Quotation

August 1990

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

सम्पत्ति बहुतों के पास होती है, पर उसका उपयोग बहुत कम लोग जानते हैं।

पूज्य गुरुदेव की मार्गदर्शक सत्ता के हिमप्रदेश में निवास करने एवं वहाँ से उनका मार्गदर्शन करने सूक्ष्म शरीर से उनकी पूजा स्थली में प्रकट होने का प्रसंग पढ़कर पाठकों को हिमालय के संबंध में कुछ उत्कण्ठाएं-जिज्ञासाएं हो सकती हैं। मोटी दृष्टि तो यही कहती है कि गिलगिट की पाकिस्तान रूस से लगी हिमाच्छादित चोटियों से लेकर अरुणाचल व बर्मा तक तथा, गढ़वाल की पहाड़ियों से लेकर तिब्बत के पठार तक छाया सारा ही प्रदेश हिमालय है। तो वे हिमालय में किस क्षेत्र से आए?हिमालय में ऐसी क्या विशेषता है?

भूगोल वेत्ताओं भू, गर्भवेत्ताओं, पर्यावरणविदों की दृष्टि में हिमालय आल्पस पर्वत की तरह ही मात्र हरीतिमा व बर्फ से ढकी एक पर्वत श्रृंखला हो सकती है जिसमें के-2 एवं गौरीशंकर नामक विश्व की दो सर्वोच्च चोटियाँ भी हैं किन्तु अध्यात्मवेत्ताओं की दृष्टि में वह देवी चेतन सत्ता की, परोक्ष संचालन तंत्र की निवास स्थली है। भारतीय संस्कृति आर्य संस्कृति के विकास की दृष्टि से हिमालय का प्रागैतिहासिक काल से ही बड़ा महत्वपूर्ण स्थान रहा है। हिमालय को धरती का स्वर्ग कहा गया है, जो कि गलत नहीं है। भौतिक और आत्मिक दोनों ही प्रगति की उच्चस्तरीय विभूतियों से भरी पूरी होने के कारण यह भूमि “स्वर्गादपि गरीयसी” कहलाती रही है। गरीयसी न मानें तो वह स्वर्ग तो है ही। क्योंकि जलधारा वाली भागीरथी ही नहीं, देवलोक की ज्ञानगंगा का अवतरण एवं प्रवाह भी इसी क्षेत्र से ही आरंभ होता रहा है। विशेष रूप से उत्तराखण्ड जिसे देवात्मा हिमालय का हृदय कहा जाता है, दुर्गम हिमालय नाम से जाना जाता है, विशिष्ट ऋषिसत्ताओं की तपस्थली है एवं अध्यात्म चेतना का ध्रुव केन्द्र है।

श्रीमद्भागवत में (स्कन्द, बारह, अध्याय 2) हिमालय के इस क्षेत्र में सिद्ध पुरुषों का निवास बताया गया है जो सारे विश्व के कल्याण की कामना हेतु सतत् तप करते रहते हैं एवं सूक्ष्म शरीरधारी होते हैं। ऐसा ही कुछ कथन ‘थियोसोफी” की संस्थापिका मैडम ब्लैवटस्की का है जो इसे सिद्धों की पार्लियामेंट मानती हैं। परमहंस योगानन्द जी की “आटोबायोग्राफी ऑफ योगी” एवं स्वामी राम की “लिविंग विद हिमालयन मास्टर्स” में ऐसे अनेक प्रसंगों के उल्लेख हैं जिनमें हिमालय के सिद्ध योगियों के विलक्षण कर्तव्यों का विवरण है। पाल ब्रण्टन ने एक पुस्तक लिखी हैं “इन सर्च ऑफ सीक्रेट इण्डिया” इसमें उनने भी अन्यान्य शोधकर्ताओं की तरह समर्थ सिद्ध पुरुषों का यहाँ अस्तित्व माना है।

यदि इसे देवलोक माना जाता रहा हो तो भी कोई अत्युक्ति नहीं है। इतिहासकारों के अनुसार आर्यों का राजा इन्द्र था व उनके पुरोहित थे बृहस्पति। हिमालय का उत्तराखण्ड क्षेत्र इनकी राजधानी था। अन्याय देवता भी इसी क्षेत्र में निवास करते थे। तब हिमालय ऊंचा तो था, परन्तु इतना ऊंचा नहीं कि उसमें ठण्डक असह्य हो, वृक्ष वनस्पति न होते हों फिर उस समय के व्यक्तियों की जीवनी शक्ति भी अधिक बढ़ी चढ़ी थी। इन दिनों गंगोत्री-गोमुख का जैसा क्षेत्र है, लगभग वैसा ही उस क्षेत्र की स्थिति थी, जिसे देवलोक कहते हैं।

पाण्डवों ने अंत समय में स्वर्गारोहण जहाँ किया, वह पर्वत श्रृंखला स्वर्गारोहिणी नाम से अभी भी बद्रीनाथ केदारनाथ के मध्य विद्यमान है। वसोधरा पठार के पास ही व्यास गुफा है जहाँ महाभारत व अन्यान्य पुराण लिखे गए।

पाण्डवों ने अंत समय में स्वर्गारोहण जहाँ किया, वह पर्वत श्रृंखला स्वर्गारोहिणी नाम से अभी भी बद्रीनाथ केदारनाथ के मध्य विद्यमान है। वसोधरा पठार के पास ही व्यास गुफा है जहाँ महाभारत व अन्यान्य पुराण लिखे गए।

इस क्षेत्र के देवताओं की क्रीड़ा स्थली होने से तात्पर्य यह है कि ब्रह्मपरायण जीवन जीने वाले देवमानव कभी यहाँ रहकर वैज्ञानिक एवं दार्शनिक शोधों में निरत रहते थे। अपनी काया को ही प्रयोगशाला बनाते हुए वे सतत् इस दिव्य वातावरण में साधना करते तथा उन निष्कर्षों के आधार पर उन ग्रन्थों का निर्माण करते थे, जिनसे जनसामान्य का मार्गदर्शन होता था। इस क्षेत्र के निवासी मूर्धन्य स्तर के थे। तत्वदर्शन उनका प्रिय विषय था। यदि कहीं इसी कारण इस क्षेत्र को स्वर्ग और निवासियों को देवता कहा गया हो तो वह अत्युक्तिपूर्ण है भी नहीं। दिव्यदर्शियों का कथन है कि ब्रह्मांड की सघन अध्यात्मचेतना का धरती पर विशिष्ट अवतरण इस क्षेत्र की भू चुम्बकीय व आध्यात्मिक विशेषताओं के कारण इसी क्षेत्र में होता है। जो मान्यता उत्तरी ध्रुव, दक्षिणी ध्रुव को भौतिक क्षेत्र में मिली है, वही अध्यात्म क्षेत्र में हिमालय के हृदय को मिली है। इसीलिए यदि ब्रह्मांड में कहीं बुद्धिमान प्राणी रहते होंगे, तो उनके साथ भी देवमानवों की घनिष्ठता रही हो, आदान प्रदान का क्रम चलता रहता हो, तो यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है। महत्वपूर्ण विद्याओं, कलाओं विभूतियों का भण्डार वहाँ होने की बात समझ में भी आती है।

नारदजी विष्णु जी से महत्वपूर्ण विचार विमर्श करने स्वर्ग लोक संभवतः इसी मार्ग से जाया करते होंगे। पौराणिक आख्यानों के अनुसार दशरथ को इन्द्र द्वारा सहायता के लिए बुलाना, अर्जुन, का इन्द्र लोक जाना दधीचि का देवगणों को अस्थिदान, सुकन्या के आह्वान पर अश्विनी कुमारों द्वारा च्यवन ऋषि को नेत्रदृष्टि ही नहीं देना अपितु कायाकल्प कर देना आदि अनेक घटनाक्रम ऐसे हैं जो यह प्रमाणित करते हैं कि स्वर्ग कहीं भूमि पर ही होना चाहिए व वहाँ के देवमानवों का अंतरंग स्तर कहीं अधिक ऊंचा होना चाहिए।

हिमालय को देवमानवों व ऋषिसत्ता ने अपना कार्य क्षेत्र बनाया हो तो इसके कई कारण थे। एक तो यह कि अधिक ऊंचाई होने के कारण अनगढ़ों, असुरों, नरपशु स्तर के व्यक्तियों का वहाँ तक पहुँचना व व्यवधान पहुँचाना सरल नहीं था। इसीलिए देवासुर संग्राम आये दिन न होने की सुविधा देवताओं को प्राप्त थी। दूसरी यह कि उस क्षेत्र में इतनी अधिक गुफाएं, कन्दराएं, झीलें प्रपात व गुप्त स्थान हैं जिनमें तापमान भी सहन करने योग्य होता है व उनमें निवास करते हुए तत्वज्ञान और विज्ञान की शोधें एकान्त में एकाग्रतापूर्वक कर पाना संभव होता था। यहाँ रहकर शाँत चित्त से धर्म तंत्र की विविध उपलब्धियों से समस्त विश्व को लाभान्वित बनाने की योजनाएं बनाना साधन जुटाना सरल था। तपस्वी ऋषिगण एक प्रकार से अध्यात्म विज्ञान के शोधकर्ता एवं विभूति उत्पादक कहे जा सकते हैं। पातंजलि, चरक, आर्यभट्ट की प्रयोगशालाएं यहीं थीं एवं कणाद ने अणु विज्ञान की शोध यहीं की थी। ऐसी वैज्ञानिक प्रयोगशालाएं यहाँ थीं जिनमें शरीर यंत्र और मनःतन्त्र के भीतर छिपे शक्तिशाली रहस्यों का अधिकाधिक अनावरण सम्भव होता था। शास्त्रों का सृजन, योगाभ्यास की उपलब्धियाँ, अध्यात्म दर्शन का विकास, स्वास्थ्य, शिक्षा, चिकित्साशास्त्र रसायन, शिल्पकला आदि की भौतिक एवं आध्यात्मिक

हिमालय को देवमानवों व ऋषिसत्ता ने अपना कार्य क्षेत्र बनाया हो तो इसके कई कारण थे। एक तो यह कि अधिक ऊंचाई होने के कारण अनगढ़ों, असुरों, नरपशु स्तर के व्यक्तियों का वहाँ तक पहुँचना व व्यवधान पहुँचाना सरल नहीं था। इसीलिए देवासुर संग्राम आये दिन न होने की सुविधा देवताओं को प्राप्त थी। दूसरी यह कि उस क्षेत्र में इतनी अधिक गुफाएं, कन्दराएं, झीलें प्रपात व गुप्त स्थान हैं जिनमें तापमान भी सहन करने योग्य होता है व उनमें निवास करते हुए तत्वज्ञान और विज्ञान की शोधें एकान्त में एकाग्रतापूर्वक कर पाना संभव होता था। यहाँ रहकर शाँत चित्त से धर्म तंत्र की विविध उपलब्धियों से समस्त विश्व को लाभान्वित बनाने की योजनाएं बनाना साधन जुटाना सरल था। तपस्वी ऋषिगण एक प्रकार से अध्यात्म विज्ञान के शोधकर्ता एवं विभूति उत्पादक कहे जा सकते हैं। पातंजलि, चरक, आर्यभट्ट की प्रयोगशालाएं यहीं थीं एवं कणाद ने अणु विज्ञान की शोध यहीं की थी। ऐसी वैज्ञानिक प्रयोगशालाएं यहाँ थीं जिनमें शरीर यंत्र और मनःतन्त्र के भीतर छिपे शक्तिशाली रहस्यों का अधिकाधिक अनावरण सम्भव होता था। शास्त्रों का सृजन, योगाभ्यास की उपलब्धियाँ, अध्यात्म दर्शन का विकास, स्वास्थ्य, शिक्षा, चिकित्साशास्त्र रसायन, शिल्पकला आदि की भौतिक एवं आध्यात्मिक

तीसरे यह कि उस क्षेत्र में संजीवनी बूटी रुदन्ती, ब्रह्मकमल जैसी अमृतोपम जड़ी बूटियाँ मिलती थीं। सोमरस यहीं उपलब्ध था जिसे पाकर देवमानव अजर अमर बने रहते थे। बहुमूल्य धातुओं स्वर्णादि को खदानें भी यहीं थीं व अभी भी उनका बाहुल्य इधर बताया जाता है। वस्तुतः वातावरण में इतने अलौकिक तत्व इस स्थान विशेष में हैं कि इसे धरती के स्वर्ग की उपमा गलत नहीं दी गयी।

जहाँ ऋद्धि सिद्धियों को अध्यात्म चेतना से अनुप्राणित हो सरलतापूर्वक अर्जित किया जा सकता हो, वहाँ देवता ही नहीं, देवमानव, सिद्धपुरुषों का समुदाय भी आकर निवास करता हो, तो इसे आश्चर्य नहीं मानना चाहिए।

हिमालय के इस स्वर्ग केन्द्र की सबसे महत्वपूर्ण विशेषता यह थी कि यहाँ स्थूल शरीर को सूक्ष्म शरीर में विकसित कर उसे इच्छानुसार लम्बी अवधि तक जीवित बनाये रखना संभव था। सूक्ष्म और कारण शरीर को समर्थ बनाने के उपरान्त स्थूल शरीर के न रहने पर भी मनुष्य का अस्तित्व सदियों तक बना रहता है। भूख प्यास निद्रा जैसी दैनन्दिन आवश्यकताओं को तब पूरा नहीं करना पड़ता। सूक्ष्म शरीर भले ही दिखाई न पड़े तो भी अधिक सामर्थ्यवान बना रहता है व उसे महान उद्देश्यों के निमित्त नियोजित करना संभव हो पाता है।

अभी भी सूक्ष्म शरीर धारी ऋषिगण हिमालय के इसी हृदय की कन्दराओं, शिखरों दिव्य भूमियों पर विद्यमान हैं। जिन्हें अपना परिचय देना होता है या अदृश्य सहायता करनी होती है वे इच्छानुसार अपना शरीर प्रकट भी कर देते हैं। इसी सिद्धि के बल पर हिमालय के सिद्धपुरुष हिमयुग से भी पूर्व की संचित अपनी भाव तथा ज्ञान सम्पदा को यथावत बनाये हुए हैं। सतत् तप में लीन होने के कारण वे अपेक्षाकृत अधिक समर्थ हो गये हैं। इन्हीं सूक्ष्म शरीरधारी ऋषियों से साक्षात्कार हिमालय यात्रा के दौरान परोक्षसत्ता ने पूज्य गुरुदेव से कराया था। इनका एक ही काम है पिछड़ों को बढ़ाना, गिरों को उठाना व उस के लिए कठोर तप करना। अध्यात्म मार्ग के जिज्ञासुओं को यह अभिभावक की तरह संरक्षण व सुविधा प्रदान करते हैं।

अपने गुरु से हिमालय की पावन भूमि पर सशरीर प्रथम साक्षात्कार का प्रसंग अप्रैल 1985 की अखण्ड ज्योति में लिखते हुए पूज्य गुरुदेव वर्णन करते है “तपोवन का पठार चौरस है। फिर पहाड़ियों की ऊंची श्रृंखला है। इसके बाद नन्दन वन आता है। हमें यही बुलाया गया था। समय पर पहुँच गए। देखा तो गुरुदेव खड़े थे। प्रसन्नता का ठिकाना न रहा हमारी का भी और उनका भी। वे पहली बार हमारे घर आए थे और अब हम उनके यहाँ आए थे। यह सिलसिला जीवन भर चलता रहे तो ही इस बंधे सूत्र की सार्थकता है”। “. . . बात चीत का सिलसिला थोड़े समय में ही पूरा हो गया। अध्यात्म शक्ति प्राप्त करने के लिए प्रचण्ड मनोबल सम्पादित करना, प्रतिकूलताओं को दबोचकर अनुकूलता में ढाल लेना, मौत से भी न डरना, ऋषिकल्प आत्माओं के लिए तो यह स्थिति नितान्त आवश्यक है। तुम्हें ऐसी

परिस्थितियों के बीच अपने जीवन का बहुत समय गुजारना है। “

“उस समय की बात समाप्त हो गयी . . वहीं बहते निर्झर में स्नान किया, संध्या वन्दन भी। जीवन में पहली बार ब्रह्मकमल और देवकन्द रेखा। योगनिद्रा ला देने वाली सुगन्ध देने वाला ब्रह्मकमल, हफ्तों तक क्षुधा तृप्ति कर देने वाला देवकन्द। गुरुदेव के यही दो प्रत्यक्ष उपहार थे। इसके बाद तपोवन पर दृष्टि दौड़ाई। पूरे पठार पर मखमली फूलदार गलीचा सा बिछा था। “

उपरोक्त वर्णन सिद्ध पुरुषों की मार्गदर्शन शैली व हिमालय के सौंदर्य का परिचायक है। यों हिमालय के प्रकृतिगत सौंदर्य का वर्णन पूज्य गुरुदेव ने अपनी 1961 की तीसरी हिमालय यात्रा में “ सुनसान के सहचर “ प्रसंग में विस्तार से किया है, जिसके अंश परिजन ‘आगे उनकी लेखनी से जुड़े प्रसंगों में पढ़ेंगे ‘पर यहाँ उनके अपने गुरु से प्रथम साक्षात्कार का प्रसंग यही विचार कर उद्धृत किया कि जिन्हें इस सौंदर्य के रसास्वादन का हिमालय के प्रसंग में लाभ न मिल पाया हो वे भी वंचित न रहें।

आगे ऋषि सत्ता से साक्षात्कार प्रसंग में वे लिखते हैं-” रात्रि को गुरुदेव आए। उनके पैर जमीन से ऊपर उठे हुए चल रहे थे। आज यह जाना कि सिद्धियों में ऊपर हवा में उड़ने की अन्तरिक्ष में चलने की आवश्यकता क्यों पड़ती है। मैं भी अधर ही अधर गुरुदेव के पीछे उनकी पूँछ की तरह सटा हुआ चल रहा था। आज की यात्रा का उद्देश्य पुरातन ऋषियों की तपस्थलियों का दिग्दर्शन कराना था। स्थूल शरीर सभी ने त्याग दिये थे पर सूक्ष्म शरीर सभी के बने हुए थे। ‘

..”वे सभी ध्यान मुद्रा में थे। मुझे एक एक का नाम बताया और सूक्ष्म शरीर का दर्शन कराया गया। यही है सम्पदा ‘विशिष्टता और विभूति सम्पदा ‘इस क्षेत्र की।”

यह प्रसंग विस्तार से परिजन “हमारी वसीयत और विरासत” पुस्तक में पढ़ सकते हैं। अदृश्य शरीर धारी ऋषियों की पावनस्थली से परिचय कराने के उद्देश्य से इसे यहाँ दिया गया। वस्तुतः पृथ्वी का आध्यात्मिक ध्रुव केन्द्र हिमालय है, यह ऋषिसत्ता की विशिष्ट छावनी है। सूक्ष्म शरीरधारी देवात्मा सिद्धपुरुष प्रायः इसी क्षेत्र में रहते हैं। यह उच्चस्तरीय आत्माओं का एक प्रकार से प्रशिक्षण विद्यालय रहा है। सिद्धपुरुष सुयोग्य पात्रों को सिद्धियाँ अपने विभूति भण्डार से यहीं से देते रहते हैं। यही है हिमालय का वास्तविक स्वरूप जिसे जनसाधारण सामान्यतया समझ नहीं पाते। भगवान ने गीता में अकारण नहीं कहा है कि “स्थावराणां हिमालय”। हिमालय देखने में पाषाण खण्ड प्रतीत होता है। पर तात्विक दृष्टि से पर्यवेक्षण करने पर वह एक प्रत्यक्ष देवता है। जीवन उसके कण कण में है। आत्मसाधना की दृष्टि से इस क्षेत्र का सर्वोपरि महत्व प्राचीनकाल की तरह तभी भी बना हुआ है और संभवतः सदा बना ही रहेगा।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118