सुनसान का सहचर हमार चारों ओर-विद्यमान है

August 1990

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कोई कभी अकेले घनघोर वन में भटक जाए, साथ में कोई भी न हो व तरह-तरह की झींगुरों की आवाजें, पेड़ों को स्पर्श करती पवन की सीटी बजाती ध्वनि सुनाई देने लगे तो सामान्य मनुष्य सहज ही भयभीत हो सकता है। उस समय लगता है कोई तो मनुष्य साथ होता। निर्जन एकाकीपन काटने को दौड़ता है व तुरन्त भाग निकलने की इच्छा होने लगती है। किन्तु महामानवों की, प्रकृति से सामीप्य स्थापित कर महत्चेतना से एकाकार होने की प्रवृत्ति उन्हें सुनसान में भी सहचर ढूँढ़ कर ला देती है।

पूज्य गुरुदेव की लेखनी से जो विशाल साहित्य सृजा गया, उसमें “सुनसान के सहचर’ पुस्तक वस्तुतः एक मील का पत्थर हैँ। पिछले दो लेखों में उनके हिमालय यात्रा संबंधी अनुभव व गोमुख गंगा से प्रेरणा व लोकमानस का शिक्षण प्रसंग दिया गया है। जहाँ उनके उस पहलू को उजागर किया जा रहा है। जो उन्हें साहित्य जगत की बिखरी हिमाच्छादित चोटियों में सबसे ऊँची एवरेस्ट की चोटी पार बैठा देता हैं कल्पना की सृजनात्मक शक्ति कितनी प्रचण्ड हो सकती हैं व लेखनी से रचा ऐसा साहित्य कितना लालित्यपूर्ण हो सकता है, इसे परिजन इन प्रसंगों में देख सकते है।

पूज्य गुरुदेव एक वर्ष से अधिक समय तक गोमुख व नन्दनवन के बीच एक झोंपड़ी में रहे जो सुनसान संग्राम में एक माह काल कोठरी में भी रहना पड़ा था, पर यहाँ तो चौबीस घण्टे झोंपड़ी थी, जंगल का अंधकार था, घोर शीत था तथा एकाकीपन था। उसी एकाकीपन में वे सोचते हैं- “क्या वास्तव में सूनापन इतना भयभीत करने वाला है? विवेक ने मन की दौड़ को पहिचान कर कहा- यदि सूनापन ऐसा ही अनुपयुक्त होता तो ऋषि और मुनि, साधक और सिद्ध विचारक और वैज्ञानिक उसे क्यों खोजते? समाधि सुख और आत्मदर्शन के लिए उसकी तलाश क्यों होती’? आगे वे लिखते हैं कि “निष्ठा ने कहा-एकान्त साधना की आत्म प्रेरणा असत् नहीं हो सकती, जो शक्ति इस मार्ग पर खींच कर लाई है, वह गलत मार्गदर्शन नहीं कर सकती। भावना ने कहा-जीव अकेला आता है, अकेला जाता है। सूर्य अकेला चलता है, चन्द्रमा अकेला उदय होता है। इसमें उन्हें कुछ कष्ट है।

“विचारों को विचारों से काटा व अब मस्तिष्क एकान्त की उपयोगिता, आवश्यकता और महत्ता पर विचार करने लगा।”

उस समय के इस चिन्तन ने ही संभवतः इस ऋषि को आगे चक्कर सूक्ष्मीकरण साधना तथा उसके बाद के महाप्रयाण तक के वर्ष एकाकी बिताने की प्रेरणा एवं शक्ति दी होगी। सन् 1974 से 1990 तक वे एक ही कोठरी में रहे, उसी में तप में लीन रहे व वहीं से प्रचण्ड शक्ति में चक्रवात सारे विश्व में उत्पन्न कर सके। एकान्त सेवन को किस सीमा तक रचनात्मक बनाया जा सकता है व इसके लिए किस श्रेणी का चिन्तन होना चाहिए यह मार्गदर्शन पूज्य गुरुदेव लेखनी से ही नहीं, अपना जीवन जीकर सब को दे गए हैं।

प्रकृति प्रेमी पूज्य गुरुदेव रात्रि को अपनी झोपड़ी से बाहर आकर प्रकृति का लीला जगत देखने लगे व मानों जड़ समझी जाने वाली वस्तुओं से वार्तालाप ही करने लगे। वे लिखते है-”गंगा की लहरों में चन्द्रमा के अनेकों प्रतिबिम्ब चमक रहे थे। दृश्य बड़ा सुहावना था। कुटिया से निकल कर गंगा तट के एक बड़े शिलाखण्ड पर जा बैठा और निर्निमेष होकर उस सुन्दर दृश्य को देखने लगा......... लगा कि वह जलधारा कमल पुष्प सी सुन्दर एक देवकन्या के रूप में परिणत हो गयी है। वह बोली-हे नर तनधारी आत्मा! तू अपने को इस निर्जन वन में अकेला मत मान। दृष्टि पसार कर देख। चारों ओर तू ही बिखरा पड़ा है। मनुष्य तक अपने को सीमित मत मान। इस विशाल सृष्टि में मनुष्य का भी एक स्थान है, पर वही सब कुछ नहीं है। अन्य जड़ चेतन माने जाने वाले जीव भी विश्वात्मा के वैसे ही प्रिय पुत्र हैं जैसा मनुष्य। तू उन्हें अपना सहोदर, अपना सहचर क्यों नहीं मानता? पशु पक्षी, कीट पतंग, वृक्ष वनस्पति सभी में आत्मा है, भावना है। यदि तू इन अचेतन समझे जाने वाले चेतनों की आत्मा से अपनी आत्मा को मिला सके तो एक पथिक! तू अपनी खण्ड आत्मा को समग्र आत्मा के रूप में देख सकेगा। .... वह बोले जा रही थी... मनुष्य अभागे। अपने अनुदानों का उपभोग कहाँ कर सका? दृष्टि के अन्य जीवों में चेतना की मात्रा भले ही न्यून हो पर भावना को उनकी भावना के साथ मिलाकर तो देख। अकेलापन कहाँ है सभी ही तो तेरे सहचर है। सभी ही तो तेरे बन्धु बान्धव है?

कल्पना पटल पर उतरी वह देवकन्या एक ऋषि के माध्यम से क्या कुछ कह गयी, इसे भली भाँति समझा जा सकता है। “सिया राम मय सब जग जानी” तथा “हर प्राणी में रूप तुम्हारा, पंकज सा मुसकाता” की भावना हो तो भगवान प्रत्यक्ष प्रकृति के अंग अंग में दृष्टिगोचर होने लगता है, यह तत्वदर्शन की साधना सुनसान का सहचर अपनी झोंपड़ी से कुछ दूर गंगा की जलधारा के पास बैठकर कह रहा था। वे लिखते हैं-”अगणित चन्द्रबिम्ब मुझ से कहने लगे-तुम तो यहाँ साधना करने आए हो न। इस प्रियतम के प्रेम में तल्लीन गंगा की धारा को नहीं देखते! गंगा तट पर निवास करना है तो गंगा की प्रेम साधना भी सीखो”।

कितना कुछ सार नवनीत भरा पड़ा है ऊपर की इन पंक्तियों में। सूनेपन में भी प्रकृति का सौंदर्य योग साधना का दर्शन तत्वज्ञान सिखा रहा है।

उस झोंपड़ी में बैठकर पूज्य गुरुदेव ने झींगुर के मधुरगान को भी मानवी भाषा में ही समझा “उसने गाया-हम असीम क्यों न बनें? असीमता में मुक्ति का तत्व भरा है। स्वार्थ से बाहर निकल, जीव तू असीम हो आत्मा का विस्तार कर। सर्वत्र आनन्द ही आनन्द बिखरा पड़ा है, उसे अनुभव कर और अमर हो जा”।

आगे वे लिखते है-” इकतारे पर जैसे वीतराग ज्ञानियों की मण्डली मिलजुल कर कोई निर्वाण पद गा रही हो, वैसे ही सभी झींगुर मिलकर अपना गान निर्विघ्न गा रहे थे। स्वान्तःसुखाय उन का यह प्रयास चल रहा था। मैं भी उसी में विभोर हो गया।”........”अब निर्जन वन में कहीं एकाकीपन नहीं दिखाई देता। कुटिया से बाहर निकल कर देखा-विशाल वृक्ष पिता और पितामह जैसे व कषाय वल्कलधारी भोजपत्र ऐसे लग रहे थे मानों गेरुआ वस्त्र पहने कोई तपस्वी महात्मा खड़ा हो”.......”नवयौवन का भार जिससे संभालने में न आ रहा हो, ऐसी इतराती हुई पर्वतीय नदी बगल में ही बह रही थी। उसकी चंचलता और उच्छृंखलता, दर्प देखते ही बनता था।....वयोवृद्ध राज पुरुषों और लोक नायकों की तरह पर्वत शिखर दूर दूर तक ऐसे बैठे थे। मानों किसी गंभीर समस्या को सुलझाने में दत्तचित्त होकर संलग्न हों।”

पूज्य गुरुदेव ने नन्दनवन पठार पर प्रातःकाल की स्वर्णिम धूप में एक पीले फूल से भी चर्चा की व यह शिक्षण लिया कि जीवन कैसे जिया जाता है। रात्रि होने पर उनने शिला की आत्मा से बातचीत की जिस पर आकर वे साधना हेतु बैठे थे वह बोली-”साधक! क्या तुझे आत्मा में रस नहीं आता जो सिद्धि व मुक्ति की बात सोचता है। भगवान के दर्शन से क्या भक्ति भावना में कम रस है? मिलन से क्या विरह कम गुदगुदा है। मैं। तिल तिल अपने को घिस रही हूँ। इस प्रकार प्रेमी के प्रति आत्मदान का आनन्द अधिक से अधिक देने का रस ले रही हूँ। तभी तिल तिल पर अपने इष्ट के लिए घिसना सीखा।”

उपरोक्त वार्तालाप कल्पना के क्षितिज पर पूज्य गुरुदेव के सूक्ष्म एवं विराट रूप को पुनः हमारे समक्ष प्रत्यक्ष प्रकट करके दिखाता है व यह सिखावन देता है कि पूज्यवर की लेखनी से निकली प्राणचेतना और सूक्ष्म व विराट घनीभूत हो निखिल विश्व में संव्याप्त है। हम उससे एकाकार होने की दिशा में एक कदम तो बढ़ा कर देखें।


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