संसर्ग ने अनेकों ब्राह्मण उपजाए (Kahani)

August 1990

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आलोचनाएं जहाँ सामान्य व्यक्ति को हैरान, परेशान और उद्विग्न करके रख देती हैं, वहीं महापुरुष इनसे खासा मनोरंजन कर अपना गूढ़ार्थ प्रकट कर देते हैं। एक दिन बाहर से आए एक कार्यकर्ता ने थोड़ा दुःखी मन से कहा-”गुरु जी! कुछ लोग कहते हैं कि आप ब्राह्मण न होकर बढ़ई हैं।” अखबार को मेज पर रखते हुए बोले “अच्छा! पर मैं उतना ऊंचा असल में मैं तो भंगी और धोबी हूँ।”

कार्यकर्ता को चकित होते देखकर वह जोर से हंसने लगे। हंसी थमने पर बोले “देखो मेरा काम है संस्कृति की सफाई और धुलाई। अब हुआ न भंगी और धोबी।” सुनने वाला उनके इस सरल निष्कपट भाव को देख हतप्रभ था।

पारस पत्थर की तरह होते हैं, सन्त, जिनके संसर्ग में आकर अनगढ़ सुगढ़ बने बिना नहीं रह सकते। घटना सन् 1983 की है। पू. गुरुदेव दो-तीन कार्यकर्ताओं के साथ कार में बैठकर आंवलखेड़ा जा रहे थे। उद्देश्य था, शक्ति पीठ के लिए जमीन देखना। रास्ते में एक सज्जन बोले-”गुरुदेव! जब वहाँ शक्ति पीठ बन जाये तो एक ब्राह्मण नियुक्त कर दीजिएगा। इससे मन्दिर का संचालन उचित रीति से होता रहेगा।” सुनकर वह उसकी ओर मुखातिब होकर बोले” यदि बर्फ के पास बैठ कर ठण्डक न लगे तो बर्फ कैसी? आग के पास बैठ कर ठण्डक न लगे तो बर्फ कैसी? आग के पास बैठ कर गर्मी न लगे तो वह आग कैसी? हमारे पास बैठकर भी यदि कोई ब्राह्मण न बन सका तो हम ब्राह्मण किस बात के।”

आत्मविश्वास से परिपूरित’ उनके ये वचन सुनकर सुनने वाले मौन होने के सिवा क्या करते आगे चलकर सभी को उनके कथन की सार्थकता अनुभूत हुई। सचमुच उनके संसर्ग ने अनेकों ब्राह्मण उपजाए।


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