उज्ज्वल भविष्य के प्रवक्ता महाकाल के अंशधर

August 1990

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युग का अर्थ होता हैं। एक काल अवधि, एक एरा एक “जमाना”। जिस जमाने की जो विशेषताएं प्रमुखताएँ होती हैं, उन्हें युग के साथ जोड़कर उस काल अवधि को सम्बोधित करते हैं। जैसे ऋषियुग यंत्रयुग, ज्ञानयुग। जब भी युग परिवर्तन की बात कही जाती हैं। तो उसमें उस कालावधि की चपेट में आने वाले पूरे समष्टिगत तंत्र को बदलने से आशय होता हैं। पूज्य गुरुदेव ने जब युग निर्माण की बात कहीं तो यह तो कहा कि यह व्यक्ति निर्माण से होगा, किन्तु उसका पूर्वार्द्ध भी बता दिया युग परिवर्तन अर्थात् इस काल खंड से जुड़े हर व्यक्ति के सोचने के ढर्रे में, रीति-नीति तथा महत्त्वाकांक्षाओं में आमूलचूल परिवर्तन।

यह परिवर्तन कैसे हों? यह एक सर्वाधिक जटिल प्रसंग हैं क्योंकि यह निर्माण से भी दुरूह, समय साध्य एवं कष्टसाध्य प्रक्रिया हैं। विश्वभर में समय समय पर द्रष्टा, मनीषी, भविष्य द्रष्टा जन्मे हैं व उनने तत्कालीन समय को देखते हुए अपनी अंतर्दृष्टि के आधार पर भविष्य के विषय में जो भी कुछ कहा हैं, वह निराश ही करने वाला है। लगता है कि मानव के कृत्यों के कारण महाविनाश की, महाप्रलय की घड़ी निकट आ पहुँची। व्यक्ति संकीर्ण स्वार्थपरता से बाहर नहीं निकल पर रहा, समाज मूढ़ मान्यता से ग्रस्त हैं तथा राष्ट्र युद्धोन्माद में चूर हैं। ऐसी स्थिति को देखते हुए पर्यवेक्षक कहते हैं कि यदि मनुष्य ने अपनी चाल नहीं बदली तो अमर्यादित प्रजनन से लेकर मनोविकार, आवेशग्रस्तता एवं शहरीकरण, औद्योगीकरण से लेकर प्रदूषण, अंतर्ग्रही विक्षोभ, प्रकृति प्रकोप एवं युद्ध ही इस धरित्री को देखते देखते नष्ट कर डालेंगे।

उनका यह मूल्यांकन संव्याप्त परिस्थिति को देखते हुए गलत भी नहीं कहा जा सकता। चारों और अविश्वास, विद्वेष, अलगाववाद पारस्परिक विग्रह सम्प्रदायवाद एवं सत्ता की भोग लिप्सा ही छाई दिखाई देती हैं। दो विश्वयुद्ध एवं 240 छिटपुट युद्ध इसी सदी में हो चुके किन्तु मनुष्य को लड़े बिना चैन ही नहीं मिलता, ऐसा लगता है अब जीवाणु युद्ध, रासायनिक युद्ध कल्पना मात्र तक सीमित नहीं रहे-विभिन्न युद्धों में एक दशक में ही उनका निर्ममतापूर्वक प्रयोग हो चुका हैं। सभी का प्रतिफल एक ही नजर आता हैं, मनुष्य जाति की सामूहिक आत्महत्या की तैयारी।

ऐसी विपरीत व दुर्धर्ष परिस्थितियों में भी कोई एक महामनीषी सबका मनोबल बढ़ाते हुए मूल समस्या को ठीक कर मानव जाति को सही राह पर ले जाने की तथा उज्ज्वल भविष्य लाने की बातें करता हैं तो आश्चर्य तो होता हैं। वह बातें ही नहीं करता एक पूर्व चित्राँकन छोटा संस्करण भी अपने सामने विनिर्मित करता चला जाता हैं, ऐसी सुदृढ़ नींव विनिर्मित करता चला जाता हैं, तो इस दुस्साहस पर विश्वास करने को भी मन करता हैं।

पूज्य गुरुदेव की ही हस्तलिपि में अभी तक अप्रकाशित एक लेख से उनका भविष्य कथन उद्धृत हैं।

ड़ड़ड़ड़

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हम अकेले हैं जो अन्य सभी के कथनों का सम्मान करते हुए इतना भर कहते हैं “उन परिस्थितियों को देखते हुए जिस महाविनाश की संभावना व्यक्त की गई हैं, वह निराधार नहीं हैं। फिर भी इतना निश्चित हैं कि वृत्तासुर, महिषासुर, जैसे दुर्दान्त दैत्य जब निरस्त हो चुके हैं, तो कोई कारण नहीं कि सशक्त क्षमता के रहते वर्तमान विनाश संकट को परास्त न किया जा सके और उसके सर्वथा प्रतिकूल सृजन की नई परिस्थितियाँ न बन सकें। लंका दमन के उपरान्त अविलम्ब धर्म राज्य का सतयुगी वातावरण आ गया था। उसकी पुनरावृत्ति फिर न हो सके, ऐसा कोई कारण नहीं।

यह संकल्प एक ऐसी सत्ता का हैं जो यह मान रही हैं कि परिस्थितियों में बिगाड़ मनुष्य बहुत कर चुका, किन्तु अब सुधार की बारी हैं। हर युग में सतयुग आता रहा हैं तो अब कलियुग, जो अपनी अन्तिम सांसें गिन रहा हैं, क्यों नहीं सतयुग की वापसी के साथ ही पलायन कर युग परिवर्तन को सुनिश्चित करेगा? वस्तुतः यह विधेयात्मक चिन्तन ही इस प्रज्ञापुँज का, ऋषि सत्ताओं की पक्षधर, महाकाल की सत्ता का सर्वाधिक सबल सशक्त पक्ष हैं जिसने लाखोँ प्रज्ञा परिजनों में नये प्राण फूँक कर उन्हें पुनर्जीवित कर दिया। अपनी उलटी चाल बदल कर नये सिरे से सतयुगी ब्राह्मण परम्परा वाली जिन्दगी जीने लगना एक प्रकार से नये जीवन समान ही तो कहा जायगा।

पूज्य गुरुदेव ने जब अखंड ज्योति प्रकाशित की तब द्वितीय विश्व युद्ध चल रहा था। सुदर्शन चक्रधारी श्री कृष्ण उसके मुखपृष्ठ पर आश्वासन देते विराजमान थे। शीघ्र ही भारत को आजादी मिलने जा रही थी। उसके बाद संभावित भारत व्यापी अराजक परिस्थितियों को दृष्टिगत रख साधना अनुष्ठान की महत्ता एवं ब्रह्मास्त्र अनुष्ठान रूपी गायत्री महापुरश्चरण की आवश्यकता को पत्रिका में प्रतिपादित किया जाने लगा था। इसके बाद सहस्रकुंडीय महायज्ञ 1958 में संपन्न हुआ। व सभी परिजनों को एक सूत्र में आबद्ध कर गायत्री परिवार रूपी संगठन बनाया। इस संगठन के माध्यम से अष्टग्रही योग, भारत-चीन युद्ध (968) भारत-पाक युद्ध (1965) बंगला मुक्ति संघर्ष (1971) आपातकाल (1976) तक गायत्री की उच्चस्तरीय, पंचकोशी तथा, स्वर्ण जयन्ती साधना द्वारा अभयदान देते हुए वे अपनी भूमिका को स्पष्ट करते चले जा रहे थे। उनकी तप साधना भी इसी क्रम से प्रचंड होती होती गयी व उसकी स्थूल परिणति सूक्ष्मीकरण साधना के रूप में 1984 में जाकर हुई इस बीच”महाकाल” और युग प्रत्यावर्तन प्रक्रिया”‘ (1971) नामक एक पुस्तक एवं अखंड ज्योति की लेखमाला (1967) के माध्यम से वे महाकाल के रौद्र रूप व परिजनों को भावी देवासुर संग्राम में अपनी भूमिका समझने व बदलने का संकेत सतत् देते आ रहे थे।

1980 में युगसन्धि का बीजारोपण किया गया तथा युगसन्धि के बीस वर्ष व नवयुग के आगमन की

बेला सन् 2000 के बाद की निर्धारित की गयी। इसी के साथ प्रज्ञा पुरश्चरण का क्रम आरंभ कर दिया गया वह सामूहिक धर्मानुष्ठानों की महत्ता बताते हुए 1983 से 1988 तक एक सुनियोजित क्रम इसका चला। इस बीच शान्तिकुँज में आर्य भट्ट परम्परा के अंतर्गत स्थापित वेधशाला में शोध कार्य चल रहा था। गणना के पूरा होते ही उस स्थान को संस्कारित पावन भूमि मानकर यंत्रों को हटा कर वहाँ बड़े शेड बना दिये गए जहाँ विधिवत् युगसंधि महापुरश्चरण बसंतपंचमी 1989 से आरम्भ कर या गया जो लाखोँ प्रज्ञा परिजनों द्वारा नित्य नियमित रूप से केंद्र एवं पूरे विश्व में एक साथ संपन्न किया जाता है। चूँकि सामूहिक सत्प्रयासों के परिणाम स्वयं पूज्य गुरुदेव ने अपने जीवन में क्रियान्वित एक वैज्ञानिक की तरह प्रस्तुत किये है, इसलिए यह विश्वास सुनिश्चित होता लगता है कि यदि उनके निर्देशों ही के अनुरूप मानव जाति चली तो भविष्य निश्चित उज्ज्वल है।

युग निर्माण के अपने प्रयासों का एक सुनिश्चित प्रारूप पूज्य गुरुदेव ने 1962 में प्रसारित अपने घोषणा पत्र में, युगनिर्माण सत्संकल्प में विश्वमानस के समक्ष रख दिया था। इस मैनिफेस्टो का प्रत्येक सूत्र मानव, परिवार, समाज एवं राष्ट्र को आमूलचूल बदलने की आधार शिला के रूप में रखा गया है। एकता, समता की सर्वांगपूर्ण रूपरेखा वसुधैव कुटुंबकम् की समग्र परिकल्पना इसमें की गयी है।

इसके बाद महाकाल रौद्र रूप में ताण्डव नृत्य करने की मुद्रा में अखण्ड ज्योति के पृष्ठों पर (1967) से आने लगे व उन्हीं दिनों युग प्रत्यावर्तन प्रक्रिया का स्वरूप अखण्ड ज्योति के पृष्ठों पर उनने स्पष्ट किया। वे लिखते है-”महाप्रलय का अन्तिम ताण्डव नृत्य तब होता है, जब पंचतत्वों से बनी प्रकृति जराजीर्ण हो जाती है। तत्व बूढ़े होने के कारण अपना काम ठीक तरह समयानुसार नहीं कर पाते। ऋतुएं समय पर नहीं आती और उत्पादन, पोषण विनाश की क्रम व्यवस्था में व्यवधान उत्पन्न हो जाता है। ऐसी स्थिति में महाकाल का अन्तिम ताण्डव नृत्य इस ब्रह्माण्ड को चूर्ण विचूर्ण कर छितरा बिखरा देने वाली महाज्वालाएं प्रचण्ड करता है और नयी सृष्टि के सृजन की भूमिका सम्पादित करने के लिए महाकाली फिर अपने प्रसव प्रजनन की तैयारी में लग जाती है,” किन्तु साथ ही आगे वे लिखते है-”त्रिपुरारी महाकाल ने अतीत में भी त्रिविध माया मरीचिका को अपने त्रिशूल से तोड़ फोड़ कर विदीर्ण किया था, अब वे फिर उसी की पुनरावृत्ति करने वाले है। धर्म जीतने वाला है अधर्म हारने वाला है। लोभ, व्यामोह और अहंकार के कालपाशों से मानवता को पुनः मुक्ति मिलने वाली है। संहार की आग में तपा हुआ मनुष्य अगले ही दिनों पश्चाताप, संयम और नम्रता का पाठ पढ़कर सज्जनोचित प्रवृत्तियाँ अपनाने वाला है। वह शुभ दिन शीघ्र लाने वाले त्रिपुरारी-महाकाल आपकी जय हो! विजय हो!

सम्भव था कि परिजनों को अशुभ परिस्थितियाँ देख कर लगता हो कि समय आखिर बदलेगा कैसे? तो उनने अनेकानेक भविष्य विज्ञानियों, दिव्य दृष्टाओं के भविष्य कथनों के माध्यम से अपनी बात को और स्पष्ट करते हुए “युग परिवर्तन एक सुनिश्चित सम्भावना” व अखंड ज्योति के लेखों के माध्यम से अपनी बात को समझाना आरंभ कर दिया था। जीनडिक्सन, जूलवर्न, नोस्ट्राडेमस, प्रो. हरार, कीरो, मदर श्रिप्टन महर्षि अरविन्द एवं स्वामी विवेकानंद की भारत एवं विश्व का भविष्य संबंधी

शुभ भविष्य वाणियाँ उद्धृत करते हुए उनने लिखा कि “समय को तो बदलना ही है। क्योंकि यह महाकाल की प्रेरणा है ईश्वर की इच्छा है, समय की माँग है। इसे युगधर्म का पाँचजन्य उद्घोष भी कह सकते है। इसमें प्रचण्ड मानवी पुरुषार्थ उभरेगा, पर स्मरण रखा जाय कि इसके पीछे नियन्ता की प्रचण्ड प्रेरणा और सुनिश्चित योजना काम कर ही होगी।”

“प्रज्ञावतार का स्वरूप और क्रिया−कलाप” “ध्वंस के साथ नवसृजन भी” तथा “सुरक्षा साधना का समर्थ ब्रह्मास्त्र” जैसे लेखों द्वारा जहाँ उनने महाकाल द्वारा नवसृजन की सुनिश्चितता का तथ्य प्रतिपादित किया, वहीं “इक्कीसवीं सदी बनाम उज्ज्वल भविष्य” (दो खण्डों) तथा सतयुग की वापसी “प्रज्ञावतार की विस्तार प्रक्रिया” जैसी पुस्तकों द्वारा सबकी जिज्ञासाओं का समाधान करते हुए यह स्पष्ट किया कि जब अन्तराल बदलेगा, भाव संवेदनाएं जागेंगी तो सद्बुद्धि का उदय होगा। यही प्रज्ञावतार की व्यष्टि तंत्र में अवतरित सूक्ष्म प्रेरणा हैं यही सद्बुद्धि व्यक्ति के क्रियाकृत्यों में आमूलचूल परिवर्तन कर उदार सहकारिता पर आधारित समाज बनाएगी।

उनके सभी भविष्य कथनों को मनीषी वर्ग ने बड़ी गंभीरता से पढ़ा है वह विगत एक दशक की परिस्थितियों का मूल्याँकन करते लिखा है कि परिवर्तन बड़ी तेजी से आ रहा है। देखते देखते उपनिवेशवाद पूरी धरती से मिट गया एवं युद्ध पर उतारू दो महाशक्तियों के राष्ट्रनायकों का दिमाग न जाने किस अदृश्य शक्ति ने परस्पर संघर्ष से उल्टी सहकार-सृजन की दिशा में मोड़ दिया। पूर्वी यूरोप के देशों में आई परिवर्तन की लहर ने सारे अधिनायकवादी उखाड़ फेंके। चारों ओर मुक्त प्रजातंत्र हैं कुप्रचलन अनैतिकता को अंगीकार करने वालों के विरुद्ध विश्व भर में लोक निंदा व प्रताड़ना का माहौल बना है। सभी मिलजुल कर रहने व प्रकृति से साहचर्य बिठाकर रहने की रीति नीति अपनाने की दिशा में अग्रसर हुए है। मनुष्य का चिंतन न जाने कौन सी अदृश्य शक्ति इस तेजी से बदल रही है कि परमार्थ के लिए सत्प्रयोजनों के लिए देवमानवों में सहज ही उमंगें उठने लगी है। यदि यह परिवर्तन एक छोटे स्तर पर भी कहीं क्रियारूप लेता दिखाई देता हो तो भविष्य में महाकाल एवं अदृश्य जगत में विद्यमान समर्थ सत्ताओं से और व्यापक स्तर पर सक्रिय होने की आशा की जा सकती है।

एक छोटा सा बीजारोपण शान्तिकुँज एवं प्रज्ञा अभियान के रूप में महाकाल के अग्रदूत द्वारा हो चुका व उसने अपनी सूक्ष्मीकरण साधना द्वारा इस प्रचण्ड गति प्रदान की अब वे सूक्ष्म व कारण शरीर से सक्रिय है व सुरक्षा कवच पूरी मानव जाति के लिए विनिर्मित कर रहे है। यदि उनके बताए निर्देशों को हम जीवन में उतारते चलें तो यह परिवर्तन भावी पाँच वर्षों में ही बड़ी तेजी से भारत से आरंभ होकर विश्वभर में संव्याप्त होता दृष्टिगोचर होगा। जागृतात्माओं को यही तो उस सत्ता का अन्तिम संदेश भी था।


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