सन 1968 के अक्टूबर माह का प्रसंग है। इंदौर के क्रिश्चियन कॉलेज में दर्शन विभाग द्वारा सम्पन्न हो रहे समारोह में गुरुदेव को वक्तृता देनी थी। सभा में महाविद्यालय के प्राध्यापक छात्र, नगर के गणमान्य सदस्य सभी उपस्थित थे। ठीक समय पर वह भी एक-दो स्थानीय कार्यकर्ताओं के साथ पहुँचे। उनकी सीधी-सादी वेशभूषा, चेहरे की सरलता देखकर महाविद्यालय के प्राचार्य विश्वास न कर सके कि वह विषय के अधिकारी विद्वान हो सकते है। अतएव पास आकर बोले-” आप कम समय में अपनी बात कह लीजिएगा। विषय से इधर-उधर भटक जाने में परेशानी होगी।”
उन्हें उचित आश्वासन देकर गुरुदेव ने पूर्वी-पश्चिमी दर्शन में समन्वय की स्थापना करते हुए जीवन मूल्यों के परिप्रेक्ष्य में अपनी मौलिक व्याख्या आरंभ की। व्यवहारिक जीवन से कोसों दूर होती जा रही दार्शनिकता पर कटाक्ष करते हुए कहा-”जो विचार या सिद्धांत मनुष्य के सर्वांगीण विकास में सहायक हों उन्हीं के चिंतन-प्रतिपादन क्रियान्वयन में दर्शन की सार्थकता है।” व्याख्या की समाप्ति पर प्राध्यापकों समेत प्राचार्य महोदय के हाथ जुड़े थे। प्राचार्य महोदय भावपूर्ण स्वर में बोले-”मैं आपको समझ नहीं सका था। डॉ. राधाकृष्णन को सुनने के बाद मुझे सभी फीके लगते थे। पर आज आपको सुनकर लगा कोई उसे भी एक कदम आगे है, जो न केवल दर्शन की सार्थकता समझा सकता है बल्कि स्वयं के जीवन में दर्शन को सार्थक कर रहा है।”
युग निर्माण विद्यालय का प्रथम सत्र समाप्ति पर था। इसी समय एक संस्कृत प्रेमी सज्जन जो काफी प्रतिष्ठित थे गुरुदेव से मिलने पधारे। उन्होंने उनको साथ लेकर तपोभूमि की विविध गतिविधियों की जानकारी कराई। इसी क्रम में विद्यालय की बारी आयी। स्वावलंबन सम्बन्धी शिक्षा, जीवन परिशोधन प्रयोगों के साथ विद्यार्थियों का लोक सेवियों के रूप में गठन सारा कुछ स्पष्ट किया। वह सज्जन इसे सुना-अनसुना कर, बार-बार एक ही बात कहते जा रहे थे-”यहाँ सब कुछ संस्कृत में क्यों नहीं पढ़ाया जाता? आप सारा जोर संस्कृत पर क्यों नहीं देते।” काफी कुछ सुन लेने के बाद उन्होंने जवाब दिया-”मेरा सारा जोर संस्कृत की जगह संस्कृति पर है। मैं यहाँ संस्कृत की जगह संस्कृति का शिक्षण देता हूँ।”
तनिक तेज स्वर में कहे गये इन वाक्यों ने आगंतुकों को स्तब्ध कर दिया। कुछ सोचते हुए उनने कहा-”आप ठीक कह रहे है। आपके इस प्रयास की महत्ता स्वामी श्रद्धानन्द के प्रयासों से कम नहीं।”
उस दिन वह घीयामंडी के अखण्ड-ज्योति कार्यालय में बैठे मिशन की भावी रूप-रेखा पर चिन्तन कर रहे थे। पता नहीं क्या सोचकर बड़ी सरलता से पास बैठे एक स्वयं सेवक से पूछा-”क्यों जी तुम्हीं कुछ बताओ, मिशन को विस्तार कैसे दिया जा सकता है?” स्वयं सेवक ने थोड़ा सोचते हुए कहा-”यदि शिक्षक और चिकित्सक इस काम में सहयोग करने लगें तो प्रगति दूनी हो जायेगी। क्योंकि इन्हीं दोनों वर्गों से समाज उपकृत रहता है। उपकार करने वाले की बात मानने में किसी को संकोच कहाँ?”
“जानते हो! शिक्षण और चिकित्सा किसके काम हैं?” कुछ रुककर स्वयं बोले-ब्राह्मण के। एकमात्र ब्राह्मण ही समाज को ज्ञान दे सकता है, उसे सारी व्याधियों से मुक्त कर सकता है। बाकी अन्य तो इसके नाम पर व्यवसाय करते हैं। उनकी वाणी से ऐसा लगा जैसे भगवान मनु ब्राह्मणों का कर्तव्य निर्धारण कर रहे हों। ब्राह्मणत्व सम्पन्न व्यक्ति ही इस कार्य को आगे बढ़ाएँगे। शान्त भाव से कहकर वह चुप हो गए।