मलय-मरुत हो बंद, बवंडर के प्रचण्ड झोंके आवें। शाँत हिमालय फटे, शिलायें उड़े, चूर हों टकरावें॥
चलता रहे प्रतप्त ग्रीष्म, सागर सूखे ‘खल-बल’ खौले। वज्रपात हो, भूमि कम्प हो, सर्वनाश हौले, हौले॥
फट जावे भूतल का पर्दा, उसमें विश्व समा जावे। लड़ें दिशाएँ, उलटें, रवि, शशि, शून्य, शून्य ही रह जावे॥
परिवर्तन युग आवे, बहरे सुनें, आँख अंधे खोले। सोने वाले उठें! सिपाही जागें! सावधान हो लें॥
जवाहर के प्रति