सहस्र कुण्डीय महायज्ञ (Kahani)

August 1990

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भाव नगर के एक सज्जन ने मथुरा यात्रा के दौरान उनका नाम सुना। वे उनसे मिलने आये। 1940-49 का समय था। अखण्ड-ज्योति हाथ के कागज से छपने के बाद कुछ ही दिन पूर्व अखबारी कागज पर छपने की स्थिति में आई थी। आर्थिक संकट यथावत था।

उन सज्जन से उनने उनकी सारी समस्याएँ सुनीं। फिर साथ विश्राम घाट तक बात करते चले गए। यमुना किनारे बैठकर आत्मीयतापूर्वक उनके कंधे पर हाथ रखते हुए उन्हें आश्वासन दिया कि वे उनके दुःख कष्ट में हमेशा साथ रहेंगे। भावविभोर उस व्यक्ति ने श्रद्धापूर्वक इक्यावन रुपये उनको भेंट किए व इजाजत माँगी। उनने कहा कुछ देर और कष्ट करना पड़ेगा क्योंकि श्रद्धाँजलि की रसीद तो लेनी ही पड़ेगी। साथ लेकर लौटे व कपड़ों की मण्डी जा पहुँचे। इक्यावन रुपये में चार सौ रुई की बण्डियाँ खरीदीं। कुछ उनके सिर पर रखीं, कुछ अपने व रास्ते में सड़क पर ठण्ड में ठिठुर रहे निराश्रितों को बाँटते चले गये। श्रद्धाँजलि की पावती इस रूप में मिलती देख वे सज्जन स्तब्ध थे। बोले कुछ नहीं। चरणों में सिर नवाकर चले गये। पहला अंशदान पाँच हजार रुपयों का तपोभूमि निर्माण के निमित्त उन्हीं ने भेजा था। यह थी उनकी अपनत्व की सम्मोहन शक्ति जिसने अनगिनत विभिन्न वर्ग के व्यक्तियों को उनकी प्रामाणिकता के आधार पर उनसे स्नेह सूत्रों में बाँध दिया।

स्वयं सेवक वह, जो सेवा में स्वयं को तिल-तिल गला सकें। अपने को इस कसौटी पर सोलह आना खरा साबित किया गुरुदेव ने। घटना स्वतंत्रता संग्राम से पूर्व की है। डॉ. केसकर जो बाद में भारत सरकार में सूचना प्रसारण मंत्री हुए। उन दिनों काँग्रेस के दिग्गजों में गिने जाते थे। उन्होंने पालीवाल जी से अपनी सेवा सहायता के लिए एक स्वयं सेवक की मांग कीं। उन्होंने अपने विश्वस्त स्वयं सेवक 98, 19 वर्ष के तरुण श्रीराम की नियुक्ति कर दी। वह प्रसन्नतापूर्वक उनकी सेवा में लग गये। खाना बनाने, कपड़े धोने, साफ-सफाई जैसे अनेकों काम करने पड़ते। साथ ही अपनी साधना स्वाध्याय प्रेस का काम तो था ही। इन सबके बावजूद न कोई उनकी शिकवा शिकायत थी और न असुविधाओं का रोना। उनकी इस अद्भुत जीवन शैली-अपूर्व कर्मठता ने केसकर जी को दंग कर दिया। सहस्र कुण्डीय महायज्ञ में वही केसकर जी जब तीस वर्ष बाद आए तो उन्होंने सभी के सामने उनके चरण स्पर्श किए।


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