सूक्ष्म शरीर धारी देवात्मा ने प्रकाशपुँज ने पंद्रह वर्ष की आयु में ही पूज्य गुरुदेव को पूर्व जन्मों के दृश्य दिखाकर यह जतला दिया था कि पिछले अनेक जन्मों में वे साधना के कठिन मार्ग पर चलते हुए तप साधना और लोक सेवा की एक लम्बी मंजिल पार कर चुके हैं। इस जन्मे में प्रचण्ड तप आरंभ करना था उसका स्वरूप उनने बता दिया। वह था चौबीस लक्ष के चौबीस गायत्री महापुरश्चरण सम्पन्न करना और उन दिनों जौ की रोटी तथा छाछ (मट्ठा) अथवा उस न्यूनतम पर निर्वाह करना जो तप तितिक्षा की श्रेणी में आता है। समर्थता सम्पादन के लिए यह प्रचण्ड तपोबल अर्जित करना जरूरी था यह उन तीन कार्यों में से एक था जो सूक्ष्म ऋषि सत्ताओं से साक्षात्कार के बाद प्रथम हिमालय यात्रा के अवसर पर पूज्य गुरुदेव को बताये गये थे। अन्य दो कार्य थे अपना अध्ययन जारी रख लेखनी की साधना द्वारा युग संजीवनी जन जन तक पहुँचाना, विचारक्राँति का सरंजाम जुटाना तथा तीसरा कार्यक्रम था स्वतंत्रता संग्राम में एक सिपाही की तरह प्रत्यक्ष एवं पृष्ठभूमि में रहकर लड़ते रहना। प्रस्तुत पंक्तियों में उनके जीवन के प्रबलतम पुरुषार्थ गायत्री उपासना की चर्चा की जा रही है जिससे उनने पर्याप्त तप पूँजी कमाई और जी भर कर लुटाई।
मार्गदर्शक सत्ता का कथन था कि “आद्यशक्ति गायत्री के चौबीस लक्ष के चौबीस महापुरश्चरण तुम्हें सुनिश्चित रूप से इस तरह पूरे करने हैं कि दैनिक जप न्यूनाधिक करने पर कम से कम सत्रह और अधिक से अधिक चौबीस वर्ष में पूरे हो जायें”। इस निर्देश का कारण यह था कि बीच में स्वतन्त्रता संग्राम में सेनानी की भूमिका निभाने के नाते कुछ व्यक्तिक्रम साधना सम्पादन में आ सकता था। उसका पूर्वानुमान कर उनने लक्ष्य निर्धारित कर दिया व यह भी बता दिया कि बिना इस तप शक्ति की पूँजी के वे वह कार्य नहीं कर पाएंगे जिसकी कि उनके गुरु ने उनसे आकांक्षा रखी है। बड़े काम उपयुक्त समर्थता के बल पर ही पूरे होते हैं। पूज्य गुरुदेव की लिपि में आदिकाल वह निर्देश यहाँ प्रस्तुत किया जा रहा है।
“सुगन्ध और प्रकाश लुप्त हो गया वह देवसत्ता सामान्य मनुष्य के के रूप में सामने बैठी थी। वह वस्तुतः उनका सूक्ष्म शरीर था बोले “तुझ से बड़े काम कराने हैं और उसके उपयुक्त समर्थता प्रदान करनी है। इसके लिए आद्य शक्ति गायत्री के 24 लक्ष के 24 पुरश्चरण पूरे करने हैं। यह दैनिक जप न्यूनाधिक करने पर कम से कम 17 अधिक से अधिक 24 वर्ष में पूरे होने चाहिए”।
पूज्यवर की 1926 में अपने प्रकाशपुँज से भेंट वार्ता के बाद वर्षों का मूल्यांकन करें तो हम पाते हैं कि 1926, 27,28 में तो उनने अनुष्ठानक्रम पूरी तरह चलाया। 1928 के उत्तरार्ध से 1936 के उत्तरार्ध तक वे स्वतंत्रता संग्राम सेनानी के रूप में सक्रिय रहे। फिर बापू का निर्देश मिलने पर लेखनी की साधना, पूजा उपासना का नियमित क्रम 1937 से आरंभ कर 1951 तक यथावत चलाया एवं पूर्णाहुति तक उनने सारे व्रत अनुशासन उसी प्रकार निबाहे जैसा कि उनके गुरु ने उन्हें बताया था। इस बीच 1951 में वे एक बार हिमालय यात्रा पर गए जो कुछ माह की थी व पुनः बाद में 1961 में एक वर्ष के लिए दुर्गम हिमालय उनने प्रवास किया। सब कुछ अपने मार्गदर्शक के बताये निर्देशों के अनुरूप।
उत्सुकता सबके मन में रहती है कि यह तप साधना उनने किस प्रकार कब संपन्न की होगी? अलौकिक पुरुषों के अविज्ञात साधनाक्रम के विषय में यह जिज्ञासाएं उठना स्वाभाविक हैं। इस संबंध में स्वयं पूज्य गुरुदेव अपनी पुस्तक “सुनसान के सहचर” में लिखते हैं कि “हमारी 24 लक्ष महापुरश्चरण की साधना गायत्री उपासना को इतना महत्व नहीं दिया जाना चाहिए जितना कि मानसिक परिष्कार और भावनात्मक उत्कृष्टता के अभिवर्धन के प्रयत्नों को। यह माना जाना चाहिए कि यदि विचारणा और कार्य पद्धति को परिष्कृत न किया गया होता तो उपासना के कर्मकाण्ड उसी तरह निरर्थक चले जाते जिस तरह कि अनेक पूजा पत्र तक सीमित मन्त्र तन्त्रों का ताना बाना बुनते रहने वालों को नितान्त खाली हाथ रहना पड़ता है। हमारी जीवन साधना को यदि सफल माना जाय और उसमें दिखने वाली अलौकिकता को खोजा जाय तो उसका प्रधान कारण हमारी अन्तरंग और बहिरंग स्थिति के परिष्कार को ही माना जाय। पूजा उपासना को गौण माना जाय। आत्मकथा के एक अंश को लिखते का दुस्साहस करते हुए, हम एक ही तथ्य का प्रतिपादन करेंगे कि हमारा सारा मनोयोग और पुरुषार्थ आत्मशोधन में लगा है। उपासना जो बन पड़ी है उसे भी हमने भाव परिष्कार के प्रयत्नों के साथ पूरी तरह जोड़ रखा है।” (पृष्ठ 135 प्रथम संस्करण, सन् 1965)
उपरोक्त प्रसंग जिस सरलता, निश्छलता व गंभीरता के साथ उनने लिखा है उसे उनने अपने शिष्यों को भी सदैव उसी स्तर पर जीवन में उतारने का सन्देश दिया। शिष्यगण सदा ही कर्मकाण्ड जप अनुष्ठान की बारीकियाँ, गिनती आदि के बारे में पूछा करते तो उनका स्पष्ट उत्तर जिस प्रकार का होता था उसकी बानगी नीचे दिये जा रहे तीन पत्रों के नमूनों से ली जा सकती है जो उन्हीं की लिपि में यथा रूप दिये जा रहे हैं।
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(1)”तुम्हारी अनुष्ठान श्रृंखला के विवरणों से बड़ी प्रसन्नता हुई। तप ही ब्राह्मण की सच्ची सम्पत्ति है। ईश्वर के निकट पहुँचने के इन साधनों को अपनाकर मनुष्य कुछ खोता नहीं, पाता ही है। शर्त इतनी ही है कि उपासना कर्मकाण्ड प्रधान, भावविहीन न हो। भावना का परिष्कार ही वस्तुतः आत्मबल का अभिवर्धन करता है। कर्मकाण्ड उसका बाह्य उपकरण मात्र है।”
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हमारे आत्म स्वरूप, 17-8-50
आपका पत्र मिला। पढ़कर प्रसन्नता हुई। बहुत अधिक थका देने वाला जप आपके लिए उपयुक्त नहीं। गृहत्यागी लोगों के सामने अन्य कार्यक्रम नहीं होते, इसलिए वे इस प्रकार की कठोर तपश्चर्या कर सकते हैं। आप इतना ही करें जितना आसानी से हो सके। जप संख्या बढ़ाने की अपेक्षा अपनी भावना में वृद्धि करें।
शार्टकट की तलाश करने वाले एवं स्वल्प काल में ही स्वल्प श्रम से अपरिमित लाभ उठाने की अधीरता दिखाने वालों को गुरुदेव सदा ही कहा करते थे कि अध्यात्म एक नकद धर्म है जिसे मात्र आत्मशोधन की तपश्चर्या से ही प्राप्त किया जा सकता है। वस्तुतः विडम्बना और भ्रम जंजाल से भरे हुए आज के तथाकथित अध्यात्म की निरर्थकता ने जनमानस में जो अश्रद्धा और अविश्वास का माहौल बना दिया था उसके निवारण के लिए ऐसे ही आत्मबल संपन्न व्यक्ति द्वारा अपने आपको प्रयोगशाला बनाकर सिद्ध बनने का रहस्योद्घाटन जरूरी था। यही कार्य पूज्य गुरुदेव ने आजीवन किया। जादू की तरह तुर्त फुर्त चमत्कार दिखा सकें, ऐसे कर्मकाण्डों की तलाश में भटकने वालों को गुरुदेव यह बताना चाहते थे कि सिद्धियों और विभूतियों का,गरिमा और महिमा का राजमार्ग आत्मशोधन और आत्मनिर्माण की चाल से चलकर ही पूरा होता है। अध्यात्म एक क्रमबद्ध विज्ञान है, जिसका सहारा लेकर कोई भी व्यक्ति प्रत्यक्ष लाभ उठा सकता है।
पू. गुरुदेव गायत्री महामंत्र के माध्यम से ऋतम्भरा प्रज्ञा और ब्रह्मवर्चस् की साधना करते थे। इन दोनों ही तत्वों को वे अपने आत्मदेवता में समाविष्ट मानते थे। उनका मन था कि जिसने अन्तःकरण को तपोवन बना लिया व वहाँ एकनिष्ठ होकर ब्रह्म चेतना से तादात्म्य स्थापित करने का प्रयास किया, वही सच्चा साधक है।
पूज्य गुरुदेव ही साधना पद्धति को जितना समीप से, गहराई से वंदनीया माता जी ने देखा व समझा था उतना अवसर शायद ही किसी को मिला हो। वंदनीया माता जी कहा करती हैं कि गुरुदेव ने जितना कड़ा तप किया है, उतने ही दिव्य अनुदान उन्हें मिले हैं। वस्तुतः उनका सारा जीवन तपोमय रहा हैं सब कुछ साधन व कमा सकने की असीम संभावनाएं होते हुए भी जो अपनी भौतिक महत्त्वाकांक्षाओं पर कड़ा नियंत्रण लगा ले, वह सही अर्थों में जीवन संग्राम में प्रतिकूलताओं से लड़ रहा, एक जुझारू योद्धा है जिसे मात्र औरों के हित की समाज के उत्थान की ही एक मात्र आध्यात्मिक महत्त्वाकांक्षा है।
चौबीस महापुरश्चरणों के बारे में लोगों को छात्र इतनी जानकारी है कि प्रतिदिन छह से आठ घण्टा बैठकर वे 40 से 10 मालाएं गायत्री का जप प्रतिदिन करते रहे। परम सात्विक जौ की रोटी तथा छाछ पर निर्वाह करते रहे एवं अनुष्ठान काल में प्रयुक्त बंधनों-प्रतिबंधों का कठोरता से पालन करते रहे। गौ माता के गोबर में जो तिल जौ निकलता है उसे निथारकर स्वच्छ कर उससे जितना अन्न मिल जाता है उससे शरीर यात्रा चल जाती थी। तीन वर्ष तो वे नैमिषारण्य रहे जहाँ के व्यक्ति अभी भी बताते हैं कि श्रद्धालुओं द्वारा सरोवर में डाले गए चावलों को वे कपड़े की आड़ लगाकर एकत्र कर लेते थे व उतने को ही पकाकर बिना किसी मिर्च मसाले के उदरस्थ कर नित्य 5 घण्टे जल में खड़े रहकर जप किया करते थे। यह तो वह पक्ष है जो अभी तक अविज्ञात है, दृश्य है प्रत्यक्ष है पर उन दिनों प्रसिद्धि से दूर रहने के कारण वे उसे संपन्न कर सकें। चालीस वर्ष तक की आयु जो युवावस्था का चरमोत्कर्ष मानी जाती है, उनने कड़ी तप साधना में नियोजित कर दी। इस अवधि में कितनी ही बार में नियोजित कर दी। इस अवधि में कितनी ही बार निराहार रहना पड़ा, मात्र मट्ठे पर ही जीकर अपनी काया का अनिवार्य किन्तु सीमित पोषण वे करते रहे। वस्तुतः यह तो उनकी स्थूल व दृश्य साधना थी। मोटे तौर से जितना देखा जा सके, उतना ही तो समझा जा सकता है। पर वस्तुतः साधना उस क्रिया कलाप तक ही सीमित नहीं थी।
काया के कर्मकाण्डात्मक क्रिया–कलापों से बहुत आगे बढ़कर वह तो मन और प्राण की सूक्ष्म शरीर और कारण शरीर की परिधि में प्रवेश कर गई थी। अपनी पाँचों इन्द्रियों और पाँचों मन संस्थान का परिष्कार करने हेतु उनने अथक परिश्रम किया था व यह देखा था कि दसों देवताओं को विनाश के मार्ग पर एक इंच भी न गिरने दिया जाय वरन् उन्हें पवित्रता और प्रखरता के पथ पर ही अग्रसर रखा जाय। इस प्रकार अंतः को परिमार्जित कर वे पंचकोशों को जगाने में सफल हो गए, जिन्हें अनेकों अद्भुत ऋद्धि-सिद्धियों का केन्द्र माना जाता है। वस्तुतः अगणित व्यक्ति जिन्हें साधना संबंधी मार्गदर्शन देकर उनने कहीं से कहीं पहुँचा दिया तथा जिन्हें अपने तप का एक अंश देकर विभूति संपन्न बना दिया अथवा कष्ट निवारण में उनकी मदद की, इसके प्रत्यक्ष प्रमाण हैं कि वे एक ऐसे सिद्ध स्तर के साधक थे जो सतत् कमाने व पूँजी को दिल खोल कर सुपात्रों में बाँटने में ही विश्वास रखते थे। स्वयं के लिए अथवा आत्मीयों के लिए अपने निज के तपोबल का, अर्जित सम्पदा का उनने कभी उपयोग नहीं किया। वे लिखते हैं कि हमने अपने लिए व आत्मीय निकटस्थ परिजनों के लिए दवा दारु का ही प्रयोग किया हैं। वस्तुतः किसी दुखी की वेदना बाँटनी पड़ी तो सबने मिलकर बाँटी है। इतना जरूर किया कि किसी के कष्ट को मृत्यु स्तर से कम कर छोटी-मोटी दुर्घटना के रूप में टाल दिया गया। अखण्ड ज्योति के इस अंक में अन्यत्र ऐसे कई महत्वपूर्ण घटना प्रसंगों का विवरण दिया गया है जिन पर उनके जीवन काल में उनकी इच्छानुसार पर्दा ही पड़ा रहा।
पूज्य गुरुदेव यह मानते थे कि तर्क और विवेक का अंश भी अपनी चेतना का अविच्छिन्न अंग रहा है। अपने गुरु के निर्देश पर उनने गायत्री पर गहरा अनुसंधान करने की ठान ठानी और सोचा कि इस प्रयोग के समुचित सत्परिणाम होंगे तो इसके लिए अन्यान्यों को भी साहस एवं विश्वास के साथ अपनाया गया ताकि उनका निज का मन इस बात के लिए न कचोटें कि आधे अधूरे प्रयोग करने के कारण असफलता हाथ लगी। जो वैद्य रस-भस्म बनाते हैं और बेचते हैं पर उनका विधान अधूरा रहने देते हैं वे रोगी की भी हानि करते हैं और स्वयं भी अपयश के भागी बनते हैं।
इसलिए उनने एक ही निश्चय लिया कि जो करना वह पूरी रीति-नीति से परिपूर्ण आस्था के साथ किया जाय।
साधारणतया साधक अपने साधना के स्वरूपों को गोपनीय ही रहने देते हैं किन्तु गुरुदेव का जीवन तो एक खुली किताब है। उनने जो भी किया उसे लेखनी के माध्यम से जन-जन तक पहुँचा दिया। जिसे उचित समझा वाणी से समझाया व जिसे और अधिक पात्र समझा उसके रोम में वह ज्ञान समाविष्ट कर दिया। 1950 से 1961 के बीच की उनकी अखण्ड ज्योति पत्रिका गायत्री विज्ञान, गायत्री रहस्य, गायत्री के अनुभव, गायत्रीतंत्र एवं गायत्री योग नामक पाँच 200-200 पृष्ठ के ग्रंथ तथा तीन भागों में छपा गायत्री महाविज्ञान इसकी साक्षी देते हैं। बाद में विज्ञान समस्त प्रतिपादनों के साथ जोड़ कर अपनी सुबोध शैली में उनने 1977 में चार विशेषाँक अखण्ड ज्योति के प्रकाशित किये (मार्च से जून 1977) जिसमें उनने साधना विधान का निचोड़ लिखकर रख दिया। इन सबके बावजूद भी जो स्थूल में सब कुछ खोज रहा हो इसे क्या कहा जाय?