प्रस्तुत समय के बारे में सभी विद्वान, ज्योतिर्विद्, अतीन्द्रिय द्रष्टा एकमत हैं कि यह युगसन्धि की बेला है। विषमताएं अपनी चरमसीमा पर पहुँच गयी हैं। चारों और काम, क्रोध लोभ व मोह का ही साम्राज्य छाया दिखाई देता है। ऐसे ही समय में धर्म की रक्षा और अधर्म का विध्वंस करने के लिए भगवान द्वारा अवतार लिये जाने की शास्त्रीय मान्यता हैं क्योंकि भगवत् सत्ता अपनी प्रेरणा पुरुषार्थ द्वारा असंतुलन को संतुलन में बदलने के लिए वचनबद्ध है। “तदाऽऽत्मनं सृजाम्यहम्” जैसे गीता के वचनों के माध्यम से दिया गया उनका आश्वासन ऐसे अवसरों पर ही प्रत्यक्ष होता रहा है।
ज्योतिर्विज्ञान के अनुसार प्रस्तुत समय कलियुग के अंत तथा सतयुग के आरम्भ का है। कालगणना जो समस्त पूर्वाग्रहों को परे रख कर की गई है, बताती है कि यह हमारे इतिहास के पाँचवे कल्प का संक्रमण काल है। महतकल्प, हिरण्यगर्भ कल्प, ब्रह्मकल्प, पद्मकल्प बीत चुके। वाराहकल्प 13700 विक्रम पूर्व से आरंभ होकर अब तक चल रहा है। वैवस्वत मन्वन्तर (सप्तम) भी चल रहा है। भारत के प्रख्यात ज्योतिर्विदों ने सन् 1964 में एक सम्मेलन आयोजित कर एक महत्वपूर्ण घोषणा की थी कि नौ अवतारों के बाद कल्कि अवतार का प्राकट्य हो चुका है एवं इस समय उसे “बौद्धों” अर्थात् बुद्धिजीवियों के दुष्प्रभाव को निरस्त करने तथा श्रद्धा सद्भावना का नवयुग लाने में व्यस्त होना चाहिए। वे पाश्चात्य ज्योतिर्विदों की इस बात से सहमत नहीं थे कि उसका अवतरण इस सदी के अंत में होगा। उन सभी ने विश्व की कुण्डली बनाकर यह प्रमाणित किया कि निष्कलंक प्रज्ञावतार का अवतरण भारत भूमि में हो चुका है वह इस समय उसे सक्रिय होना चाहिए। उनके अनुसार 1990 से 2010 के बीच उसका प्रभाव सूक्ष्म रूप से अति तीव्र वेग से फैलने व सारे विश्व को अपने प्रभाव क्षेत्र में लेने की सम्भावना बतायी गयी है।
इस संदर्भ में सभी ज्योतिर्विद् बरार के विद्वान ज्योतिषी ज्योतिर्भूषण श्री गोपीनाथ जी द्वारा 5 सितम्बर 1926 को बनाई गई विश्व कुण्डली को प्रामाणिक मानते है।
इस कुण्डली के अनुसार लग्न तुला उच्च के शनि से युक्त थी, पराक्रम के स्थान पर उच्च का केतु सुख के स्थान में गुरु, सप्तम में स्वगृही मंगल, नवें में उच्च का राहु, कर्म स्थान में स्वगृही चन्द्र और शुक्र के साथ उसकी युति थी। ये सभी विज्ञान और नये धर्म की प्रतिष्ठा के सूचक है। लाभ भाव में बुद्ध और स्वगृही सूर्य का युक्तीकरण भारतवर्ष के धन और ऐश्वर्य की वृद्धि के सूचक है। यह लग्न भगवान कृष्ण, भगवान राम के जन्म के लग्न की याद दिलाती है और यह बोध होता है कि संसार में फिर से धर्म की स्थापना करने वाली शक्ति व अवतार का प्राकट्य हो गया होना चाहिए, भले ही लोग उसे बाद में समझ पायें। (“देवदूत आया हम पहचान न सके”पुस्तक सके पृष्ठ-19-20)
वस्तुतः गड़बड़ी वहाँ आती है, जब अर्थ का अनर्थ कर कालगणनादि के द्वारा आर्य ग्रन्थों में उद्धृत प्रसंगों को भी उलट-पलट दिया जाता है।
वस्तुतः गड़बड़ी वहाँ आती है, जब अर्थ का अनर्थ कर कालगणनादि के द्वारा आर्य ग्रन्थों में उद्धृत प्रसंगों को भी उलट-पलट दिया जाता है।
ब्राह्मस्यतु क्षपादस्य यत्प्रमाणं समारुतः। एकैकशो युगानान्तु क्रमशस्त्रत्रिर्बधितः॥ चत्वार्याहु सहस्त्राणि वर्षाणाँतु क्रतं युग। तस्यतावत शती संध्या संध्याशशच तथाविधः॥ इतेयेरेषु ससंध्येषु ससंध्याशेषु चत्रिपु। एकोयायेन वर्तन्ते सहस्राणि शतानिच॥
(मनु 1/67-69)
अर्थात् ब्रह्मा जी के अहोरात्र में सृष्टि के पैदा होने और नाश होने में जो युग माने गये हैं, वे इस प्रकार हैं-चार हजार वर्ष और उतने ही शत अर्थात् चार सौ वर्ष की पूर्व संध्या और इतने ही वर्षों की उत्तर संध्या। इस प्रकार कुल 4800 वर्षों का सतयुग, तीन हजार वर्षों का त्रेतायुग, दो हजार वर्षों का द्वापर तथा बारह सौ वर्ष का कलियुग हुआ।
इसके बाद श्रीमद्भागवत् के स्कन्द 12, अध्याय 2 के 34 वें श्लोक को देखा जाय।
दिव्याब्दाना सहस्रान्ते चतुर्थेतु पुनः कृतम्। भविष्यति यदानृणा मन आत्मप्रकाशकम्॥
अर्थात् चार हजार दिव्य वर्षों के अन्त में अर्थात् चार हजार दिव्य वर्षों में कलियुग बीता, फिर सतयुग आयेगा जो मनुष्यों के मन और आत्मा में प्रकाश भर देगा।
यहाँ दिव्य शब्द ध्यान देने योग्य है भूल से पण्डितों ने इससे अर्थ देवता ले लिया एवं 360 से गुणा करके (देवताओं का एक दिन बराबर एक मानुषी वर्ष)432000 बना दिया और इतने वर्ष की कलियुग की अवधि लिख दी। ऋग्वेद 2/164/46 के अनुसार जो दिवि में प्रकट होता है जो अग्निरूपी सूर्य है, वही दिव्य है। दिविद्यु को कहते हैं ओर द्युदिन का नाम है। अतः सूर्य के दिन के हिसाब से पुनः गणना करने पर सतयुग 1200 वर्षों का, त्रेता 2400 का, द्वापर 3600 का तथा कलियुग 4800 वर्षों का है। 4000 वर्ष भागवत के श्लोकानुसार कलियुग के व संधिकाल के 800 इस प्रकार 4800 वर्ष हुए जो अब समाप्त होने को आ रहे हैं।
महाभारत बन पर्व अध्याय 190 श्लोक 88 से 19 2024 का समय कयामत का है। कयामत से तात्पर्य है कि फिर कोई पापी नहीं रहेगा। मक्का के हमीदिया पुस्तकालय में “अल्कश्फ वल्कात्मफी मार्फत” पुस्तक रखी हुई है। उसमें लिखा है कि “कयामत तब आयेगी जब फूट, कलह और व्यभिचार बढ़ जाएंगे। तब एक महापुरुष आएगा। वह आध्यात्मिक शक्ति से पूर्ण होगा एवं अपनी आत्मशक्ति के प्रभाव से सारे आग्नेयास्त्रों को बेकार कर देगा। वह संसार को स्वर्ग बना देगा और बूढ़ों को जवान बना देगा।” इसी प्रकार का विवरण “इमामे आखिकज्जमा” ग्रन्थ में भी मिलता है। मदीना को प्रसिद्ध पुस्तक “मकसूम बुखारी” के अनुसार हिजरी सन् की चौदहवीं शताब्दी की दूसरी तिहाई में कयामत आएगी और हजरत मेंहदी प्रकट हो जाएंगे। वे सब धर्मों के मसीहा होंगे।
वस्तुतः अवतार की काल गणना प्रसंग ऐसा टेढ़ा व विवादास्पद है कि उस पर ढेरों वाद प्रतिवाद प्रस्तुत किये जा सकते हैं, पर वस्तुतः जो हलचलें परोक्ष जगत में सक्रिय रहती हैं व जो क्रिया कलाप मानवी कर्तृत्व के रूप में, किस प्रकार, कहाँ क्रियाशील है।
अवतारों का भी क्रमिक विकास हुआ है। इनकी कलाएं क्रमशः बढ़ती चली गई हैं। कच्छ मच्छ एक एक कला के अवतार थे। वाराह और वामन दो दो के। नृसिंह और परशुराम तीन तीन के माने जाते हैं। राम बारह के, कृष्ण सोलह के तथा बुद्ध बीस कला के अवतार माने गये हैं। निष्कलंक के बारे में यह कहा गया है कि वे चौबीस कला के अवतार हैं। यह क्रमिक विकास है। सृष्टिक्रम में अवतारों की यह श्रृंखला अनवरत चलती चली आ रही है एवं संपूर्ण चौसठ कला को पहुँचने तक चलती ही रहेगी।
प्रज्ञावतार का व युगसंधि का प्रसंग यहाँ विस्तार से इसलिए दिया जा रहा है कि परिजन इस अवतारी विचार प्रवाह को पहचान सकें जो उनके जीवन काल में उनके समक्ष उपस्थित रहा, वे उससे जुड़े भी व आगे भी जुड़े रहेंगे। अवतार को जानने, पहचानने के बाद देवमानवों को आत्मबोध कराना कठिन नहीं है कि वे क्या हैं?
भूतकाल के अवतारों में प्रारंभिक कार्यक्षेत्र भौतिक परिस्थितियों से जूझना, अनाचारियों से लड़ना तथा श्रेष्ठता की स्थापना तक सीमित रहा है। प्रज्ञावतार से सबसे अधिक समीप है बुद्धावतार जिसमें बुद्धि की शरण में जाने का, लोकमानस को सत् प्रेरणा देने का प्रचण्ड अभियान चला। प्रज्ञावतार का कार्यक्षेत्र अधिक व्यापक व क्लिष्ट प्रकार का है। उसे सामयिक समस्याओं एवं व्यक्तिगत उद्दण्डताओं से जूझना ही नहीं वरन् लोकमानस में ऐसे आदर्शों का बीजारोपण, अभिवर्धन, परिपोषण व क्रियान्वयन करना है जो सतयुग जैसी भावना और रामराज्य जैसी व्यवस्था के लिए आवश्यक अंतःप्रेरणा एवं विस्तार को देखते हुए प्रज्ञावतार की कलाएं चौबीस होना स्वाभाविक है।
पुरुषसूक्त में भगवान के स्वरूप का दिग्दर्शन कराते हुए उसे “सहस्र शीर्ष पुरुषः सहस्राक्षः सहस्र पाद” हजार सिर वाला, हजार हाथ पैर वाला बताया गया है। अर्थात् ब्रह्म तो एक ही है पर विशेष अवसरों पर वह अपने विशेष साधनों, उपकरणों द्वारा अभीष्ट प्रयोजन की पूर्ति करता है। सृष्टि संचालन ही नहीं, युगपरिवर्तन जैसे विशिष्ट अवसरों पर हजारों जीवनमुक्त उच्चस्तरीय आत्माएं उसकी सहचर बनकर महाकाल का प्रयोजन पूरा करती हैं।
भगवान एक अवश्य हैं पर जब वे कुछ विशेष प्रयोजन पूर्ण करते हैं तब एकाकी नहीं रहते वरन् सहस्र रश्मियों वाले अंशुमाली की तरह प्रकट होते हैं। युगपरिवर्तन जैसे प्रयोजनों में तो उनका सहस्र शीर्षारूप निश्चित ही स्पष्ट हो उठता है। महाकाल को विशेष अवसरों पर ऐसा महारास रचना पड़ता है जिसमें उत्कृष्ट आदर्श के लिए सहस्रों महामानव कार्यरत दिखाई पड़ें।
इन दिनों यही सब हो रहा है। एक प्रबुद्ध विचार प्रवाह उस कमल पुष्प से उद्भूत हुआ जिसे सहस्र दल कमल कहते हैं। ब्रह्माजी की उत्पत्ति कमल पुष्प से ही है। यह मस्तिष्क मध्य ब्रह्मरंध्र में अवस्थित है। अध्यात्मबल यहीं केन्द्रित रहने के कारण ईश्वर की उत्पत्ति एवं स्थिति का केन्द्र बिन्दु उसे ही माना गया है। प्रचण्ड विचारों का चक्रवात यहीं से उद्भूत हुआ। एक अवतारी महामानव के मस्तिष्क के माध्यम से उन विचारों ने चेतना क्षेत्र में बढ़ती असुरता के निवारण का तथा आध्यात्मिक पूँजी सम्पन्न प्रबुद्ध आत्माओं को जगाने का काम किया। दशम निष्कलंक अवतार इन्हीं सबकी संघशक्ति का प्रतीक है।
महाकाल का, अवतारी प्रक्रिया का प्रबुद्ध आत्माओं में अवतरण स्वाति बूँद की तरह होता है जिससे साधारण दिखने वाली सीपी को भी अपने गर्भ से महान मोती उगाने का सौभाग्य मिलता है। इस अनुग्रह से सामान्य व्यक्तित्व भी देखते देखते महान हो जाता है।
संधि काल की विषम वेला, भारत व विश्व के महान गौरव व वर्चस्व को पुनः अपने स्थान पर प्रतिष्ठापित करने वाली आत्माओं का अवतरण तथा प्रचण्ड विचारशक्ति प्रवाह के रूप में महाकाल का स्वयं का नरतन देह धारण करके आगमन इसी शताब्दी में हुआ है जिसके लिए मानवता कब से तरसती प्यासी बैठी थी। भगवान बुद्ध के बाद पिछले 2000 वर्षों में महापुरुषों का उत्पादन प्रायः रुक सा गया था। अब पिछली एक शताब्दी में खण्ड अवतारों के रूप में तीन का प्राकट्य हो चुका, चौथे अंतिम का जो सतयुग की वापसी का संदेश लेकर आ रहा है, प्राकट्य सूक्ष्म व कारण शरीर की सक्रियता के रूप में आगामी दस वर्षों में सक्रिय होता देखा जा सकेगा। उसकी पूर्व भूमिका पहले ही बन चुकी है।
खण्ड अवतारों में प्रथम थे श्रीकृष्ण परमहंस, दूसरे योगीराज अरविन्द। तीसरा अवतरण शान्तिकुँज की युगान्तरीय चेतना, युगनिर्माण आन्दोलन के रूप में विगत चालीस वर्षों से सक्रिय है, अब चौथा विश्वव्यापी होगा, सूक्ष्म विचार प्रवाह के रूप में होगा तथा विचार परिवर्तन द्वारा वह पूरे विश्व का काया कल्प कर देगा। ये चारों मिलकर पूर्णावतार का निर्माण करेंगे।
इन चारों ही खण्ड अवतारों का प्रभाव रहा है कि भारतभूमि ने प्रखर चेतना सम्पन्न महामानव जितने इस अवधि में उत्पन्न किये हैं। उतने चिरकाल में उत्पन्न नहीं किये। ठाकुर श्री रामकृष्ण द्वारा भक्तियोग की तथा श्री अरविन्द द्वारा ज्ञान योग की भूमिका सम्पन्न हुई। दोनों देवदूतों ने वातावरण को गर्मी प्रदान की तथा तपश्चर्या द्वारा ऐसा वातावरण उत्पन्न किया जिससे बंकिमचन्द्र महामना मालवीयजी, गोपाल कृष्ण गोखले,जस्टिस रानाडे, दादा नौरोजी, केशवचन्द्र सेन, तांत्या टोपे, लक्ष्मीबाई, स्वामी विवेकानन्द, भी शारदा, भगिनी निवेदिता,महात्मा गाँधी, नेहरू,पटेल मौलाना आजाद, चितरंजनदास, राजेन्द्र बाबू, एनीबेसेंट, सरोजिनी नायडू, शचीन्द्र सान्याल, चन्द्रशेखर आजाद, रासबिहारी बोस, भगतसिंह, दुर्गा देवी, पांडिचेरी की श्री माँ, नीरोटवरण जैसी अनेकानेक विभूतियाँ जन्मी तथा असाधारण पुरुषार्थ सम्पन्न कर गयीं। रामकृष्ण व माँ शारदा का तथा योगीराज अरविंद एवं महाकाली के प्रखर प्रज्ञा-सजल श्रद्धा के युग्म के रूप में देखी जा सकती है।
यहाँ ध्यान रखा जाना चाहिए कि कोई भी व्यक्ति जन्म से ही देवदूत नहीं होता। महाकाल और महाकाली उसे किसी विशेष अवसर पर अपना वाहन बनाते हैं और देहधारी के माध्यम से वे सूक्ष्मताएं अपना काम करती चलती जाती हैं। अदृश्य शक्ति परोक्ष सत्ता किसी दृश्य माध्यम से ही अपने क्रिया-कलापों को सम्पन्न करती है। तब सामान्य मनुष्य भी असामान्य पुरुषार्थ दिखाते दीख पड़ते हैं। जिस प्रकार गंगावतरण के समय भगवती सुरसरि ने शिवजी की जटाओं को वाहन चुना था, समय-समय पर कितने ही नर-नारी इन जटाओं का प्रयोजन पूर्ण करते हैं।
वर्तमान काल में सन् 1911 में पूज्य गुरुदेव के रूप में एक देवदूत का अवतरण हुआ। महाकाल की सत्ता ने उसे अपना माध्यम बनाया एवं उसने 60 वर्ष की आयु पहुँचने तक युग निर्माण योजना का एक विशाल संगठन खड़ा करके रख दिया जिसमें कितनी ही सुसंस्कारिता सम्पन्न जागृतात्माएं हैं। समय आने पर उन्हें झकझोरने के लिए हमारी गुरुसत्ता ने जो निष्कलंक प्रज्ञावतार के रूप में जन्मी थी, स्थूल काया से महाप्रयाण किया। महाप्रयाण के पूर्व भी स्वयं को पाँच में बाँटकर सूक्ष्मीकरण कर बहुमुखी आत्मविस्तार कर डाला। अब वही सत्ता परोक्ष जगत से खण्डावतारों का बचा शेष कार्य सम्पन्न करने सूक्ष्म शरीर से सक्रिय हो गई है। हमें निश्चय करना है कि हम दुष्ट दुष्प्रवृत्तियों की मरणासन्न कौरवी सेना में सम्मिलित हों अथवा धर्मराज की धर्म संस्थापक सेना में।
खण्डावतार की, निष्कलंक प्रज्ञावतार की भूमिका वह महामानव कैसे सम्पन्न करेगा जिसे हम साधारण मनुष्य के रूप में देखते थे व अब जिसकी स्थूल देह भी अग्नि को समर्पित कर दी गई, उनके लिए पूज्य गुरुदेव की जन्म कुण्डली व उसका फलादेश प्रस्तुत है जो सन् 1983 में एक प्रज्ञाचक्षु ज्योतिर्विज्ञानी ने किया, जिसकी गणित ज्योतिष में महारत हासिल है तथा अभी भी प्रमाण देने के लिए विद्यमान है।