अवतारों की परम्परा एवं दशम अवतार का प्राकट्य

August 1990

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परब्रह्म की अवतार सत्ता का कार्य क्षेत्र अदृश्य जगत है। युग संतुलन तत्कालीन समुदाय को संभालने सुधारने, अनीतिकारक तत्वों को मिटाने का कार्य वह उनसे कराती है, जिनमें दैवी तत्वों का चिरसंचित बाहुल्य पाया जाता है।

जब जब जिस प्रकार की समस्याएं उत्पन्न हुई है तब असंतुलन को सही करने के लिए सूक्ष्म जगत से एक दिव्य चेतना का प्राकट्य हुआ है। अपने कौशल एवं पराक्रम से डगमगाती नाव को संभालने, विकराल भंवर प्रवाहों से उसे बचा ले जाने का लीला उपक्रम ही अवतारों का चरित्र रहा है।

सृष्टि के प्रारंभ में जब इस धरित्री पर जल ही जल था और प्राणिजगत में जलचर ही प्रधान थे तब छाई हुई अव्यवस्था को मत्स्यावतार ने संभाला था। ब्रह्मा के कमण्डलु में प्रकट हुआ एक छोटा सा मत्स्य बीज विस्तृत होते होते महामत्स्य का रूप धारण कर ब्रह्मा को सृष्टि विस्तार की प्रेरणा दे गया। तद्नुसार ही ब्रह्मा जी ने सृष्टि संरचना की व देवमानवों से सृष्टि को भर दिया।

जब जल और थल दोनों पर छोटे प्राणियों की हलचलें बढ़ीं तो तदनुरूप क्षमता रखने वाली कच्छप काया ही उस समय का संतुलन सकी। समुद्र मंथन प्रकृति दोहन का महापुरुषार्थ उन्हीं के नेतृत्व में आरम्भ हुआ। इससे निकली अगणित विभूतियों-पदार्थों ने सृष्टि विकास में अभूतपूर्व भूमिका सम्पन्न की।

हिरण्याक्ष रूपी संकीर्ण स्वार्थ परायण दैत्य द्वारा जल में समुद्र में छिपी सम्पदा को ढूँढ़ निकालने तथा आसुरी सत्ता का दमन करने का कार्य वाराह रूप ही कर सकता था। वही किया गया तथा प्रयोजन पूरा हुआ।

जब भी असुरत्व उद्धत उच्छृंखलता को पार कर जाता है तो ऐसे अवसरों पर शालीनता से काम नहीं ही चलता। तब नरसिंहों की आवश्यकता पड़ती है और उन्हीं का पराक्रम अग्रणी रहता है भगवान ने आदिम परिस्थितियाँ देखीं और नर और सिंह का समन्वय आवश्यक समझ दुष्टता के दमन, सज्जनता के संरक्षण द्वारा अपना आश्वासन पूर्ण किया।

जब संकीर्णता, संचय और उपभोग की पशु-प्रवृत्ति को उदारता में बदलने की आवश्यकता पड़ी तो उस वृत्ति को मिटाने वामन भगवान के नेतृत्व में छोटे, बौने, पिछड़े लोगों की ही आवाज बुलन्द हुई और बलि जैसे सम्पन्न व्यक्ति को विश्व हितार्थाय उदार वितरण के लिए स्वेच्छा सेे सहमत किया गया। यही वामन अवतार था।

इनके बाद के परशुराम, राम, कृष्ण व युद्ध के सभी अवतारों को लक्ष्य एक ही था-बढ़ते हुए अनाचार का, आसुरी आक्रामकता का प्रतिरोध और सदाचार का, सदाशयता का समर्थन, पोषण। परशुराम ने सामन्तवादी आधिपत्य को शस्त्र बल से निरस्त किया। क्षत्रियों का सिर काटने से तात्पर्य था, शक्ति के उन्मादी, अहंकारी छत्राधिपतियों के अहंकार का उन्मूलन। इस तरह परशु से वह कार्य सम्पन्न हुआ जो और कोई मानवी सत्ता नहीं कर सकती थी। राम ने मर्यादाओं की संस्थापना पर जोर दिया तथा धरती को निशिचर हीन कर डाला ताकि कोई वर्जनाओं की सीमा न लाँघ सके। कृष्ण नीति पुरुष थे। उनने मनुष्य में घर कर बैठी छद्म वृत्ति से विनिर्मित परिस्थितियों का शमन करने हेतु “विषस्य विषमौषधम्” का “शठे शाठ्यम” की नीति का उपाय अपनाया तथा कूटनीतिक दूरदर्शिता दिखाते हुए काँटे से काँटा निकालने के लिए टेढ़ी चाल चलकर लक्ष्य तक पहुँचने की प्रतिक्रिया संपन्न की। यह अपने युग का विलक्षण अवतार था।

जिन दिनों धर्म तंत्र में विकृतियों का समावेश हो गया, मद्य, माँस आदि के रूप में अनाचार धर्म की आड़ लेकर लोक व्यवस्था को अस्त व्यस्त करने लगा तथा धर्माडम्बरों ने जन सामान्य को दुखी कर डाला तब महात्मा बुद्ध ने सही धर्म की संस्थापना का, सज्जनों के संगठन का तथा विवेक को सर्वोपरि स्थान देने का प्रवाह जन जन में फैलाया। धम्मं शरणं गच्छामि, संघं शरणं गच्छामि, बुद्धं शरणं गच्छामि का शंखनाद ही बुद्ध का लीला संदोह है। उनके आह्वान पर छोटी सुप्रिया से लेकर अम्बपाली, आनन्द राहुल, अशोक अगणित व्यक्ति आगे आए। लाखों धर्म प्रचारक प्रव्रज्या पर निकले, संघाराम स्थापित हुए और विचार क्रांति का आलोक विश्व के कोने कोने में पहुँचा।

आज की परिस्थितियाँ तब की परिस्थितियों से भिन्न हैं। बदलती हुई परिस्थितियों में भगवान को भी आधार बदलने पड़े हैं। विश्व विकास की क्रम व्यवस्था के अनुरूप ही अवतार का स्तर एवं कार्यक्षेत्र भी विस्तृत होता चला जाता है। साधन एवं कर्म प्रधान विश्व में तो शस्त्र व साधनों के सहारे काम चल गया। आज तो चारों ओर बुद्धि तत्व की प्रधानता है। सम्पन्नता, समर्थता और कुशलता का दुर्बुद्धि जन्य दुरुपयोग ही चारों ओर दिखाई देता है। विज्ञान के विकास ने दुनिया को बहुत छोटा व विश्व मानव को एक दूसरे के समीप ला दिया है, गतिशीलता अत्यधिक बढ़ी है। ऐसी दशा में भगवान का अवतार युगान्तरीय चेतना के रूप में ही हो सकती हैं, इतनी व्यापक कि जनता न के मन को बदल सके, अन्तःकरण में सद्भावनाएं जगा सकें। तभी अनास्था से मोर्चा ले पाना संभव होगा।

बुद्ध के बुद्धिवाद का मूलभूत ढाँचा विचार क्रांति का था। पूर्वार्द्ध में धर्म चक्र प्रवर्तन हुआ था। धर्मधारणा सम्पन्न लाखों मानवों ने बुद्ध का अभियान भारत ही नहीं, भारत की सीमाओं के पार भी धर्म तंत्र के परिष्कार का आलोक फैलाया। बुद्ध का कार्य पूरा नहीं हुआ उत्तरार्ध अभी बाकी है। प्रज्ञावतार वही कार्य संपन्न कर रहा है। बुद्धि प्रधान तर्क प्रधान युग में समस्याएं भी चिन्तन प्रधान होती हैं। मान्यताओं, विचारणाओं के प्रवाह में ही सारा समाज बहता है। ऐसे समय में अवतार प्रक्रिया लोकमानस की अवांछनीयता, अनैतिकता एवं मूढ़ मान्यता को मिटाने वाली विचारक्राँति के रूप में ही इस युग की समस्याओं का समाधान कर सतयुग की वापसी कर सकती है।

परम पूज्य गुरुदेव का प्राकट्य जिस काल को हुआ उसमें सर्वाधिक आवश्यकता थी विचारों की अवाँछनीयता हटा कर सद्बुद्धि की स्थापना करना। इसी कारण इस युग का महाभारत चेतना क्षेत्र में लड़ा गया एवं गायत्री महामंत्र की प्रेरणा द्वारा सद्भाव सम्पन्न आस्थाओं के निर्माण एवं अभिवर्धन का प्रयोजन पूरा किया गया। व्यक्ति के चरित्र, चिंतन व समाज का विधान, प्रचलन क्या हो, इसका सुनिश्चित निर्धारण इस महामंत्र के विराट विस्तार द्वारा सम्पन्न हुआ है। देवसंस्कृति की जन्मदात्री, देवमाता, वेदमाता अब उनके महाप्रयाण के बाद विश्वमाता का रूप धारण करने जा रही है, इसे अगले दिनों ही देखा जा सकेगा। सुसंस्कृत समुन्नत विश्व का निर्माण इसी चिन्तन धारा की पृष्ठभूमि पर होने जा रहा है।

गायत्री जयन्ती के दिन, जिस दिन प्रजापिता ब्रह्मा के मुख से गायत्री मंत्र की ऋचाओं का उच्चारण हो मंत्र वेदों के रूप में लिपिबद्ध हुए, ही पूज्य गुरुदेव का महाप्रयाण हुआ। जिस नर तनधारी अवतारी सत्ता ने जन जन को ऋतम्भरा प्रज्ञा के चिन्तन से अनुप्राणित कर दिया, उसके लिए इससे श्रेष्ठ दिवस और क्या हो सकता था कि वह सूक्ष्मीकृत घनीभूत होने के लिए सीधा तरणतारिणी माँ गायत्री की गोद में ही जाए।

पूज्य गुरुदेव ने ऋतम्भरा प्रज्ञा अर्थात् विवेक और श्रद्धा के समुचित समावेश से जन जन के मन को परिचित कराया एवं क्षुद्रता से महानता के स्तर पर पहुँचाया। विवेक वह प्रतिपादन है जिसमें तर्क, तथ्य और दूरदर्शिता का समुचित समावेश हो। श्रद्धा उस गहन आस्था का नाम है जो उत्कृष्ट आदर्शवादिता से प्यार करना सिखाती है। विवेक जहाँ बुद्धि का उत्कृष्टतम स्तर है, श्रद्धा वहाँ अन्तःकरण की श्रेष्ठतम उपलब्धि है।

सूक्ष्मजगत में बहने वाली प्रचण्ड शक्तिधाराओं का प्रवाह ऊपर से ही शान्त व सामान्य दिखाई देता है। भीतर वह ज्वालामुखी जैसी विस्फोटक होता है तो उलटे को उलट कर, अवाँछनीयता को निरस्त कर सब कुछ बदल कर रख देता है। सूक्ष्मजगत में गतिशील इसी अगम्य विलक्षणता को अवतार कहते हैं। अवतार का प्रधान कार्य है अपने लीलाकाल में देवदूतों में, देवअंशधारी महामानवों में उच्चस्तरीय उमंगें भर देना। तत्वदर्शी इन्हीं अदृश्य हलचलों को जागृतात्माओं में हिलोरें भरती देखते हैं तो कहते हैं कि अवतार का यह प्रचण्ड आवेश असंतुलन को संतुलन में बदल कर ही रहेगा। इन दिनों भी यही हो रहा है।

पूज्य गुरुदेव ने अपनी सूक्ष्मसत्ता के मार्गदर्शन में निष्कलंक प्रज्ञावतार की भूमिका निबाही एवं एक ऐसा प्रचण्ड विचार प्रवाह विनिर्मित किया कि श्रद्धा और विवेक का संगम युगान्तरीय चेतना, युगशक्ति के रूप में उनके जीवन काल में ही प्रकट होकर के रहा। प्रस्तुत अवतार विचार प्रवाह के रूप में आया था इसलिए उसे स्थूल काया तक सीमित न मान, यह समझा जाय कि वह सत्ता सूक्ष्मीकृत, घनीभूत होकर पूरे विश्व में संव्याप्त हो गयी है व बिगड़ों की बुद्धि को ठिकाने लगाने तथा बुद्धि वालों को विवेक श्रद्धा के अवलम्बन को स्वीकारने हेतु विवश कर रही है, झकझोर रही है। जागृतात्माओं का बढ़ता परिकर व विस्तार लेती चिंतन चेतना इसका प्रमाण है। यही तो है निष्कलंक प्रज्ञावतार जिसे दशमावतार कहा गया है।


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