हीरे की परख जौहरी ही कर सकता है। इसी तरह ऋषि की परख वहीं करे जो स्वयं ऋषि हो। इस कथन की सार्थकता विनोबा जी के ग्वालियर मुरार कार्यक्रम के अवसर पर अनुभव हुई। उनके निवास स्थान पर ग्वालियर के एक कार्यकर्ता पू. गुरुदेव के वेद भाष्य लेकर भेंट करने गए। यह वेद भाष्य का प्रथम प्रकाशन था। शाम के यही कोई चार बज रहे होंगे। विनोबा जी ठहरे ठेठ सत्यवादी वेदों को उलटते पलटते हुए बोले “अभी मैं तुम्हारी इस भेंट के बारे में कुछ नहीं कह सकता हूँ। कल सुबह आना।
दूसरे दिन प्रातः पहुँचने पर वह वेद वापस करने लगे। लेते हुए कार्यकर्ता थोड़ा मलीन मन था, कुछ आश्चर्यचकित भी। उसके आश्चर्य को तोड़ते हुए बोले-”मेरे शाम के कार्यक्रम में आना वही पर मैं यह भेंट स्वीकार करूंगा। ऐसी अमूल्य भेंट व्यक्तिगत नहीं सार्वजनिक स्तर पर स्वीकारी जानी चाहिए। कार्यकर्ता शाम के कार्यक्रम में पहुँचा-वेदों के महान पण्डित विनोबा जी ने उसे मंच पर बुलाया। वेद भगवान को प्रणाम करते हुए उन्होंने घोषणा की कल रात मैंने इस वेद भाष्य को भली-भाँति देखा है। ऐसा सुन्दर भाष्य कोई वैदिक ऋषि ही कर सकता है अन्य में भला ऐसी सामर्थ्य कहाँ? विनोबा जी पूरी भरी सभा में काफी देर तक वेद भाष्य की प्रशंसा में बोलते रहे। कार्यकर्ता एक ऋषि से दूसरे ऋषि के स्वरूप को सुनकर मुग्ध हो रहा था।