मैं प्रकाश की खातिर पूरी रात चलूँगा (Kavita)

August 1990

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मुझे नहीं आता है, कोरे स्वप्न सजाना, मैं अपने मन की, देखी साकार करूंगा।

माना यह, हर एक कल्पना सत्य न होती, हर अभिलाषा, पूरी हो पाती ही कब हैं? सभी ओर अवरोध खड़े हैं, भाँति भाँति के, हर पगडंडी मंजिल तक, जाती ही कब है? लेकिन मुझे न आता, आधे में रुक जाना, निकल पड़ा हूँ तो बाधायें पार करूंगा॥

ऋतुएं भी बदलेंगी, अपने अपने क्रम से, कभी मेघ गरजेंगे, सरिता इतरायेगी। धूप कभी अपना शरीर, ही झुलसायेगी, लौट पुनः दिन, वासन्ती वेला भी आयेगी, मैंने कब सीखा है, पीड़ा से डर जाना, अभिसंघातों से, जीवन श्रृंगार करूंगा॥

मेरा रहा असंभव से आकर्षण गहरा, चाँद सितारों पर, मेरा मन ललचाता है। जाने क्यों घनघोर तिमिर की छाया में भी, मुझको आशा दीप, दूर से दिख जाता है। मुझे नहीं आता, अंधियारे से घबराना, मैं प्रकाश की खातिर पूरी रात चलूँगा॥


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