लाखों व्यक्तियों के जीवन बदले (Kahani)

August 1990

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स्वामी विवेकानन्द कहा करते थे कि छटाँक भर के दिमाग से कहीं रामकृष्ण की अवधारणा हो सकती है? स्वामीजी का कथन गुरुदेव पर भी सौ फीसदी खरा उतरता है। बात 7 दिसम्बर 1989 की है। गुरुदेव अपने ऊपर के आँगन में टहलने हुए पास बैठे एक शिष्य को मनोविज्ञान के कुछ सिद्धान्त स्पष्ट कर रहे थे। यही कोई साढ़े-तीन चार का समय होगा। सिद्धान्तों को भली प्रकार स्पष्ट करते हुए बोले “जानता हे! आजकल शांतिकुंज क्या बन गया हैं?”

सुनकर शिष्य कुछ अचकचा गया उसे हाल में हुए नए निर्माण के बारे में मालूम था। विश्वामित्र की तपस्थली के बारे में भी जानता था। अपनी जानकारियों को उसने कह सुनाया। सुनकर उसके बचकाने पन पर हँसते हुए बोल “अरे यह सब नहीं लड़के! आजकल शांतिकुंज बन गया है- महाकाल का घोंसला।” सुनने वाले की समझ को परखते हुए वह थोड़ा खुलासा करते हुए बोल “धरती पर चल रही महाकाल की विभिन्न गतिविधियों का हेड ऑफिस अब यहीं है।”

सुनने वाले को चकित देख वह हँसने लगे। उसने भी घोंसले के निवासी को प्रणाम किया और चलता बना। उसके दिमाग में गोस्वामी जी की एक चौपाई गूँज रही थी “सो जानइ जेहि देहु जनाई”।

विवेक चूड़ामणि में आचार्य शंकर ने परम सिद्ध को आनन्द का पिटारा कहा है। आनन्द का पिटारा होने का मतलब है बच्चों जैसा निश्छल हंसता-हंसता विनोदी जीवन। जिन्हें भी उनके निकट आने का सौभाग्य मिला उनके हंसी के फव्वारों से नहाए बिना न रहे होंगे। ऐसे ही एक दिन गुरुदेव तपोभूमि में दो कार्यकर्ताओं के साथ बैठे हुए। इनमें से एक कार्यकर्ता को लम्बी दाढ़ी बढ़े हुए बाल रखने का शौक था। तिलक लगाने, पीत वस्त्र धारण करने पर उनकी शोभा किसी महन्त से कम न होती थी। वार्तालाप का क्रम चल ही रहा था कि एक व्यक्ति ने अन्दर प्रवेश किया। इन तीनों के पास पहुँचकर बोला मुझे गुरुजी से मिलना है।

गुरुजी हंसते हुए बोले-पहचान लो गुरुजी को इन्हीं तीन में कोई गुरुजी है। आगन्तुक थोड़ी देर तक इधर-उधर देखता रहा। फिर लम्बी दाढ़ी वाले कार्यकर्ता के चरणों में माथा रख दिया। बेचारे कार्यकर्ता भौंचक्के हो समझाने लगे कि गुरु जी मैं नहीं वह रहे इधर वह सारे तमाशे को देख हंसते हुए कह रहे थे “बहकावे में आकर गुरु के चरणोँ को मत छोड़ देना यही गुरु जी हैं।” आसपास कुछ और लोग आ गए। बड़ी देर तक वातावरण में ठहाके गूँजते रहे। काफी देर बार आने वाले को असली गुरु जी का पता चला वह भी उनकी बालवत् हंसी देख मुग्ध हो गया।

शब्द सक्रिय होते है और निष्क्रिय भी इनकी सक्रियता के लिए वाक्य व्यंजना व्याकरण कौशल नहीं, चाहिए बोलने वाले के व्यक्तित्व की प्राण ऊर्जा। जिसके बिना सभी कुछ निष्क्रिय है! प्रारम्भ से ही गुरुदेव की वाणी ऐसी प्राण ऊर्जा से सनी होती थी। उन दिनों काँग्रेस का आन्दोलन मन्दा पड़ते देख अधिकाँश कार्यकर्ता यहां तक कि वरिष्ठ कहे जाने वाले काँग्रेसी अपना काम धंधा जमाने लगे थे। भू.पू. प्रान्तीय मन्त्री जगन प्रसाद जी रावत ने भी पुस्तकों, मुहर्रिर, एवं स्थान की व्यवस्था करके अपनी वकालत प्रायः शुरू कर दी थी।

एक दिन जब वह ताँगे पर कचहरी जा रहे थे। रास्ते में नवयुवक न्ीराम ने एक क्षण के लिये ताँगा रुकवाया और बोले रावत जी! ऐसे में आप भी वकालत करने लगेंगे तो हम स्वयं सेवकों का क्या होगा? कांग्रेस कहाँ जायेगी? देश के प्रति उनके प्राणों की आकुलता ने सुनने वाले के अन्तःकरण को झकझोर दिया। ठेठ ब्रजभाषा में कहे गये शब्दों ने निर्णय परिवर्तित करा दिया। वकालत का निर्णय परे रख वे पुनः राष्ट्र सेवा में कूद पड़े आगे चलकर सरकार में मंत्री बने। ऐसे थे उनके सक्रिय शब्द। जिनके प्रभाव ने एक दो नहीं लाखों व्यक्तियों के जीवन बदले।


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