अद्भुत होता है दो महान आत्माओं का मिलन। इन क्षणों में जो न निहार पाएँ। फिर भी उतना ही क्या काम है जितना ये देख पाते हैं। गुरुदेव से लगभग 25 उम्र में बड़े महात्मा आनन्द स्वामी शान्ति कुँज पधारे थे। एक तो संन्यासी दूसरे आयु में जेष्ठ, तीसरे सघन आत्मीय। शिष्टता की प्रतिमूर्ति गुरुजी उन्हें माला पहिनाने के लिए बढ़े, माला उनके हाथ में भी थी। कौन किसे पहिनाए? प्रेम भरी नोक झोंक शुरू हो गई। गुरुदेव ने हँसते हुए अपने पक्ष में अनेकों तर्क दिए। बड़े हैं, संन्यासी हैं, पूज्यनीय हैं, कितनी ही बातें कहीं।
छोटे कद के सुडौल शरीर वाले महात्मा जी ने सभी तर्कों के जवाब में एक बात कही यह मेरी श्रद्धा का प्रश्न है, आप किसी से अपने को छुपा ले पर मेरे से नहीं छुपा सकते। फिर हँसते हुए बोले-मुझे! झुको कद में छोटे होने के कारण माला पहनाने में उनको परेशानी हो रही थी। आखिर गुरुदेव को उनके प्रेमवश झुकना ही पड़ा उन्होंने हँसते हुए माला गले में डाल दी। बड़ी देर दोनों की बालवत् निश्छल हँसी वातावरण को पवित्र करती रहीं “मुनि रघुबीर परस्पर नहीं” गोस्वामी जी की इस उक्ति को चरितार्थ होते जिसने भी देखा धन्य हो उठा।