लेखनी द्वारा लोक शिक्षण का सूत्रपात

August 1990

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सन् 1938-39 के दिन भारत और विश्व के इतिहास के लिए भारी उथल-पुथल के थे। भारत में स्वतंत्रता संग्राम जोरों पर था। महाकाल कुछ ही वर्षों में आजादी के साथ एक नये सूर्योदय के समीप राष्ट्र के लिए जा रहा था। उधर परोक्ष जगत में एक विश्वयुद्ध की पृष्ठभूमि रची जा रही थी। हिटलर का उदय हो चुका था व उसका अधिनायकवाद अपनी जकड़ में पोलैंड व फ्राँस को ले चुका था। भविष्य में क्या होगा? ये संभावनाएं दिव्यदर्शी आत्माओं को ही दृष्टिगोचर होती थी। साधारण व्यक्ति भविष्य का पूर्वानुमान कब कर पाते है?

पूज्य गुरुदेव उन दिनों “सैनिक” समाचार पत्र से अवकाश लेकर अपनी तप साधना में लीन थे। वे इस बीच स्वतंत्रता संग्राम में अपनी भूमिका निभाने के बाद बापू से यह निर्देश ले आए थे कि उन्हें योगीराज अरविंद एवं रमण महर्षि की तरह आध्यात्मिक शक्ति के सहारे परतंत्रता से मुक्ति पा रहे भारत व युद्ध की पीड़ा से भुगत रहे विश्व को प्रचण्ड सामर्थ्य परोक्ष जगत से प्रदान करनी है। यह उनकी मार्गदर्शक सत्ता का निर्देशन भी था। उन दिनों जिनने पूज्य गुरुदेव को लेखनी द्वारा संघर्ष कर एक मासिक आध्यात्मिक पत्रिका निकालने की स्थिति में देखा था, वे एक सामान्य व्यक्ति का संघर्ष मात्र ही समझ पाए थे। वस्तुतः पूज्य गुरुदेव युग परिवर्तन के लिए पृष्ठभूमि तैयार करने के लिए अपनी लेखनी द्वारा लोकशिक्षण का,जन-जन का आत्मबल बढ़ाने का, उन्हें तपोनिष्ठ बनाने का शिक्षण आरम्भ करना चाहते थे। “सैनिक” मूलतः एक समाचार पत्र था। उससे वे वह कार्य नहीं कर सकते थे, जो अध्यात्म मंच से संभव था, वह भी तप में लीन एक अवतारी सत्ता द्वारा जिसका अवतरण ही इसलिए हुआ था कि विचारों में संव्याप्त भ्राँतियों का उन्मूलन के।वह एक नये अभियान का प्रज्ञा अभियान का सूत्रपात करना चाहते थे। उन्हें लेखनी के माध्यम से आने वाले युग के लिए संस्कारवान आत्माओं का आह्वान करना था। इसके लिए अपनी व्यवस्था,चाहे वह शुरुआत में छोटी ही हो, बनाना बहुत जरूरी था।

“सैनिक” पत्र छोड़ने के बाद डेढ़ वर्ष का समय उनने स्वाध्याय व अपनी भावी तैयारी हेतु गहन मन्थन में लगाया। इसके लिए उनने कलकत्ता, पटना, वाराणसी, दिल्ली, पूना, मद्रास की विभिन्न लायब्रेरीज छान मारी। अध्यात्म तत्वज्ञान से लेकर समाज के नव निर्माण संबंधी आवश्यक संदर्भ और विवरण संकलित कर उन्हें सिलसिलेवार जमाया। इसके बाद शुरुआत दो हजार संस्कारवान आत्माओं से की। इन व्यक्तियों से उनका संपर्क या तो प्रत्यक्ष हो चुका था या वे परोक्ष रूप से उनकी रुचि को जानते थे। अपनी दृष्टि से उनने उन्हें परखा कि उनकी मनोभूमि आत्मनिर्माण, आत्मविकास एवं तदुपरान्त युग परिवर्तन के संस्कारों के बीज बोने योग्य है या नहीं। इन सभी को उनने अपने हाथ से पत्र लिखे, प्रत्येक को उसके स्वरूप और स्तर के अनुसार अलग-अलग।

कोई कल्पना कर सकता है कि एक अकेला व्यक्ति पत्राचार, स्वाध्याय, लेखन-प्रकाशन की व्यवस्था, कागज का प्रबंध, पत्रिका के लिए रजिस्ट्रेशन की अनुमति आदि की भागदौड़ कैसे कर सकता है। पर यह सब उनने अकेले उस अवधि में किया जब ब्रिटिश प्रशासन का दमन चक्र अपने चरम पर था एवं सभी सामग्री युद्ध के कारण आसानी से नहीं मिल पा रही थी। उस पर भी संकल्प यह कि हम बिना किसी से साधन माँगे, किसी प्रकार की वित्तीय सहायता लिए पत्रिका प्रकाशित करेंगे। जिन्हें पत्रिका या समाचार पत्र निकालने का कटु अनुभव है वे जानते हैं कि प्रतिकूल परिस्थितियों में सब कुछ कर पाना एकाकी व्यक्ति के वश की बात नहीं। पर पूज्य गुरुदेव के संकल्प के साथ गुरु का बल जुड़ा था, महाकाल का आश्वासन साथ में था कि वे किसी से भी बिना किसी सहायता माँगे विचारक्राँति का माहौल तैयार करेंगे। उनने सब कुछ दाँव पर लगा दिया। कुछ धनपति वित्तीय समूहों ने उनके शुभ संकल्प को सुनकर धनराशि देने की बात कही तो उनने अस्वीकार कर दी। यह उनके ब्राह्मणत्व को एक चुनौती थी कि क्या वे अपने आत्मबल से कुछ कर सकते हैं? यदि हाँ, तो वे शुरुआत कर दिखाएँ।

उन दिनों घर वालों से लेकर, मित्रों-परामर्शदाताओं ने उन्हें यही राय दी कि वे स्वतन्त्र पत्रिका निकालने के स्थान पर, अच्छा हो जनरुचि की पुस्तकें लिखें अथवा वापस गाँव जाकर अपने पिता के कथा-पठन पाठन के काम को सँभाल लें। सभी को इस काम में घाटा ही घाटा नजर आ रहा था। पर महाकाल के वरद् पुत्र के लिए तो यह अभियान एक कर्म साधना की शुरुआत थी। उन्हें किसी का परामर्श क्या प्रभावित करता। वे तो महाकाल की आकाँक्षा का प्रतिनिधित्व करने के साथ-साथ लोक संग्रह के लिए भी कर्म कर रहे थे। उनका हर कार्य दिव्य सत्ता की स्फुरणा के साथ था। कर्तृत्व के माध्यम से जो शिक्षण करना था, उसे उन्हें अपने जीवन में भी तो उतारना था। पुरुषार्थ असंभव स्तर का ही सही, कर डालने का निर्णय कर अन्ततः उनने पत्रिका का नामकरण कर उसकी शुरुआत वसंतपंचमी 1940 (संवत् 1996) से विधिवत् कर दी।

नाम चुनने के लिए कोई ऊहापोह नहीं करनी पड़ी। जो अखण्ड-ज्योति उनने पंद्रह वर्ष की आयु में प्रदीप्त की थी, जिसके प्रकाश में उन्हें सूक्ष्म शरीरधारी सत्ता के दर्शन हुए थे, उसी प्रकाशपुँज को लक्ष्य रख उनने पत्रिका का नाम “अखण्ड -ज्योति” रख दिया। यही तो उनकी प्रेरणा का मूल स्रोत था।

जिस प्रकाश में गायत्री महापुरश्चरण साधना अब तक चली थी, व अगले दिनों और प्रचंड रूप में चलनी थी, वही इस पत्रिका का नाम बनकर आया व सभी परिजनों को इसका इतिहास बताते हुए उनने दो हजार पते जो छाँटे थे, उन्हें नमूने की एक-एक प्रति भेज दी कि यदि आपको पसंद आये तो आप अन्य पाँच व्यक्तियों को भी इसे पढ़ायें। वे भी ग्राहक बनना चाहें तो जब सुविधा हो तब चन्दा भेज दें। मूल्य था प्रत्येक पत्रिका का नौ पैसा, वार्षिक डेढ़ रुपया।

पत्रिका के मुख्य पृष्ठ पर भगवान कृष्ण सुदर्शन हाथ में लिए युद्ध क्षेत्र में खड़े हैं, यह चित्र था मानो यह परिजनों को आश्वासन था कि आने वाली प्रतिकूलताओं की घड़ी में भी वे महाकाल के संरक्षण में है, इसलिए निश्चिन्त रहें। पत्रिका-में विभिन्न लेखकों के लेख थे एवं अध्यात्म विधा पर सारगर्भित विवेचना थी। यह थी नवयुग के मत्स्यावतार की शुरुआत जो बाद में अनेक सोपानों को पार करती हुई इस स्थिति में पहुँची जैसी कि आज हैं एक साधक की लेखनी के अनुष्ठान का यह प्रथम पुष्प था।


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