प्राण प्रत्यावर्तन से गायत्री तीर्थ तक

August 1990

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पूज्य गुरुदेव के जीवन के अस्सी वर्ष का हर दिन, हर पल एक महत्वपूर्ण निर्धारण से जुड़ा हुआ है। जिनने उन्हें समीप से देखा व उनकी रीति-नीति का अध्ययन किया है, वे भली-भाँति जानते हैं कि वे अपने लिए एक सुनियोजित रूप रेखा निर्धारित करके आए। प्रत्येक वसंत पर्व उनका आध्यात्मिक जन्मदिन रहा है व वर्ष भर के महत्वपूर्ण निर्णय उसी दिन लिए जाते रहे हैं। ज्ञान पर्व के रूप में गायत्री जयंती एवं संकल्प-कर्म अनुशासन पर्व के रूप में गुरुपूर्णिमा पर्व मनाये जाते है। हर दस वर्ष के अन्तराल से वे न्यूनाधिक समय के लिए 1941, 1951, 1960-61 व 1971 में हिमालय अज्ञातवास के लिए गये व अपने मार्गदर्शक का महत्वपूर्ण दिशा निर्देशन लेकर लौटे।

सन् 1961 के अज्ञातवास से लौटने के बाद उनका सुनिश्चित निर्धारण था कि दस वर्ष बाद वे वर्तमान कार्यस्थली मथुरा को छोड़कर हिमालय चले जायेंगे। बाद का निर्धारण उनके गुरुदेव करेंगे। एक लेख सन् 1962 की अखण्ड-ज्योति में प्रकाशित हुआ था-”हमारे भावी सवा नौ वर्षों का कार्यक्रम।”उनने तब तक घोषणा नहीं की थी कि अपने आयुष्य का 60 वर्ष पूरा होते ही वे मथुरा से प्रयाण कर हमेशा के लिए हिमालय की गोद में जा बैठेंगे किंतु अपनी सीमा रेखा का तभी निर्धारण कर लिया था। एक पत्र जो उनने उन दिनों एक परिजन को लिखा था, विशेष रूप से ध्यान देने योग्य है। उस पत्र को यहाँ यथा रूप प्रकाशित किया जा रहा हैं

ड़ड़ड़ड़

हमारे आत्मस्वरूप, 29-9-62 पत्र मिला। फार्म भी। युग निर्माण संबंधी आवश्यक परिपत्र अगले सप्ताह भेजेंगे।

आपका मारकेश हमारे यहाँ रहते सफल नहीं होगा। हम अभी 8॥। वर्ष इधर हैं। तब तक आप पूर्ण निश्चिंत रहें।

नवरात्रि में आपका साधनाक्रम चल रहा होगा। सब स्वजनों को हमारा आशीर्वाद और माताजी का स्नेह कहें।

श्रीराम शर्मा आचार्य

इस पत्र से यह स्पष्ट है कि अपने परिजन का संरक्षण उनने जून 1971 तक अपने मथुरा रहने तक करने का आश्वासन दिया था। वह पूरा भी किया। पर सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि अपनी प्रत्यक्ष से परोक्ष में जाने की स्पष्ट घोषणा लिखित में उनने लगभग नौ वर्ष पहले ही कर दी। यह एक द्रष्टा, जो भविष्य के गर्भ में झाँक सकता है, का ही कार्य हो सकता है।

विदाई के पहले अपनी अन्तर्व्यथा को उनने किसी से नहीं छिपाया। जनवरी 69 से चालू हुई उनकी

लेखनी जून 1971 तक बराबर परिजनों को रुलाती रही, उद्वेलित करती रही। चार-चार दिन के मिलन सत्र जून 70 से जून 71 तक सतत् चलाये गये। इसमें गुरुदेव को अपनी मन की बात कहने का मौका मिला। 2000 व्यक्ति प्रति सत्र इस प्रकार एक वर्ष तक आये, इस प्रकार लगभग दो लाख व्यक्ति उनसे वर्ष का काम निपटाना है।” शीर्षक से “अपनों से अपनी बात” स्तंभ के अंतर्गत उनने लिखा कि उन्हें अगले दिनों क्या-क्या कार्य प्रत्यक्ष रूप से करने हैं, परिजनों को क्या जिम्मेदारियाँ सँभालनी हैं तथा वे अपनी आगामी उग्र तपश्चर्या क्यों करने जा रहे हैं।

अप्रैल 1971 में संपादकीय स्तंभ में वे लिखते हैं-”पीछे जो किया जा चुका, हमें उससे हजार लाख गुना काम अभी और करना है। उच्च आत्माओं को मोहनिद्रा से जगाकर ईश्वरीय इच्छा की पूर्ति के लिए लोकमंगल के क्रिया-कलापों में नियोजित करना है”......”विदाई का वियोग हमारी भावुक दुर्बलता हो सकती है या स्नेहसिक्त अंतःकरण की स्वाभाविक प्रक्रिया। जो भी हो हम उसे इन दिनों लुप्त करने का यथासंभव प्रयास कर रहे हैं। मन की मचलन का समाधान कर रहे हैं। गत एक वर्ष से देशव्यापी दौरे करके परिजनों से भेंट करने की अपनी आन्तरिक इच्छा को एक हद तक पूरा किया है। अब विदाई सम्मेलन बुलाकर एक बार अन्तिम बार जी भर कर अपने परिवार को फिर देखेंगे।”

उपरोक्त पंक्तियाँ संभवतः परिजनों को भावी संभावनाएँ बताने व उनकी अंतिम परीक्षा लेने के लिए लिखी गयी थीं विदाई सम्मेलन 16 जून 1971 से 20 जून 1971 तक गायत्री तपोभूमि मथुरा में संपन्न हुआ। सहस्रकुंडीय महायज्ञ से भी बड़ा यह समागम था व लाखों व्यक्तियों ने अश्रुपूरित नेत्रों से उन्हें विदाई दी। वे तथा वंदनीया माताजी एवं उनका अखण्ड दीपक शाँतिकुँज आ गए, जो अभी बनकर मात्र रहने योग्य स्थिति में ही था। नौ दिन तक वे घनिष्ठ कार्यकर्ताओं एवं वंदनीया माताजी को महत्वपूर्ण निर्देश देते रहे एवं दसवें दिन रात्रि 2 बजे उठकर बिना किसी को बताए अपने गन्तव्य पर चले गये।

“अखण्ड-ज्योति” निरन्तर जलती रही व पूज्य गुरुदेव की चिन्तन चेतना सभी पाठकों का दैनन्दिन जीवन में मार्गदर्शन करती रही। जनवरी 1972 में बंगला देश के मुक्ति युद्ध के समापन के बाद अल्प अवधि के लिए पूज्य गुरुदेव शाँतिकुँज अचानक आए एवं माताजी को प्रत्यक्ष मार्गदर्शन देकर फिर चले गए। जून 1972 में अपनी गुरु सत्ता के मार्गदर्शन पर सप्तऋषियों की तपस्थली में रह कर ऋषि परम्परा का बीजारोपण कर देवमानवों को विनिर्मित करने हेतु अपना प्रचण्ड तपोबल संचित कर वापस लौट आए। अपनी आत्मकथा में अपनी ही लेखनी से उनने इस एक वर्ष की अवधि में गुरु सत्ता द्वारा क्या निर्देश दिए गए, इनका खुलासा स्वयं किया है।

तीर्थ के रूप में विकसित करना होगा, और उन प्रवृत्तियों का आरंभ करना होगा, जिन्हें पूर्व काल में ऋषि करते रहे हैं। वह परम्पराएँ लुप्त प्रायः हो जाने से उन्हें अब पुनर्जीवन प्रदान करने की आवश्यकता होगी। संक्षेप में यही था सार-संदेश।”

मूल कार्य यह था कि शाँतिकुँज, जो ब्रह्मर्षि विश्वामित्र की तपस्थली रही है, में ऋषियों द्वारा संचालित समस्त गतिविधियों को चलाया जाय। इसके लिए उनने महत्वपूर्ण परामर्श व प्राण-प्रत्यावर्तन सत्र सबसे पहले आयोजित किए। वस्तुतः गुरुदेव अपने तप की एक प्रखर चिनगारी सुसंस्कारी आत्माओं को देकर उन्हें ज्योतिर्मय बनाना चाहते थे ताकि नवसृजन के लिए एक महत्वपूर्ण जिम्मेदारी वे निभा सके। ग्रहण करने की जिनमें पात्रता हो, ऐसे ही व्यक्तियों को स्वीकृति दी गयी। स्थान सिद्धपीठ था ही, उर्वर अंतःकरण में प्राण अनुदान का खाद-पानी देकर उस बीज को अंकुरित, पल्लवित करना था जो असंख्यों परिजनों में से कुछ सौ में विद्यमान पाया गया। यह एक महज संयोग नहीं है कि इन दिनों जो कार्यकर्ताओं की एक सशक्त टीम पूज्य गुरुदेव के बाद गुरुतर दायित्वों को सँभाल रही है एवं वंदनीया माताजी के मार्गदर्शन में उन सब निर्धारणों को क्रिया रूप दे रही है जो पूज्य गुरुदेव अदृश्य जगत से सौंप रहे हैं, वह प्राण-प्रत्यावर्तन सत्रों की अग्नि परीक्षा से गुजर चुकी है। अगस्त 1972 की अखण्ड-ज्योति में उनने लिखा है कि “प्रत्यावर्तन तप की पूँजी का वितरण है। जिन भाग्यवानों को इसका थोड़ा सा भी अंश मिल सका, वे निश्चित रूप से उसके लिए अपने भाग्य की सराहना जन्म-जन्मान्तरों तक करते रहेंगे।

पूज्य गुरुदेव की लिपि में अंश ड़ड़ड़ड़

अनुवाद “क्या करना होगा? इसके उत्तर में इतना ही कहा गया कि हरिद्वार आश्रम को गायत्री

प्रत्यावर्तन सत्र फरवरी 1973 से आरंभ किये गये एवं फरवरी 1974 तक चले। ये विशुद्धतः साधना सत्र थे। विभिन्न मुद्राओं, त्राटक योग, सोऽहम्, नादयोग, आत्मब्रह्म की दर्पण साधना तथा तत्व बोध की साधना इनमें कराई गई पंद्रह मिनट पूज्य गुरुदेव एकान्त में परामर्श भी देते थे। सीमित संख्या में प्राणवान साधकों को यह अनुदान दिया गया। ऐसे प्रखर साधना सत्र फिर आगे कभी नहीं हुए। इस बीच तीन-तीन माह के वानप्रस्थ सत्र, भी चले, अध्यापकों के तीन लेखन सत्र भी मई-जून 1974 में संपन्न हुए तथा साथ-साथ रामायण सत्र एवं महिला जागरण सत्र भी चलते रहे। प्राण प्रत्यावर्तन सत्र को फरवरी 74 से बन्द कर नौ दिवसीय जीवन साधना सत्र में बदल दिया गया। यही साधनाक्रम फिर आगे कल्प साधना तथा चान्द्रायण सत्रों आदि के रूप में चलता रहा।

स्थान कम पड़ने से गायत्रीनगर की नई जमीन खरीदी गई एवं उसमें देवमानवों को बसने के लिए आमंत्रित किया गया। नगर का निर्माण एवं जड़ी-बूटी उद्यान लगाना प्रारंभ उद्यान लगाना प्रारंभ कर दिया गया। 1976 से 1980 तक का समय ब्रह्मवर्चस् की स्थापना होने का समय है। सभी ऋषियों की गतिविधियों के अनुरूप यहाँ उनसे संबंधित गतिविधियाँ भी प्रारंभ कर दी गयीं। भगीरथ परम्परा में ज्ञानगंगा का विस्तार चरक परम्परा में दुर्लभ वनौषधियों का आरोपण व उन पर प्रयोग परीक्षण, व्यास परम्परा में युग साहित्य के साथ-साथ चार खण्डों में प्रज्ञापुराण का सृजन, नारद परम्परा में संगीत के माध्यम से जन-जन की भावनाओं को तरंगित करने का शिक्षण समर्थ गुरु रामदास व आद्य शंकराचार्य परम्परा में पाँच केन्द्रीय संस्थानों के अतिरिक्त चौबीस सौ प्रज्ञा संस्थानों की स्थापना, पतंजलि परम्परा में प्राण-प्रत्यावर्तन एवं प्रज्ञायोग की साधना द्वार योगदर्शन को व्यावहारिक रूप प्रदान करना, विश्वामित्र परम्परा में सिद्धपीठ की स्थापना कर संजीवनी विद्या का शिक्षण व नवयुग के पृष्ठ भूमि का निर्माण, पिप्पलाद परम्परा में संस्कारी आहार के माध्यम से कल्प साधना, सूत शौनिक परम्परा में रामचरित मानव की प्रगतिशील प्रेरणा व गीता कथा तथा प्रज्ञापुराण कथा द्वारा समागमों का आयोजन व लोक शिक्षण ये कुछ महत्वपूर्ण स्थापनाएँ ऐसी थी जिनसे गायत्री तीर्थ को संस्कारित किया गया।

वैशेषिक-कणाद परम्परा में अध्यात्म-विज्ञान के समन्वय के अनुसंधान हेतु ब्रह्मवर्चस शोध संस्थान की स्थापना जून 1979 में की गई जो कि अपने समय का एक भागीरथी पुरुषार्थ है।

आज के गायत्रीनगर रूपी समग्र गायत्री तीर्थ को देखकर लगता नहीं कि यह स्थापना मानवी प्रयासों से इतने कम समय में हुई होगी। सन् 1961 से 1990 के पूज्य गुरुदेव की प्रगति यात्रा का नियोजित स्थापनाएँ थीं जो समय के साथ क्रिया रूप लेती गई। यही होती है युग विश्वामित्रों की कार्य शैली।


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