भविष्य का निर्माण करने के निमित्त अपनी मुक्ति की बात परे रख एक सौ दस वर्ष तक और सूक्ष्म-कारण शरीर रूप में हमारे बीच विद्यमान रहने की बात कह गये हैं, तो उस पर विश्वास कर हमें भी अपने को उसी स्तर की दृढ़ता को विकसित करना होगा। शक्ति तो हमारे मध्य उपस्थिति का संकेत सतत् दे रही है। मोह से परे उठकर हमें लोकमंगल का, विद्या विस्तार की लक्ष्यपूर्ति का उनका स्वप्न साकार करना है, यह याद रहा तो आँसू रुकेंगे, अवश्य रुकेंगे।