सम्मान की पूँजी देने पर मिलती, बाँटने पर बढ़ती और बटोरने पर समाप्त हो जाती है। उनका सहज स्वभाव सम्मान बाँटने का था। एक दिन एक उच्च प्रशासनिक अधिकारी का अपने परिवार के साथ आना हुआ। ऊपर के कमरे में पहुँचने पर गुरुदेव ने आग्रहपूर्वक उन सको कुर्सियों पर बैठने का आग्रह किया। पहले तो वे चौके फिर न नुकुर की पर बाद में स्नेहिल आग्रह के वश में हो बैठना पड़ा। घर-परिवार, व्यक्तिगत व कार्यालय के जीवन संबंधी तमाम बातों की थोड़ी देर तक चर्चा होती रही। अधिकारी महोदय उनकी इन बातों से चकित होते रहे। नीचे उतरने पर वह अपनी पत्नी से कह रहे थे- “भाई! विचित्र सन्त है यह।” “क्यों क्या विचित्रता है इनमें?” पत्नी ने पूछा। “अन्य सन्त महात्माओं के पास जाकर उन्हें सम्मान देना पड़ता है। यहाँ उल्टे यह स्वयं सम्मान देने है।” उनका उत्तर था। ने केवल उन सज्जन ने, अनेकों ने उनके सान्निध्य में ऐसी अनुभूति पायी।
ईश्वरीय प्रयोजन के लिए आये महापुरुष भावपुँज होते है। जहाँ-कहीं भी भावनाशीलता जीवित है, उनके आगमन पर उद्वेलित, आकर्षित हुए बिना नहीं रहती। शक्तिपीठों को निर्माण लगभग शुरू हो चुका था। जन सहयोग उमड़ रहा था। इन्हीं दिनों एक बुढ़िया उनके पास आई और अपने दोनों चाँदी के कड़े उतार कर उनके पास रख दिये-बोलो-”सुना है आप शक्तिपीठ बना रहे हैं, मेरा भी इतना दान स्वीकार कर लीजिये।” पूछने पर उसने बताया कि दस बीस रुपये की साग-भाजी खरीद कर बेच लेती है। यही उसकी आजीविका है। सम्पत्ति के नाम पर यही चाँदी के कड़े है सो दे रही है। विवरण सुनकर वह भाव विह्वल हो उठे उन कड़ों को स्पर्श करते हुए बोले-”माताजी आपका दान सबसे बड़ा है। इतना बड़ा दान भला आपके सिवा और कौन देगा? उसकी प्रशंसा में अनेकों वाक्य कहे। वृद्धा अश्रु भरे नयनों से उनकी ओर ताक रही थी। निश्चित ही उनकी दृष्टि में कार्य की अपेक्षा भाव के परिणाम का कहीं अधिक महत्व था।