मानव का नहीं हो सकता (Kahani)

August 1990

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

स्वावलम्बन विद्यालय जो मथुरा व हरिद्वार में स्थापित है, देखकर सभी अनौपचारिक उपार्जन प्रधान इस शिक्षा का प्रारूप देखकर प्रशंसा करते हैं। पूज्य गुरुदेव के निर्धारणों के अनुसार बने ये दो केन्द्र तो पिछले दो दशकों के बने हैं किन्तु अपनी किशोरावस्था में ही अपने गाँव आँवलखेड़ा में उनने अपने इस विचार को कार्य रूप दे दिया था। “शिल्पकला केन्द्र” नाम से अपने घर के सामने की जमीन पर उनने सोलह-सत्रह वर्ष की आयु में ही सात करघों से खद्दर बुनने का कार्य चालू कर दिया था। सूत कातने के लिए गाँव की महिलाओं में बाँट दिया जाता। श्रम के बदले में उन्हें राशि भी दी जाती थी। नारी उत्थान के लिए उनकी यह शुरुआत वाला कार्यक्रम था जिसे बाद में सुनियोजित रूप दिया गया। कुछ अशिक्षित बेरोजगार युवकों से उनने करघों पर बुनाई हेतु आने को कहा व बदले में राशि देकर मेहनत की कमाई पर जीना सिखाया। ‘बुनताधर’ नाम से गाँव में प्रसिद्ध इस केन्द्र के जन्मस्थली के सामने अवशेष विद्यमान हैं।

विनोबा ने “गीता प्रवचन” में तुलाधर वैश्य की कथा जिसमें बच्चे बूढ़े सबके साथ तुला जैसा व्यवहार किये जाने बाल काटने वाले नाई के जीवन के साधनामय बनने पर दूषित विचारों की भी वैसी ही कटाई, किसान की तरह खरपतवार अपने जीवन में से निकाल बाहर कर अनगढ़ता से सुगढ़ता की साधना करना ऐसे जीवन्त उदाहरण दिए है। पूज्य गुरुदेव की संभाषण व व्याख्यान की शैली भी यही थी। जीवन से जुड़े छोटे छोटे उदाहरणों के द्वारा कैसे व्यक्ति साधारण से असाधारण बनता है, यह उनने अनेकों तरह से समझाया है। कोयले से हीरा बनने से लेकर अनगढ़ पत्थर की मूर्ति की तरह तराशा जाना एवं बेल के वृक्ष से लिपट कर ऊँचा उठ जाने की तरह समर्पित का उत्कृष्टता की ऊँचाई को पा लेना यही उनकी मर्मस्पर्शी उद्बोधन शैली थी। आश्चर्य इस बात का है कि बोलते समय ऐसी सुबोध शैली जो सीधी अंदर तक उतरती चली जाए व लिखते समय ऐसी संस्कृतनिष्ठ व उक्तियों-मुहावरों से भरी हुई कि हिन्दी के विद्वान भी उससे शिक्षण लें। यह बहुमुखी स्वरूप साधारण मानव का नहीं हो सकता।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles