धरती पर विशेष प्रयोजन हेतु आए महापुरुष उदारता की प्रतिमूर्ति होने के बावजूद कहीं कठोर भी होते है, और उनकी इस कठोरता का केन्द्र बनता है अपना और अपनों का जीवन। आश्चर्यजनक किन्तु सत्य की सीमा में आने वाली यह बात उनके अपने एक निकटतम शिष्य की बीमारी के दौरान स्पष्ट हुई। उस समय इस कार्यकर्ता का गंभीर आप्रेशन हुआ था। सहृदय, वेदना, असुविधाओं को जखीरा तो जुटाना ही थे।
कुछ के मन में आया गुरुदेव तो अपनी तप शक्ति से अनेकों संकट टाल सकते है। फिर इस संकट को क्यों नहीं टाल रहे? जबकि संकट उनके नितान्त अपने पर है। एक दिन इधर-उधर से उठी इस बात का समाधान देते हुए उससे बोले क्यों भाई तुम तो ऐसा नहीं सोचते। फिर समझाते हुए कहा-हमारी आत्मीयता के लिए कष्ट तो उठाना ही पड़ेगा। न जाने कितनों की तकलीफें मुझे लेनी पड़ती है। इन्हें मैं और मेरे अपने ही तो उठाएँगे। अपने प्रति ही नहीं, अपनों के प्रति भी कठोरता। यह कठोरता ही तो उनकी अमूल्य आत्मीयता का मूल्य है। तथ्य स्पष्ट हो चुका था।