सन् 1988 की सर्दियाँ शुरू हो चुकी थीं। नवम्बर महीने का प्रसंग हैं। वह अपनी कमरे मैं बिस्तर पर लेटे हुए दर्शन सम्बन्धी किसी दुरूह तथ्य का खुलासा कर रहे थे। सुन रहे शिष्य ने कौतूहल वश पूछा। “गुरुजी! आप मरेंगे तो नहीं सदा हमारे बीच रहेंगे न। मूर्खता पर हँसते हुए बोले “मेरा मरना कैसा? मैं शाश्वत हूँ बेटा। फिर तनिक रुक कर कुर्ते का एक सिरा उठाकर कहने लगे जहाँ तक इस शरीर की बात है एक झटके में इस कुर्ते की तरह उतार कर फेंक दूँगा।
“फिर तो आप हमसे दूर चले जायेंगे। उसने फिर जिज्ञासा व्यक्त की। “न मुझे कहीं नहीं जाना है मैं इसी शान्ति कुँज में रहूँगा। पहले से भी अधिक सबसे निकट। बस मेरी चेतना की अनुभूति के लिए तनिक संवेदनशीलता बढ़ाने की जरूरत है।” आज जबकि उन्होंने अपना शरीर कुर्ते की तरह उतार कर फेंक दिया है। याद आते हैं शिष्य समुदाय को उनके शब्द “मैं शाश्वत मैं पहले से अधिक सघन हो संव्याप्त हैं।