खिलौने बाँटने के लिए भी चली थी लेखनी

August 1990

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“अखण्ड ज्योति के प्रथम अंक को देख कर कई पाठकों ने शिकायत के पत्र भेजे है कि उसमें सम्मोहन, तंत्र, संतानोत्पत्ति और योग आदि क्रियाओं का बहुत थोड़ा बयान है। अपने इन स्नेही बंधुओं से हमें एक प्रार्थना करनी है कि जल्दी न करें। धीर-धीरे और थोड़ा-थोड़ा ही वे ग्रहण करके मनन करते जाएँ और उसे अभ्यास में लाते जाएं। एक साथ उच्च कक्षा की चर्चा आरंभ कर देना अनुचित और निष्फल होगा”।

अखण्ड ज्योति के फरवरी 1940 अंक में तीसरे पृष्ठ पर यह पंक्तियाँ छपी है। माह भर पहले प्रकाशित अखण्ड ज्योति के प्रवेशांक में सम्मोहन विद्या, निद्रा विज्ञान, स्वरयोग, शारीरिक लक्षणों से मनुष्य की पहचान जैसे चार विषयों पर लेख प्रकाशित हुए थे, इन्हीं की प्रतिक्रिया ऊपर व्यक्त की गयी थी।

आज के परिजन जो पिछले चार दशक से पूज्य गुरुदेव के संपर्क में आने के बाद उनके प्रगतिशील विचारों को पढ़ते आ रहे है, उनको ये पंक्तियां असमंजस में डाल सकती है। उन्हें लग सकता है कि जिन विषयों एवं मान्यताओं को स्वयं पूज्य गुरुदेव ने अंधविश्वास व मूढ़तायुक्त कहा है, वे इस पत्रिका के आरंभ में मैस्मरेज्म, हिप्नोटिज्म, शकुनशास्त्र संतानोत्पत्ति आदि के रूप में छपे व पाठकों को गुरुदेव ने आश्वासन दिया कि वे क्रमशः इन विषयों को छूते व उन तक सारगर्भित रूप में पहुँचाते रहेंगे, क्या पूज्य गुरुदेव प्रचलित अंधविश्वासों का समर्थन कर रहे थे? यह दुविधा किसी भी विचारक्रांति के पथिक पाठक के मन में आ सकती है।

वस्तुतः यह उनका वह रूप था जिसमें उनने पाठक मनोविज्ञान को पढ़ने का प्रयास किया था। देखा कि आत्मज्ञान की घुट्टी कड़वी है व इसे सुगर कोटेड गोली के रूप में देना है तो जिज्ञासा को जिन्दा बनाये रख कर धीरे धीरे इन सभी विषयों के प्रति आकर्षण को प्रगतिशील मोड़ देना होगा। यही विचार परिवर्तन है, ब्रेनवाशिंग है एवं यह बड़ी धीमी प्रक्रिया होती है।

उनने आश्वासन ही नहीं दिया पुस्तकें भी छह आना सीरीज में इन ऑकल्ट विषयों पर लिखीं जिन के शीर्षक पाठकों को देखकर आश्चर्य हो सकता है। सम्मोहन विद्या, जीव जन्तुओं की मूक भाषा, आकृति देखकर मनुष्यों की पहचान, परकाया प्रवेश, वशीकरण की सच्ची सिद्धि, मनचाही सन्तान, भोग में योग, हस्तरेखा विज्ञान इत्यादि। यह नामावली अपूर्ण है। लगभग साठ पृष्ठों की इन विभिन्न पुस्तकों में इन विद्याओं का जो स्पष्टीकरण अध्यात्म तत्वज्ञान को आधार बनाकर किया गया है, वह लेखन शैली का अध्ययन करने वाले किसी भी हिन्दी प्रेमी के लिए शोध का विषय हो सकता है।

यह कल्पना तक नहीं की जा सकती कि वशीकरण मनचाही सन्तान, सम्मोहन जैसे विषयों को आध्यात्मिक, मनोवैज्ञानिक, शरीर रक्षा परक जामा पहनाया गया होगा। परन्तु शीर्षक को आकर्षक देखकर पुस्तक को एक बार आदि से अन्त तक पढ़ने वाला पाठक अपने चिन्तन को आमूलचूल परिष्कृत करके उठता है। इस जाल में कई विचार शील, तथाकथित प्रगतिशील पाठक भी आ गए एवं सभी पूज्य गुरुदेव की पत्रिका के पाठक बनते चले गए क्योंकि उन्हें कभी कल्पना भी नहीं थी कि एक दिग्भ्रान्त करने वाले विषय पर तत्वदर्शन की सारगर्भित पुस्तक भी लिखी जा सकती है। इन पुस्तकों के ढेरों संस्करण छपे व हाथों हाथ बिक गए। “मैं क्या हूँ” जैसे आत्मोपनिषद् से शुरुआत करने वाले मनीषी को भी पाठक रुचि को देखते हुए उन दिनों झुनझुना बाँटकर ललचाने वाली विधि का उपयोग करना पड़ा था।

लेकिन वे अपने संकल्प से कभी भी डिगे नहीं। उनने इन विषयों का प्रतिपादन या पुष्टि न अपनी पत्रिका में की, न ही इन पुस्तकों में। 1940 की ही एक अखण्ड ज्योति में वे लिखते हैं कि “इस पत्र में तंत्र शास्त्र, मैस्मरेज्म, प्रेतवाद, मनोविज्ञान आदि की चर्चा करने में कुछ विलक्षणता और अटपटापन देख कर किसी को न तो भ्रम में पड़ना चाहिए, नहीं आश्चर्य करना चाहिए। यह सब मनोविज्ञान और अध्यात्म विद्या द्वारा सामयिक रोगों की चिकित्सा विधि मात्र है। यह रोते हुए बच्चों को खिलौने देना है।”

भली भाँति समझा जा सकता है कि इन प्रतिपादनों द्वारा वे क्या कर रहे थे। धीरे धीरे क्रमिक गति से वे इन विषयों पर छाये भ्रान्तियों के कुहासे को मिटा रहे थे। सही राह पर लाने के लिए श्रद्धासिक्त मनोभूमि वाले व्यक्तियों को वेदांत दर्शन का एक झटका देने की बजाय यह मनोवैज्ञानिक चिकित्सा वाली तकनीक ज्यादा सही थी। यदि वे उन दिनों अध्यात्म के सही किन्तु अप्रचलित स्वरूप को लोगों के समक्ष सीधे रखते तो शायद वे निराश हो कर पढ़ना बन्द कर देते किन्तु जिस विषय को उनने रहस्य रोमाँच के घेरे में बन्द कर रखा था, उसका स्पष्टीकरण जब उन्हें मिलता चला गया तो वे क्रमशः उनके होते चले गए।

एक दो पुस्तकों से समझ में आ जाएगा कि वह शैली स्वयं में निराली भी थी कि नहीं। “मनचाही सन्तान” में वे मनोनिग्रह, कुदृष्टि पर नियंत्रण तथा इंद्रिय संयम का ही प्रभाव बताते है कि मनचाही सन्तान उत्पन्न नहीं की जाती, उस में सुसंस्कारों का प्रवेश कर उसे सुयोग्य बनाया जा सकता है। गृहस्थ को एक तपोवन बताते हुए वे सन्तानोत्पादन के इच्छुकों को भी तप का ड़ड़ड़ड़ समझाते है।

सम्मोहन विद्या” एवं “आकृति देखकर मनुष्य की पहचान” जैसी पुस्तकें आज की जनसंपर्क कला व लोक व्यवहार विद्या के विशेषज्ञों के लिए दिशा निर्देशन का काम दे सकती है। दूसरों को कैसे पढ़ा जाय व कैसे उन्हें अपने सद्विचारों तथा सही प्रभा मण्डल द्वारा अपना बनाया जाय, यही व्याख्या इन में है। क्या अब भी कोई शीर्षक देखकर किसी प्रकार का दोषारोपण लेखनी शिल्प के इस कलाकार पर महामनीषी पर करेंगे? संभवतः नहीं। प्रस्तुत पुस्तकों को इसीलिए नये सिरे से प्रकाशित कर परिजनों के समक्ष श्रद्धाँजलि समारोह के समय प्रस्तुत किया जा रहा है ताकि वे 1940 उद्भूत चिन्तन का अब भी लाभ उठा सकें।

तुलसी मीठे वचन ते सुख उपजत चहुं ओर। वशीकरण एक मंत्र है, तज दे वचन कठोर॥ तुलसीदास जी की इन पंक्तियों की ही व्याख्या

वशीकरण पुस्तक में की हो, तो पढ़ने के बाद ही व्यक्ति को लगेगा कि वशीकरण तो उसकी मीठी वाणी व सद्व्यवहार में ही निहित है। सभी पुस्तकें इसी प्रकार की हैं व इन सबने क्राँतिकारी चिन्तन का नवनीत भावुक जनमानस के समक्ष रखा। उन दिनों रहस्य विद्या का जाल पूरे भारत व विश्व मानस पर छाया था। उसका रहस्योद्घाटन कर उनने सारे भ्रम जंजालों का नीर क्षीर विवेक से अलग अलग कर दिया।


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