बुझ नहीं सकता कभी जो, वह ज्वलित अंगार हूँ मैं

August 1990

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“सुधा बीज बोने से पहिले, कालकूट पीना होगा। पहिन मौत का मुकुट, विश्व हित, मानव को जीना होगा॥

ये भी अखण्ड ज्योति पत्रिका के चालीसवें दशक में आज से पचास वर्ष पूर्व प्रथम पृष्ठ पर छपने वाली प्रारंभिक पंक्तियाँ। इन पंक्तियों को अपने मुख पृष्ठ पर देने वाले, स्वयं विश्वव्यापी दुष्प्रवृत्तियों का हलाहल पीकर मृतकों को भी जिला कर उठ खड़ा कर देने वाली अमृत संजीवनी का करोड़ों को रसास्वादन कराने वाले युगपुरुष पण्डित श्रीराम शर्मा आचार्य ने स्थूल काया की गतिविधियों को समेटते हुए गायत्री जयन्ती के दिन (2 जून 1990 ) ही अपनी चेतना की माँ गायत्री में समाहित कर अपने दृश्य जीवन पर पटाक्षेप कर दिया।

जिस व्यक्ति ने अपनी बहुमुखी लेखनी, बुद्धि सम्मत प्रतिपादनयुक्त वाणी, ऋषिप्रणीत कर्त्तृत्व तथा स्नेह वर्षा द्वारा आधी शताब्दी से अधिक समय तक अगणित व्यक्तियों के हृदय पर राज किया जो “रसौ वै सः” की मूर्तिमान था वह अपनी पार्थिव काया को छोड़ते हुए इस प्रकार इतनी शीघ्र अपनी चेतना को महत्चेतना से एकाकार कर लेगा, इस तथ्य पर अब तक किसी को विश्वास नहीं होता कि वह हमारे बीच नहीं रहा। क्या महाकाल के अग्रदूत महाप्राण व्यक्ति किसी शरीरधारी के रोके रुके हैं? वे तो धरित्री के कल्याण हेतु इस ग्रह कह यात्रा करने एक विशिष्ट समय पर आते हैं एवं अपनी इस अनवरत यात्रा में अगणित को रखा-सहचर बना उनसे अपौरुषेय पुरुषार्थ संपन्न करा के सतयुगी संभावनाएँ साकार करते हुए आगे की ओर चल देते हैं।

अवतार शब्द का जिस प्रयोजन से प्रयोग होता है उससे भावार्थ निकलता है-महाचेतना का अवतरण। निष्कलंक प्रज्ञावतार के रूप में अपनी दुर्बुद्धि से अपने ही महाविनाश में जुटी मानव जाति को सद्बुद्धि की ओर मोड़ देने का काम जिस महाशक्ति ने करने का संकल्प लेकर आज से अस्सी वर्ष पूर्व जन्म लिया, उसके व्यक्तित्व पर लेखनी उठाना एक प्रकार का दुस्साहस है। संभवतः उस बहुमुखी विराट प्राणवान महापुरुष के साथ यह समुचित न्याय भी नहीं कर पायेगी पर उसी शक्ति ने यदि यह शक्ति, सम्बल व प्रेरणा दी हो एवं लिखने का निर्देश भी दिया हो तो एक अकिंचन प्रयास अपनी ओर से किया तो एक अकिंचन प्रयास अपनी ओर से किया तो जा ही सकता है। यदि यह प्रकाश अनेकों व्यक्तियों में अध्यात्मपरायण, ब्रह्मवर्चस प्रधान जीवन जीने की उमंगें जगा दे, उन्हें देवमानव बन लोकहितार्थाय जीवन जीने की प्रेरणा देने का शुभारंभ कर दे तो उनके चरणों की प्रेरणा देने का शुभारंभ कर दे तो उनके चरणों में चढ़ाई जा रही यह श्रद्धाँजलि कुछ अंशों में सार्थक मानी जा सकेगी।

जीवन जीने को तो यों अनेकों जीते हैं। नाम भी कमाते हैं पर यश व कीर्ति उनकी ही अमर होती है जो पिछड़ों को बढ़ाने, गिरों को उठाने पीड़ितों का कष्ट मिटाने हेतु तिल तिल कर अपना जीवन होत्र कर देते हैं, अपना सर्वस्व समर्पित कर देते हैं या जीवनयज्ञ एवं समाजयज्ञ के माध्यम से विश्व वसुधा के लिए इतना कुछ कर जाते हैं जिसे कभी भुलाया न जा सकें। स्वयं को ऊंचा उठाना आत्मबल विकसित कर मुक्ति का पथ प्रशस्त करना तो सरल है पर विश्व मानवता के लिए उस द्वार को खोल देना अत्यन्त कठिन हैं। ऐसे व्यक्ति न समाधि की इच्छा करते हैं न स्वर्ग की, न मोक्ष की। वे तो महात्मा बुद्ध की तरह यही उद्घोष करते रहते हैं कि जब तक एक भी व्यक्ति इस वसुधा पर बंधनों से जकड़ा है, मैं अपनी मुक्ति नहीं चाहूँगा। ऐसे देवमानवों को ही पैगम्बर देवदूत, अवतार की संज्ञा दी जाती है एवं वे कई सहस्राब्दियों में विरले, कभी एक बार जन्म लेते हैं, स्वयं को व युग को धन्य बना देते हैं। “आत्मवत् सर्वभूतेषु’ जीवन जीने वाले ये महापुरुष दिखने में तो साधारण व्यक्तियों के रूप में ही होते हैं परन्तु उनके जीवन का हर क्षण विश्व मानव के उत्थान हेतु समर्पित होता है, इसीलिए वे हर पल का सदुपयोग करते हुए “काल” को भी अपनी पाटी से बाँध कर स्वयं “महाकाल” रूप धारण कर युगसृजन के श्रेयाधिकारी बनते हैं व अपने साथ चलने वालों को निहाल कर जाते है। ऐसे ही महाप्राज्ञ युगपुरुष थे-हमारे गुरुदेव।

उन्नीसवीं शताब्दी के अंतिम पाँच दशकों एवं बीसवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध के कुछ दशकों का इतिहास देखें तो जानकारी मिलती है कि विश्वभर में व्यापक परिवर्तन लाने वाले व्यक्ति इसी अवधि में जन्मे हैं। विश्ववंद्य महात्मा गाँधी, साम्यवाद को कार्य रूप देने वाले ब्लादीमिर लेनिन, स्वामी रामकृष्ण परमहंस, मौन तपस्वी महर्षि रमण, योगीराज अरविन्द, स्वामी विवेकानन्द, भगिनी निवेदिता, महाप्राज्ञ वैज्ञानिक आइन्स्टीन, संत विनोबा, विशाल संगठन के जन्मदाता हेडगेवार, द्वितीय विश्व युद्ध की विभीषिका से जूझने वाले सर विंस्टन चर्चिल, विश्व शांति के प्रतिष्ठाता रवीन्द्रनाथ टैगोर, शरतचन्द्र चटर्जी, चिकित्सा विज्ञान में नई क्राँति लाने वाले एलेक्जेंडर फ्लेमिंग, लौह पुरुष सरदार पटेल व पं. नेहरू, भारत के वैज्ञानिक द्वय जगदीश चन्द्र बसु एवं सी.वी. रमन, हुतात्मा चन्द्रशेखर आजाद एवं भगतसिंह, अमर शहीद सुभाष चन्द्र बोस, दार्शनिक काण्ट एवं मैक्समूलर तथा विज्ञान के क्षेत्र में उड़ान द्वारा नई क्राँति लाने वाले राइट बन्धु सभी इसी अवधि में जन्मे, यही उन का कार्य काल रहा। यह सूची तो अत्यन्त संक्षिप्त है व इंगित मात्र करती है महाकाल की उस रीति-नीति को जिसके अंतर्गत अगणित चेतना सम्पन्न व्यक्ति एक साथ एक शताब्दी में किस प्रकार स्थान स्थान पर अवतरित होते हैं। किन्तु यहाँ इस प्रसंग को पर अवतरित होते हैं। किन्तु यहाँ इस प्रसंग को लाना इसलिए आवश्यक समझा गया कि इन्हीं कुछ वर्षों में स्वामी रामकृष्ण परमहंस के ब्रह्मलीन होने के चौबीस वर्ष बाद आगरा जनपद के आंवलखेड़ा गाँव में एक समृद्ध ब्राह्मण परिवार में एक युगपुरुष जन्मा। बाल्यकाल जिसका साधारण रहा किन्तु क्रमशः अपनी बहुमुखी क्रिया पद्धति व प्राप्त सुसंस्कारिता अदृश्य सत्ता के मार्गदर्शन तथा विकसित आत्मबल के सहारे सन् 1940 तक लाखों व्यक्तियों के मन मस्तिष्क पर छा गया। नाम था उसका श्रीराम वह एक सद्गृहस्थ के रूप में दृश्य रूप में तो एक साधारण जीवन जीता चला गया, किन्तु कालाँतर में 1958 में एक अलौकिक विराट स्तर का सहस्रकुंडीय महायज्ञ मथुरा में आयोजित कर एक विशाल संगठन का सिरमौर बन गया।

इस युग पुरुष की महायात्रा का यह एक महत्वपूर्ण पड़ाव था। धर्म तंत्र के विस्तृत बिखरे ढाँचे को सुव्यवस्थित कर उसे लोकमानस के परिष्कार के लिए नियोजित कर देने के पुरुषार्थ को एक योद्धा ही मूर्त रूप दे सकता था। समस्त प्रतिकूलताओं के बीच अपनी देखनी, वाणी व ममत्व की त्रिवेणी बहाते हुए सारे कचरे को, दुष्प्रवृत्तियों के समुच्चय को महासागर में बहाते हुए देवमानवों के एक समुदाय को उनने गठित कर दिया जिसने “गायत्री परिवार’8 का नाम ग्रहण किया एवं कालान्तर में “युग निर्माण योजना” को जन्म दिया। यह एक महत्वपूर्ण स्थापना थी क्योंकि वे इस विशाल परिवार के अभिभावक थे, कुलपति थे, संस्थापक-संरक्षक सब कुछ थे। अगणित व्यक्ति अपने समय, ज्ञान, उपार्जन, विभूतियों की श्रद्धाँजलियाँ उनके चरणों में चढ़ाते हुए उनके अंग अवयव, सखा-सहचर बनते चले गए। अपनी चौबीस वर्ष की चौबीस लक्ष की महापुरश्चरण साधना के समापन पर जो पूर्णाहुति का प्रसाद माँ गायत्री ने उन्हें प्रदान निश्छल प्यार, निष्काम समर्पण।

विराट जनमेदिनी का प्रवाह जब उस पुण्यतोया भागीरथी में समाहित हुआ तो स्वतः एक पवित्र ब्रह्म सरोवर में बदलते हुए महासागर बनता चला गया। संगठन तो राजनीतिक भी होते है, सामाजिक भी, जातीय भी तथा शोषकों के भी। किन्तु धर्म की रक्षा एवं संस्थापना संघशक्ति के जागरण से किस प्रकार हो सकती है, इसका प्रत्यक्ष प्रमाण गुरुदेव पं. श्रीराम शर्मा जी ने दिया जिनने केंद्रीय प्रवाह से गोमुख-गंगोत्री से जुड़ने की जनसामान्य के लिए एक ही शर्त रखी अपने आप पर नियंत्रण, सादगी भरा जीवन तथा लोक मंगल के लिए सत्प्रवृत्ति संवर्धन के लिए अपनी आजीविका एवं समय सम्पदा का एक अंश समर्पित करना जो उनके विचारों से जुड़ा वह बदलता चला गया। स्वयं गुरुदेव परोक्ष रूप से उसकी चेतना का मार्गदर्शन करने लगे एवं उसने समर्पण के बदले में दिव्य अनुभूतियों का रसास्वादन अपने जीवन में किया।

पूरे गायत्री परिवार के लाखों सदस्यों के प्रथम नाम से लेकर पारिवारिक जानकारी विस्तार से होना तथा मिलने पर तुरन्त याद कर सारी चर्चा कर अपना स्नेह उस पर उड़ेल देना, एक चमत्कारी व्यक्तित्व सम्पन्न महापुरुष के ही बस का था। उनका मण्डल हँसता-मुसकराता खिल-खिलाता चेहरा बरबस हर किसी को उनका अपना अन्तरंग बना लेता था। संभवतः यही कारण कि बहुमुखी जीवन जीने वाले इस युगपुरुष ने विरासत में सबसे बहुमूल्य निधि अपने प्रति, अपने कार्यों के प्रति समर्पित कार्यकर्ताओं की मणि मुक्तकों में पिरोई माला के रूप में छोड़ी है जो मात्र महाकाल के गले का ही श्रृंगार बनने योग्य है जिसका मुकाबला करोड़ों-अरबों की धनराशि से नहीं किया जा सकता जो एक अति बहुमूल्य थाती है जिसे वंदनीया माता जी के माध्यम से वैसा ही स्नेह-दुलार मिलते रहने का आश्वासन वे दे गये हैं।

पूज्य गुरुदेव के अस्सी वर्ष के जीवन के प्रत्येक पल का यदि लेखा जोखा लिया जाय तो ग्रंथों का एक विशाल पर्वत खड़ा किया जा सकता है। लेखनी व कागज उनके व्यक्तित्व एवं कर्त्तृत्व को अपनी सीमा में बाँध नहीं सकते क्योंकि ऐसे बहुमुखी व्यक्तित्व के धनी युगपुरुष को, जिसे निष्कलंक प्रज्ञावतार की गिनती में ही गिना जा सकता है कोई साधारण व्यक्ति लिपिबद्ध नहीं कर सकता। प्रस्तुत श्रद्धाँजलि ग्रन्थ स्मारक स्वरूप प्रस्तुत अखण्ड ज्योति संयुक्तांक में यह प्रयास किया गया है कि पूज्य गुरुदेव के जीवन के हर पक्ष की झाँकी, जन-जन को जो उनसे उनके जीवनकाल में जड़े अथवा विचारों के मनन के माध्यम से उनका परिचय पा सके अथवा प्रसुप्त सुसंस्कारिता के बीजाँकुर जिनमें विद्यमान हैं व भविष्य में जिनकी उस विराट नवयुग अभियान में जुड़ने की संभावना है, सभी को परिलक्षित हो। यदि इस प्रयास, में कुछ सफलता मिल सकी जिसमें कोई सन्देह नहीं है, तो यही गुरुसत्ता के प्रति सच्ची श्रद्धाँजलि होगी।


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