करुणा व ममत्व जिनके रोम-रोम में बसा था

August 1990

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“सुना है कि आत्मज्ञानी सुखी रहते हैं और चैन की नींद सोते हैं। अपने लिए ऐसा आत्मज्ञान अभी तक दुर्लभ ही बना हुआ है। ऐसा आत्मज्ञान कभी मिल भी सकेगा या नहीं, इसमें पूरा सन्देह है। जब तक व्यथा वेदना का अस्तित्व इस जगती में बना रहे, जब तक प्राणियों को क्लेश और कष्ट की आग में जलना पड़े, तब तक हमें भी चैन से बैठने की इच्छा न हो, जब भी प्रार्थना का समय आया भगवान से यही निवेदन किया हमें चैन नहीं वह करुणा चाहिए जो पीड़ितों की व्यथा को अपनी व्यथा समझने की अनुभूति करा सके, हमें समृद्धि नहीं, वह शक्ति चाहिए जो आँखों के आँसू पोंछ सकने की अपनी सार्थकता सिद्ध कर सके। बस इतना ही अनुदान वरदान भगवान से माँगा और लगा कि द्रौपदी को वस्त्र देकर उसकी लज्जा को बचाने वाले भगवान हमें करुणा की अनन्त संवेदनाओं से ओत−प्रोत करते चले जा रहे हैं।”

“हमारी कितनी ही रातें सिसकते बीती हैं-कितनी बार हम बालकों की तरह बिलख बिलख कर फूट-फूट कर रोये हैं, इसे कोई कहाँ जानता हैं? लोग हमें संत विद्वान, सिद्ध, ज्ञानी मानते हैं, कोई हमें लेखक, वक्ता, नेता समझते हैं, पर किसी ने हमारा अंतःकरण खोलकर पढ़ा समझा है? कोई उसे देख सका होता उसे मानवीय व्यथा वेदना की अनुभूतियों से, करुण कराह से हाहाकार करती एक उद्विग्न आत्मा भर इस हड्डियों के ढाँचे में बैठी बिलखती दिखाई पड़ती। कहाँ तथाकथित आत्मज्ञान की निश्चिन्तता-निर्द्वंद्वता और कहाँ हमारी करुण कराहों से भरी अन्तरात्मा। दोनों में कोई ताल मेल नहीं। सो जब कभी सोचा यही सोचा कि अभी वह जान जो निश्चिन्तता एकाग्रता समाधि सुख दिला सके हमसे बहुत दूर है। न उसकी चाह हैं।

प्रस्तुत पंक्तियां पूज्य गुरुदेव की लेखनी से फरवरी 1971 में “अपनों से अपनी बात “ स्तम्भ के अंतर्गत उनकी अन्तर्वेदना के रूप में प्रस्फुटित हुई थीं। इनमें झाँकी देखी जा सकती है, एक सिद्ध पुरुष के अन्दर बैठे संवेदना से भरे पूरे एक संत की जिसे दूसरों की पीड़ा अपनी नजर आती है। जिसका हृदय नवनीत समान है, एक ऐसे व्यक्ति की जो अपनी मुक्ति, समाधि आत्मिक प्रगति की सर्वोच्च कक्षा में पहुँच जाने की कोई आतुरता नहीं दर्शाता वरन् परहितार्थाय जीवन जीता हुआ दूसरों की मुक्ति की कामना सर्वप्रथम करता है। ऐसे एक फक्कड़ फकीर का, अवतारी महापुरुष का भूतकाल में और स्मरण आता है जिसका छोटा सा नाम था “कबीर”। वह अपनी सीधी सादी भाषा में कहता है।

सुखिया सब संसार है, खाये अरु सोवे। दुखिया दास कबीर है, जागे अरु रोवे॥

कितनी समानता है दोनों के जीवन दर्शन में? दोनों ही सिद्धि के सर्वोच्च स्तर तक पहुंचने की क्षमता रखते हैं पर बालक जैसी सरलता और एक परिपक्व मस्तिष्क वाले बूढ़े जैसी महानता का युग्म धारे हुए करुणा की प्रतिमूर्ति मात्र जान पड़ते हैं।

पूज्य गुरुदेव की जीवन साधना का महत्वपूर्ण अंग था “आत्मवत् सर्वभूतेषु, मातृवत् परदारेषु” एवं “परद्रव्येषु लोष्ठवत्” तो काया की परिधि तो वे कभी की लाँघ चुके थे पर अपने समान सबको देखना समानुभूति करना एवं दूसरों के अंतःकरण से अपने को इस गहराई जोड़ लेना कि लाखों परिजन उसे अपना परमप्रिय सखा, पिता, अभिभावक मानने लगे साधना की सर्वोपरि सिद्धि है।

दुनिया के सारे वैभव, कौशल और समर्थता को एक पलड़े पर रखा जाय एवं सरस भाव संवेदनाओं को तुला के दूसरे पलड़े पर तो दूसरा अधिक वजनदार सिद्ध होगा। उसी में शक्ति है दूसरों का हृदय जीतने की उसी के बल पर व्यक्ति आत्मसत्ता को क्रमशः ऊँचा उठाते हुए उच्चतम सोपानों को प्राप्त करता चला जाता है। वही है जिसके अंतराल में जागने पर साधारण मनुष्य देवमानव महामानव बन अगणित व्यक्तियों की श्रद्धा का केन्द्र बन जाता है। पूज्य गुरुदेव ने दुनिया की तीनों शक्तियों को परे रख महत्व दिया भावासिक्त अंतःकरण को। उनके “आत्मवत् सर्वभूतेषु” के आत्मविस्तार ने सर्वत्र अपना ही आपा बिखरा दिखलाया तो वह मात्र दृष्टि दर्शन न रह गया वरन् दूसरों की व्यथा-वेदनाएँ भी उनकी अपनी बन गई और वे इतनी अधिक चुभन-कसक पैदा करती रहीं कि उन पर मरहम लगाने के अतिरिक्त और कुछ सूझा नहीं फिर पुण्य परमार्थ की अलग से कौन चिन्ता करता? मीरा की तरह से उनका अंतःकरण पुकारता रहता-”ए री! मैं तो प्रेम दीवानी मेरा दरद न जाने कोय”। उनका दर्द था पीड़ित मानव जाति, शोषित प्राणी समुदाय को कैसे कष्ट से, व्यथा से, पतन से, मुक्ति दिलाई जाय ताकि औरों के लिए एक ऐसा मार्ग प्रशस्त हो जिस पर चलकर लोक सेवा की जा सके।

इस संबंध में एक प्रसंग यहाँ पर उनके बाल्यकाल से संबंधित देना अप्रासंगिक न होगा। वे जब मात्र बाहर वर्ष के थे तब की उनके ग्राम आँवलखेड़ा की यह घटना है। वे एक समृद्ध ब्राह्मण परिवार में जन्मे थे। पिता कुल पुरोहित थे। आस पास की सभी जमींदारियों में बड़ा सम्मान था तथा जब भी कभी भागवत पारायण होता उनके पिता पं. रूपकिशोर जी को ही बुलाया जाता। गाँव के बीच एक किलेनुमा हवेली में उनका निवास था। पर बालक श्रीराम का मन वहाँ घुटता रहता। वह निकल जाता अपने साथियों के साथ-दुखियों, बीमारों की तलाश में। गाँव में कभी हाट बाजार लगता तो उनके स्वयं सेवकों की टोली सबको पानी पिलाती। सबको प्राथमिक सहायता से लेकर पशु चिकित्सा के पैम्फलेट्स हाथों से बाँटते। सब ढेरों आशीर्वाद देते। ऐसे ही दिनों में एक दिन उन्हें जानकारी मिली कि उनके घर की हरिजन महिला छपको तीन चार दिनों से किसी कारण से आ नहीं रही। वे उसे प्यार से अम्मा कह कर बुलाते थे। निकल पड़े व पहुँच गए हरिजनों के टोले में। गाँव के सभी ब्राह्मणों, ठाकुरों ने टोका-रोका व कहा कि “घर जाकर पढ़ाई करो-भंगियों में तुम्हारा कोई काम नहीं है। कहीं छू लिया तो प्रायश्चित और करना पड़ेगा।

वे भला रुकने वाले थे। गंदी नालियों से गुजरते हुए वे पहुँच गए उस अम्मा के घर व देखकर हैरान रह गए कि उसकी हथेली में बड़ा घाव है व बिना दवा कराए उच्च ताप में वह बिस्तर में पड़ी है। पहले ढेरों उलाहने दिए और फिर का कि अभी मलहम पट्टी का सामान लेकर आता हूँ। शोषित समुदाय की उस वृद्ध ने श्रीराम को रोकते हुए कहा कि वह खुद ही पाँच मील दूर अस्पताल जाकर मलहम करा लेगी पर वे तो घर से सामान लेकर ही लौटे। खूब मन लगाकर कीड़ों से सने गैग्रीन में बदल रहे घाव को धोया और लाल दवा लगा कर मलहम पट्टी कर दी फिर कहा कि जड़ी बूटियों का काढ़ा और बना जाता हूँ ताप उतर जाएगा। वह डबडबाए नेत्रों से उन्हें आशीर्वाद देती रही। किन्तु आगे का मार्ग और भी दुष्कर था। घर पहुँचे तो गंगाजल का घड़ा लिए घर वाले खड़े थे ताकि स्नान करा के पवित्र किया जा सके व फिर प्रताड़ित कर आगे के लिए सावधान किया जा सके। बालक श्रीराम का कहना था कि ‘तुम लाख रोको मैं जाऊँगा जरूर। तब तक, जब तक कि उस बुढ़िया के घाव ठीक ठीक नहीं हो जाते। अतः गंगा जल की व्यवस्था और कर लेना क्योंकि रोज ही मुझे पवित्र करना पड़ेगा”। डाँट पड़ी तथा भोजन भी नहीं दिया गया। किन्तु बालक कच्ची मिट्टी का नहीं बना था।

वह पुनः अगले दिन गया व फिर पाँच दिन तक जब तक कि उस वृद्ध के घाव सूखकर वह चलने योग्य नहीं हो गई। इस बीच उसे घर के बाहर एक कोठरी में रहना पड़ा सभी बुजुर्गों की डाँट भरीपूरी मात्रा में सुननी पड़ी रोज गंगाजल से नहाना पड़ा जाने के मार्ग बदलने पड़े पर दूसरे की पीड़ा मिटाने का जो संकल्प लिया था वह पूरा हो कर ही रहा। संभवतः स्वयं महाकाल ने उस वृद्ध हरिजन महिला के मुँह से उसे ढेरों आशीर्वाद दिए कहा कि आगे चलकर वह एक बहुत बड़ा महात्मा बनेगा, ढेरों व्यक्तियों के हृदय का सम्राट बनेगा। हुआ भी यही। बीसवें दशक की उस वृद्ध माँ की आत्मा जहाँ आत्मा जहाँ भी होगी उस छोटे बालक रूपी वामन की इस अवतार लीला को देख रही होगी व सोचती होगी कि वह कितनी बड़भागी थी कि स्वयं निष्कलंक प्रज्ञावतार का प्रतिनिधि उसकी सेवा हेतु आया।

घटना छोटी है किन्तु एक बालक के अंदर विद्यमान प्रसुप्त सुसंस्कारिता की एक झलक देती है कि “आत्मवत् सर्वभूतेषु “ के बीजांकुर तो उन्हीं दिनों फूट चुके थे। उन्हीं के गाँव का एक पटवारी था-नाम था लाला हुब्बलाल। उसका आतंक ऐसा था कि जब तक सामने वाले को निचोड़ न लेता था, छोड़ता नहीं था। उसके कोप ने कई खाती पीती गृहस्थियों को धूलि में मिला दिया। बालक श्रीराम उन दिनों गाँव का मदरसा पास करके आगरा आए थे। पूरे जनपद में दौरा करने वाली एक सेवा समिति बना चुके थे जो अपाहिजों, अनाश्रितों को कम्बल, रजाइयाँ बाँटती थी। घूमते हुए एक दिन वे अपने गाँव भी पहुँच सूची बनाई। देखा तो सबसे पहला नाम उस लाला हुब्बलाल का था जो कुछ वर्ष पहले आस पास के क्षेत्र का बेताज बादशाह था किन्तु अब फालिज का शिकार हो, चिथड़ों में लिपटा भिनभिनाती मक्खियों के बीच गंदगी से सना टूटी चारपाई पर पड़ा था। दिन भर रोता था व कहता था-लोगो! देखो पाप का परिणाम देखो मुझे भगवान ने कैसा दण्ड दिया है।”

गुरुदेव युवा श्रीराम जब कंबल आदि लेकर पहुँचे तो वे लिपट कर रो पड़ें। कहने लगे लल्लू। यह क्या हुआ? भगवान मुझे कब तक सजा देगा”। गुरुदेव ने उन्हें दिलासा दी ढाढ़स बँधाया व अपनी समिति के सदस्यों सहित सभी ने उनकी खूब सेवा की। जो आदमी पास नहीं फटकते थे, उन्हें प्रेरणा दी कि “पाप से घृणा करो, पापी से नहीं”

लालाजी ने अंतिम प्रयाण तो किया पर अंत तक सब पूज्य गुरुदेव की प्रेरणा से उनकी सेवा करते रहे। यह है युगदृष्टा का, अवतार सत्ता का ममत्व से अभिपूरित समष्टि से जुड़ी महाप्राण की सत्ता का स्वरूप। ऐसे महामानवों का न कोई दुश्मन होता है, न कोई बैरी। सब उनके अपने होते हैं। अपनी जीवन यात्रा में अगणित ईर्ष्यालु व्यक्तियों ने उनके विरुद्ध दुरभिसंधियां रची होगी, न जाने क्या क्या कहा होगा पर उनने प्रत्युत्तर में कुछ नहीं कहा। स्नेह स्नेह, यही तो है ईश्वरीय सत्ता का वह अंतरंग रूप जो संतों को आत्मिक प्रगति एवं लौकिक समृद्धि के शीर्ष शिखर पर पहुँचा देता है। दुलार बाँटने व पीड़ा-पतन निवारण में जुटे रहने का जो मार्गदर्शन हमें वह दे गये हैं वह अन्यान्य उपदेशों से भी अधिक मूल्यवान व वरेण्य है।

हिमालयवासी गुरुसत्ता के मार्गदर्शन पर उन्हें बार-बार हिमालय जाना पड़ा एवं 1971 में तो अपने विशाल परिवार से प्रकारान्तर से स्थाई विदाई लेकर ही अपना कार्य क्षेत्र बदल का वे मथुरा से हरिद्वार आ गए थे। ये सारे कदम उनने अपने कोमल अन्तःकरण पर कितना कड़ा अंकुश लगाकर उठायें होंगे, इसकी कोई कल्पना कर सकता है? जिस मनुष्य तनधारी अवतारी सत्ता ने 33 वर्ष तक अपनी कार्यस्थली यमुना किनारे अवस्थित दुर्वासा ऋषि की तपस्थली गायत्री तपोभूमि को चुना, वह यदि इस दृढ़ संकल्प पर अड़ी रहें कि अब उसे वहाँ जाना ही नहीं है इसे कठोर व्यक्ति भी संभवतः अपने संकल्प से डिग जाता व एक बार अपने लगाये पौधे के विशाल वृक्ष रूपी कलेवर को गायत्री तपोभूमि एवं गुरुदेव मथुरा-आगरा बाईपास मार्ग से शक्तिपीठों की यात्रा के दौरान चार बार गुजरे पर परिजनों के आग्रह के बावजूद पुनः तपोभूमि नहीं गये। जब कार्यभार अपने उत्तराधिकारियों को सौंप दिया व वे उसे सुचारु रूप से चला रहें है तो फिर जाने का प्रश्न कहाँ उठ खड़ा होता है? फिर जाना ऐसे व्यक्ति के लिए कोई अर्थ नहीं रखता जो अपने दिव्य चक्षुओं से सब कुछ देख रहा हो।


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