युग पुरुष ने सौंपी वह पीर। कि जिसने रक्खा उन्हें अधीर।
प्राण से प्यारी ऐसी पीर को, हम भुला न पायेंगे। अरे! क्यों उसे भुलायेंगे॥1॥
उनने जीवन भर ही की, युग-पीड़ा की अनुभूति। वह ही युग की पीर बन गई, उनकी एक विभूति॥
रखेंगे प्राणों बीच संभाल। ताकि संवेदन भरे उछाल॥ दर्द से भरे संस्मरण सुना, किसे हम रुला न पायेंगे। अरे! क्यों उसे भुलायेंगे॥2॥
उस विभूति को हम धारण कर, करे आत्म विस्तार। ताकि हमारा संवेदन पाये, दुखिया-संसार॥
यही संवेदन है आधार। इसी से होगा हृदय उदार॥ इस पूँजी द्वारा, भावों का वैभव पा जायेंगे। अरे! क्यों उसे भुलायेंगे॥3॥
दीनों के हम दुख बंटायें, तो हल्का हो भार। सुख बाँटे हम सबको, सारी दुनिया है परिवार॥
करे सबकी आपस में प्रीति। यही है स्वर्ग-सृजन की रीति॥ ऐसे ही अपनी धरती पर, हम स्वर्ग सजायेंगे। अरे! क्यों इसे भुलायेंगे॥4॥
पर पीड़ा को क्या पहिचाने, जो होगा पाषाण। हम में तो है, महाप्राण के ही लहराते प्राण॥
हरेंगे हम दुखिया की पीर। बंधायेंगे दीनों की धीर॥ इस संवेदन से, दीनों के दुख, दर्द मिटायेंगे। अरे! क्यों इसे भुलायेंगे॥5॥