जब शुष्क मरुस्थल तपते हैं, बहती है मेरी निर्झरिणी। आँधी तूफान मचलते हैं, तब चलती है मेरी तरनी।
मुझको हर मौसम सावन है, हर परिवर्तन भाया रहता। आँखों में हरियाली बनकर, मेरा साजन छाया रहता।
“युग बीत गए चलते-चलते॥”
ये पंक्तियाँ पूज्य गुरुदेव की अखण्ड-ज्योति पत्रिका से उद्धृत की गयी हैं जो सन् 1953 में प्रकाशित हुई थी। लेखनी का जादूगर, शब्दों का शिल्पी, नाचते-उछलते हृदयों को झकझोरते वाक्यों की रचना करने वाला, क्या उक्ति दें इस महामानव को! समझ में नहीं आता। सरकस में देखा जाता है कि सधे हुए जानवर रिंग मास्टर के इशारे पर सारे करतब दिखाते हैं। मदारी जब जानवरों को साध लेता है तो उनसे मन चाहे करिश्मे-नाच आदि दिखा देता है। हिप्नोटिज्म के विशेषज्ञ जिसे सम्मोहित करते हैं, उससे जो कहते हैं वह करता है।
लगता है पूज्य गुरुदेव की लेखनी में वह जादू था कि वे जो चाहते थे, जैसा चाहते थे अक्षरों का गुंथन वैसा ही कर दिया करते थे। अक्षर उनके इशारे पर नाचते थे व लेखनी चिन्तन-चेतना के साथ जुड़कर माँ सरस्वती के इस वरद पुत्र के हाथ से स्पर्श होकर स्वयं को धन्य मानती थी। पूज्य गुरुदेव को सिद्ध पुरुष, अवतारी महामानव, उदात्त अंतःकरण वाला एक विशाल परिवार का अभिभावक, एक विराट संगठन का सृजन करने वाला, गायत्री व यज्ञ को जन-जन के मन-मन में स्थापित कराने वाले से लेकर एक वैज्ञानिक मनीषी, ऋषि सब कुछ माना जाता है किन्तु एक कुशल लेखनी का शिल्पी, हिन्दी साहित्य के इतिहास में एक अनूठी विधा रचने वाला अभूतपूर्व साहित्यकार वाला पक्ष ऐसा था, जो स्वयं हिन्दी जगत उनके जीवित रहते नहीं जान पाया। जब भी उनके साहित्यकार पक्ष पर शोध कार्य होगा तो यह प्रकाश में आएगा कि साहित्य की एक विलक्षण विधा का ही इस व्यक्ति के माध्यम से जन्म हो गया। हिन्दी की गरिमा गाने वाले तथाकथित बुद्धिजीवी संभवतः तब इस विराट व्यक्तित्व के प्रचुर परिमाण में लिखे गए साहित्य का मूल्याँकन करेंगे व पश्चाताप करेंगे कि उनके जीवित रहते उन पर यह कार्य क्यों नहीं सम्पन्न हो सका।
परिमाण की दृष्टि से पूज्य गुरुदेव ने बहुमुखी विषयों पर इतना कुछ लिखकर रख दिया है कि उसका विवेचन-प्रस्तुतीकरण इस लेख क्या, किसी ग्रन्थ में भी सम्भव नहीं। एक साक्षी के रूप में उनके साहित्यकार पक्ष को, शब्दों को गूँथने वाले कलाकार के रूप में दृश्यमान पक्ष को प्रस्तुत करने के लिए एक ही पुस्तक का हवाला देना काफी होगा-”सुनसान के सहचर”।
प्रस्तुत पुस्तक जैसा कि परिजन जानते हैं पूज्य गुरुदेव द्वारा अपने 1960-61 के अज्ञातवास में लिखी गयी लेख माला “साधक की डायरी के पृष्ठ”, “कोई एक” के संस्मरण तथा “सुनसान के सहचर” के रूप में अखण्ड-ज्योति के सन् 1960 व 61 के अंकों में प्रकाशित हुई थीं। इसमें उन्होंने प्रकृति व हिमालय को जितना समीप से देखा व उसका अध्ययन कर अपनी अभिव्यक्ति शब्दों के रूप में की है वह अत्यन्त भावभरी व बार-बार पढ़ने योग्य है। हरीतिमा व पहाड़, उस पर भी हिमालय से उन्हें अत्यधिक लगाव था। पूज्य गुरुदेव की मार्गदर्शक सत्ता ने उन्हें बार-बार वहीं बुलाया भी। अपनी शेष तीन बार की यात्रा में तो उन्होंने वह कार्य किया जो उन्हें सौंपा गया था-कठोर तप, सूक्ष्म मार्गदर्शक ऋषिसत्ताओं का साक्षात्कार तथा शक्ति एवं भविष्य की अपनी योजनाओं का ताना-बाना भी इन्हीं यात्राओं के दौरान उन्होंने बुना। किंतु जो संस्मरण उन्होंने अपनी कृति “सुनसान के सहचर” में लिखे हैं, वे स्वयं में अनूठे हैं। प्रकृति का यह विलक्षण स्वरूप भी हो सकता है, उससे कण-कण से महत्वपूर्ण शिक्षण इस तरह भी लिया जा सकता है, यह इस पुस्तक को पढ़ने के बाद समझ में आता है।
सैलानियों के, पर्यटन करने वालों के अनेकानेक संस्मरण छपते रहते हैं किंतु इस विलक्षण सैलानी ने जो कठोर तपस्वी भी था जिस गहराई से उस परमात्मसत्ता का अध्ययन किया है जो प्रकृति के रूप में हमारे चारों ओर संव्याप्त है व हमारी प्राणरक्षक सत्ता भी है, यह देखते ही बनती है। इसकी अनुभूतियाँ मन में उठतीं भावभरी हिलोरें जिस तरह शब्दों का आकार पाकर कागज पर उतरती चली गई, वह एक साधारण लेखक का नहीं, सैलानी का नहीं, प्रकृति प्रेमी का नहीं वरन् एक ऐसे महापुरुष का चमत्कार है जिसे मानो सरस्वती सिद्ध हो, जो प्रकृति और पुरुष के एकाकार होकर अद्वैत होने के रूप में अपना अस्तित्व परम सत्ता में ही विलय कर चुका हो तथा जो सपेरे की बीन पर साँप को लहराने की तरह अपनी भाव-संवेदनाओं से शब्द-व्यंजनाओं को नचाता हो, थिरकाता हो।
अपनी गंगोत्री-गोमुख यात्रा के दौरान पूज्य गुरुदेव ने दुर्गम हिमालय की यात्रा भी की थी। एकाकी व्यक्ति क्या प्रकृति के सान्निध्य का आनन्द ले सकता है? उत्तर है-हाँ। जब हम “सुनसान के सहचर” के पृष्ठ पलटते हैं तो लगता है जीव जगत, वनस्पति समुदाय, यह विराट अंतरिक्ष व मानव समुदाय सभी एक दूसरे के सहयोगी हैं। मानव के साथ मानव न भी हो तो सुनसान में भी वह प्रकृति का आनन्द वैसा ही लेता रह सकता हे, वैसा ही नहीं और भी अधिक अच्छी तरह, जब वह सूक्ष्म दृष्टि विकसित कर प्राकृतिक सौंदर्य में अर्थ ढूँढ़ने की कोशिश करता है।
यह गोमुख की यात्रा तब की गई थी जब गाड़ियाँ सीधी ऋषिकेश से आगे नहीं चलती थीं। ऋषिकेश से देवप्रयाग का मार्ग भी सन् 1961 में बना है। इसके बाद चट्टियों पर मुकाम करते-करते पैदल माह-डेढ़ माह में यात्री गंगोत्री तक पहुँचता था। वे लिखते हैं- “सँकरी पगडण्डी पर चलते हुए पहली बार मौत का भय हुआ। एक पैर भी इधर-उधर हो जाय तो नीचे गरजती गंगा के गर्भ में जल समाधि लेने में कुछ देर न थी। जरा बच कर चलें तो सैकड़ों फुट ऊँचा पर्वत सीधा तना खड़ा था, एक इंच भी अपनी जगह से हटने को तैयार न था। जीवन और मृत्यु के बीच डेढ़ फुट का अंतर था” . . . . “सोचता हूँ वह यात्रा तो पूरी हो गई पर यदि हम सदा मृत्यु को निकट देखते रहें तो व्यर्थ की बातों पर मन दौड़ाने वाली मृगतृष्णाओं से बच सकते हैं। जीवनकाल की यात्रा भी सँकरी पगडण्डी पर चलने के समान है, जिसमें हर कदम साध-साध कर रखना जरूरी है।”
प्रसंग छोटा सा है पर निष्कर्ष कितना महत्वपूर्ण वह भी मृत्यु के दर्शन से जोड़ता हुआ। आगे वे लिखते हैं कि “सुक्की चट्टी पर जहाँ ठहरे, वहाँ सामने ही बर्फ से ढ़की पर्वत की चोटी दिखाई दे रही थी। बर्फ पूरी तरह पिघलने से पहले ही पानी के साथ मिलकर बहने लगती थी। इसलिए झरना ऐसा लगता था मानो फेनदार दूध ही ऊपर से बहता चला आ रहा हो। शोभायमान दृश्य को देख-देख कर ही आँखें ठण्डी हो रही थीं।” क्या कोई प्रकृति प्रेमी इससे अधिक सुन्दर ढंग से व्याख्या कर सकता है एक प्रपात की! दो बच्चे वहीं बैठे थे जो यात्रियों के थे। उनकी बहस गुरुदेव ने सुनी कि बच्ची कह रही थी कि यह पहाड़ चाँदी का है। दूसरे का कहना था कि नहीं इतनी चाँदी कोई खुली नहीं छोड़ सकता। पूज्यवर ने उनका समाधान किया व अपनी मनोरंजक शैली में समझाया कि पहाड़ पर बर्फ जमती है। इसके बाद वे आत्मविश्लेषण करके कहते हैं कि “क्या बड़े हो जाने पर भी आदमी समझदार हो पाता है? जैसे ये दोनों बच्चे बर्फ जैसी मामूली चीज को चाँदी समझ रहे थे उसी प्रकार चाँदी-ताँबे के टुकड़ों को, इन्द्रिय छेदों पर मचलने वाली खुजली को, नगण्य अहंकार को, तुच्छ शरीर को बड़ी आयु का मनुष्य न जाने कितना अधिक महत्व दे डालता है और जीवन लक्ष्य को भुलाकर भविष्य को अंधकारमय बना डालता है।”
कितना सुन्दर तात्विक पर्यवेक्षण है आज के मनुष्य का जिसे साँसारिक सुखों में ही रस आता है। सुनसान में बैठा एक चिन्तक, मनीषी चिन्तन भी कर रहा है तो मानवी स्वभाव का व कैसे उसके संकीर्ण स्वार्थपरता को ऊर्ध्वगामी मोड़ दिया जाय, इस बात का। आगे वे पीली मक्खियों द्वारा काटे जाने पर लिखते हैं कि “वे तो नन्हे-नन्हे डंक मार कर आधा मील पीछा करके वापस लौट गई पर मनुष्य की अधिकार लिप्सा, स्वार्थपरता और अहंकार से उद्धत होकर किये जाने वाले आक्रमणों की भयंकरता जब सोचता हूँ तो बेचारी पीली मक्खियों को बुरा-भला कहने में जीभ सकुचाने लगती है।”
ठण्डे पहाड़ों में गरम पानी के सोतों व उनसे मिलने वाली ताजगी को लक्ष्य करके पूज्य गुरुदेव लिखते हैं कि “ठण्डे स्नान से खिन्न व्यक्तियों को गरम जल से स्नान कराने की सुविधा और आवश्यकता का ध्यान रखते हुए संभव है पर्वत ने अपने भीतरी बची बहुत थोड़ी सी गर्मी को बाहर निकाल कर रख दिया हो। पर्वत सोचता होगा जब सारा ही ठण्डा हो चला तो इस थोड़ी सी गर्मी को ही बचाकर क्या करूंगा? इसे भी क्यों न जरूरतमंदों को दे डालूँ।” कितना अद्भुत विश्लेषण है गंधक के इन उष्ण सोतों की ठण्डे हिम से ढके पहाड़ों में उपस्थिति का? इसे वे आत्मदानी पर्वत कहते हैं मानव मात्र को प्रेरणा देते हुए कहते हैं कि जो भी शक्ति अपने पास हो उसे जनहित में लगाकर इन तप्त कुण्डों का सा आदर्श उपस्थित करें।
मार्ग में आगे चलकर एक पहाड़ मिलता है जिसके नरम पत्थरों से पानी धीरे-धीरे बूँद की तरह टपक रहा था। काई लगी होने से जैसे रोने से आँख में कीचड़ आ जाती है ऐसी कुछ कल्पना पूज्य गुरुदेव के मन ने की व वे यही सोचकर अपनी लेखनी चला बैठे। “पर्वतराज! तुम इतनी वन श्री से लदे हो, तुम्हें किस बात की चिन्ता! तुम्हें रुलाई क्यों आती है?” उनकी कल्पना के प्रश्न का पर्वत उत्तर देता है “मेरे दिल का दर्द तुम्हें क्या मालूम। मैं बड़ा हूँ, ऊँचा हूँ, वन श्री से लदा हूँ पर निष्क्रिय हूँ। यह जीवन भी कोई जीवन हैं और लोग संसार की सेवा में अपने पुरुषार्थ का परिचय देकर अपना नाम इतिहास में अमर कर रहे हैं। पर एक मैं हूँ, जो अपना वैभव अपने तक ही समेटे बैठा हूँ। इस आत्मग्लानि से ही मुझे रुलाई आती ही।” लेखक की, चिन्तक की, मनीषी की कल्पनाशक्ति दौड़ी भी तो कहाँ तक व शब्दों ने जो अभिव्यक्ति दी, वह भी ऐसी अनूठी!
गोमुख के मार्ग पर हिम पर्वत से ऊपर गिर रही जलधारा, जो नीचे प्रकृति द्वारा निर्मित शिवलिंगों पर गिर रही थी, एवं इधर-उधर छिटक रही थी, को देखकर वे उसे प्रकृति का रुद्राभिषेक कहकर उस नयनाभिराम दृश्य को अपलक देखते ही रहते हैं। फिर लिखते हैं-”सौंदर्य आत्मा की प्यास है पर वह कृत्रिमता की कीचड़ में उपलब्ध होना कहाँ संभव है? इन, वन-पर्वतों के चित्र बनाकर लोग अपने घरों में टाँगते हैं और उसी से संतोष कर लेते हैं पर प्रकृति की गोदी में जो सौंदर्य का निर्झर बह रहा है उसकी ओर कोई आँख उठाकर भी नहीं देखता . . . जी करता है इस अनन्य सौंदर्य राशि में अपने आपको खो क्यों न दिया जाय?”
प्रकृति में सौंदर्य का दर्शन करने वाला एक कोतन हृदय वाला कवि भी ऐसा मार्मिक चित्रण नहीं कर सकता, जो इस महाकाल की अंशधर सत्ता ने यहाँ किया है।
मील का पत्थर एक सुनिश्चित दूरी बताता है कि कितनी पार कर ली व कितनी शेष है। क्या यह जड़ पाषाण भी प्रेरणा स्रोत बन सकता है? कल्पना करने वाले लेखनी के धनी मनीषी के लिए कुछ कठिन नहीं। वे लिखते हैं कि-”मील का पत्थर अपने आप में तुच्छ है पर एक निश्चित व नियत कर्तव्य को लेकर यथा स्थान जम गया है। हटने की सोचता तक नहीं। . . . जब यह जरा सा पत्थर का टुकड़ा मार्गदर्शन कर सकता है तो क्या सेवाभावी मनुष्य को इसलिए चुप बैठना चाहिए कि उसकी विद्या कम है, बुद्धि कम है, सामर्थ्य कम है, योग्यता कम है? . . . हममें से कितने ही ऐसे हैं जो जनसेवा कर सकते हैं पर उपयुक्त क्षेत्र में आत्मविश्वास संजोकर अड़ जाने की निष्ठा हो तभी तो हमारी उपयोगिता को सार्थक होने का अवसर मिले।”
सेवा साधना को ही सब कुछ मानने वाले पूज्य गुरुदेव ने प्रेरणापुँज के रूप में मील के पत्थर को भी एक मान्यता प्रदान कर अपनी कल्पना को ऐसा रूप दिया कि पढ़ने वालों को सहज ही लगने लगे कि क्या वास्तव में हम कहीं उपयोगी नहीं हो सकते?
आगे वे लिखते हैं कि-”बड़ी आशा के साथ लिए हुए जूतों काट खाया। जिन पैरों पर बहुत भरोसा था उनने भी दाँत दिखा दिए, पर वे पैसे की लाठी इतनी काम आई की कृतज्ञता से इसका गुणानुवाद गाते रहने को जी चाहता है। अपनों ने साथ नहीं दिया पर पराई लगने वाली लाठी ने वफादारी दिखाई। चेहरा यही सोचकर प्रसन्नता से खिल गया।”
कहाँ तक वर्णन किया जाय, लेखनी की इस अनूठी विधा का जिसके माध्यम से छोटे-छोटे जड़ माध्यमों से भी वे प्रेरणा प्रसंग निकाल लेते हैं, जीवन दर्शन पर उड़ती हुई एक दृष्टि डाल लेते हैं एवं उन सभी प्रसंगों पर प्रकाश डालने लगते हैं जिन्हें सामान्यतः हम सभी उपेक्षा में डाले रहते हैं। मनुष्य की जीवन जीने की शैली क्या होनी चाहिए, इसकी प्रेरणा “सुनसान के सहचर” पुस्तक के ये छोटे-छोटे प्रसंग देते हैं। प्रकृति का सौंदर्य, तत्वदर्शन की गहन मीमांसा, लोकव्यवहार, सही व विधेयात्मक चिन्तन, एकाकी चलते हुए भी कभी भयभीत न हो प्रकृति से अपना साहचर्य जोड़ते रहना, यही सब शिक्षण शब्दों के माध्यम से इस खूबी से इस मनीषी ने गूँथा है कि बार-बार कलम को चूमने का मन करता है।
लेखन की यह विधा स्वयं में निराली है व आने वालों वर्षों में अगणित लेखनी के विद्यार्थियों को, साहित्यकारों को प्रेरणा देती रहेगी कि कल्पना के लिए मूड बनाना जरूरी नहीं, कहीं से भी प्रेरणा लेते हुए लोकशिक्षण पर दृष्टि रखकर ऐसा कुछ लिखा जा सकता है जिसे पढ़कर मार्गदर्शन मिले, चिन्तन प्रक्रिया को नूतन प्राण मिले।