यज्ञमय जीवन जीने के महान संदेशवाहक भला इस वेद विश्रुत यज्ञ से कैसे चूकते। युग निर्माण योजना की स्थापना के अवसर पर उन्होंने वंदनीया माताजी के सारे जेवर, धन संस्था को दे दिया। बाद के दिनों में अपने हिस्से की पैतृक संपत्ति स्वयं द्वारा संस्थापित इण्टर कॉलेज को दे दी। जहाँ कहीं जो कुछ भी उनका निजी कहा जा सकता था, सब कुछ सर्वहित में अर्पण करके कलिकाल में विश्वजित यज्ञ की महिमा को पुनर्जीवित कर गए। अंतिम समय में उनके पास अपना कहने को दो रुपये का डॉटपेन व एक चश्मा भर था।
अखण्ड ज्योति पत्रिका का सम्पादन परोक्ष रूप से उनने प्रारंभ से अंत तक किया था किंतु 1971 के याद यह दायित्व दूसरों के कन्धों पर डालकर अपनी लेखनी अंत तक चालू रखी। जब पत्रिका सहयोगियों के सम्पादन द्वारा प्रकाशित होती थी तो प्रारंभ के कुछ वर्षों में तो वे उसे डिस्पेच होने से पहले देखते, किंतु 1982 के बाद वे भेज देने का निर्देश देकर उसकी समीक्षा छपकर आने के बाद करते थे। कभी कोई गूढ़ वैज्ञानिक विवेचना वाला लेख प्रकाशित होता तो वे बड़े प्यार से उस कार्यकर्ता को पास में बिठाकर समझाते कि-यदि तुम स्वयं अपने बच्चे को यह बात समझा रहे होते तो क्या इतनी क्लिष्ट भाषा में लिखते? लिखते समय ध्यान रखा करो कि एक छठी-सातवीं कक्षा का विज्ञान का छात्र तुम्हारा पाठक है व तुम उसे संबोधित कर रहे हो। फिर ऐसी विशद वैज्ञानिक क्लिष्टता से भरा विवेचन तुम्हारी लेखनी से नहीं लिखते बनेगा।” वे एक शिल्पी थे, जिनने अनेकों को कलम पकड़कर लिखना सिखाया, उन्हीं से युग साहित्य भी लिखवा लिया व उन्हें सम्पादन का श्रेय भी दिया।