बाल्यावस्था से प्रस्फुटित साधना के बीजाँकुर

August 1990

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शैशवकाल से ही परम पूज्य गुरुदेव के उस साधक स्वरूप के बीजांकुर प्रस्फुटित होते दीखते हैं जिनके कारण उन्हें दिव्य मार्गदर्शक सत्ता को आमंत्रण देने योग्य समर्थता प्राप्त हुई, पात्रता अर्जित कर ली गई। इस वर्ष की आयु से ही यह ऊहापोह मन में चलता रहा है कि “साधना से सिद्धि’ का सिद्धान्त सही है या गलत। इसका परीक्षण उनने स्वयं पर किया। सारे सुयोग वैसे ही बनते चले गये एवं संकल्प को प्रयास रूप में परिणत होने का योग भी मिल गया।

गुरुदेव के पिताश्री संस्कृत के उद्भट विद्वान थे एवं महामना मालवीय जी के सहपाठी थे, घनिष्ठ मित्र भी। यज्ञोपवीत संस्कार कराते समय उनने कई उपदेश दिए जो उन्हें सतत् याद रहे। वे उन्हें चिन्तन के लिए उद्वेलित करते रहे। उनने कहा था-”गायत्री ब्राह्मण की कामधेनु है। वह अभीष्ट फल प्रदान करे इसके लिए श्रद्धा, प्रज्ञा और निष्ठा का अवलम्बन लेना जरूरी है”। बात याद तो हो गई पर दो बातें समझ में नहीं आई। एक यह कि- “ब्राह्मण बनने के लिए क्या करना होगा” क्योंकि बताया यह गया था कि गायत्री ब्राह्मण परिवार में ही जन्मे थे, फिर वे तो ब्राह्मण परिवार में ही जन्मे थे, फिर वे तो ब्राह्मणोचित नित्यकर्म भी पिता द्वारा दिये गये प्रशिक्षणानुसार बचपन से ही सीखते व करते आ रहे थे। ऐसी दशा में पुनः ब्राह्मणोचित नित्यकर्म भी पिता द्वारा दिये गये प्रशिक्षणानुसार बचपन से ही सीखते व करते आ रहे थे। ऐसी दशा में पुनः ब्राह्मण बनने का प्रश्न कहाँ उठता है?

दूसरा प्रश्न दिमाग में उठा कि “श्रद्धा, प्रज्ञा, निष्ठा का अवलम्बन लेना जरूरी है” इसका क्या तात्पर्य हुआ? बनारस से आगरा लौटते हुए रेल में जितना भी अक्सर मिला वे अपने पिता जी से इन्हीं दो बातों के संबंध में कुरेद-कुरेद कर पूछते रहे। उनने बाल जिज्ञासा का समाधान इस प्रकार किया। जिसे दस वर्ष की बालबुद्धि भी भली प्रकार समझ सके!जो नहीं समझ में आया उसे उनने दुबारा पूछा। उनने बताया जो वे चाहते थे।

संस्कृत के प्रकांड विद्वान व सरस अन्तःकरण वाले पिता ने बालक की हर शंका का समाधान कर साधना के प्रति न केवल रुचि जगा दी अपितु गायत्री का मर्म समझाते हुए यज्ञोपवीत संस्कार की सार्थकता को उनके रोम-रोम में पिरो दिया। गायत्री ही जिनका आगे चल कर इष्ट बनी एवं करोड़ों व्यक्तियों से जिनने गायत्री साधना करवा ली, ऐसे श्री राम के पिता ने सच्चे मार्गदर्शक की वह भरी भूमिका निभाई जो गुरु के साक्षात्कार से पहले संपन्न होनी ही थी।

पूज्य गुरुदेव के पिताजी ने कहा कि गायत्री कामधेनु है, इसका तात्पर्य यह है कि वह मनुष्य की समस्त मंत्रों का बीज है, प्रमुख है, वेदमाता हैं। सभी देवताओं, ऋषिगणों, ब्राह्मणों और उपासना परायण महापुरुषों ने इसी का अवलम्बन लिया है। यज्ञोपवीत उसी की दिव्य प्रेरणाओं का सार संक्षेप प्रतीक रूप में पहनाया जाता है ताकि साक्षात गायत्री माता कंधे पर, छाती पर, कलेजे पर, पीठ पर हर समय विराजमान होने के कारण उस तत्व ज्ञान को समझाती रहें जिससे वे फलित होती हैं और साधक अपनी पात्रता बढ़ाता हुआ सच्चे अर्थों में ब्राह्मण बनता है।

सच्चे अर्थों में और झूठे अर्थों में ब्राह्मण होने की बात गुरुदेव को पिताजी द्वारा इस प्रकार समझाई गई कि वंश परम्परा से ब्राह्मण कुल में जन्म लेने से तो वंशानुक्रम प्रभाव होता है, किन्तु श्रद्धा, प्रज्ञा, और निष्ठा की मनोभूमि बन जाने से किसी भी वंश में जन्मा हुआ व्यक्ति ब्राह्मण बन सकता है। इसके अभाव में वंश परम्परा मात्र मिट्टी के खिलौने जैसी रह जाती है।

यहाँ यह बताना प्रासंगिक होगा कि मथुरा पहुँचने पर जब पूज्य गुरुदेव ने सन् 1949 में सद्ज्ञान पुष्पमाला के अंतर्गत पुस्तकें प्रकाशित कीं तो 6 आना सीरीज में एक पुस्तक थी-”गायत्री ब्राह्मण की कामधेनु है”। पुस्तक तो लोगों ने बाद में पढ़ी शीर्षक पर अधिक आपत्ति उठायी कि क्या केवल ब्राह्मण ही गायत्री जप सकते हैं व मात्र उन्हीं को वह फलित हो सकती है? गुरुदेव ने अज्ञानग्रस्त पाठक समुदाय का गहराई से अध्ययन कर अगले संस्करण में ब्राह्मणत्व की व्याख्या पुनः नये सिरे से की व गायत्री के लिए वंश, कुल, लिंग, गोत्र, वर्ण कुछ भी बाधक नहीं बनता, यह बात विस्तार से समझाते हुए पुस्तक का नाम ही बदल दिया-”गायत्री ही कामधेनु है’ यह परिवर्तन का तत्कालीन समाज में संव्याप्त मूढ़ मान्यताओं व अज्ञान को देखते हुए उचित ही था क्योंकि फिर इस पुस्तक को ढेरों व्यक्तियों ने पढ़ा व इसके सात से भी आधिक संस्करण प्रकाशित हुए। प्रत्यक्ष कामधेनु से सिद्धियाँ प्राप्त होने की जिज्ञासा हर व्यक्ति के मन में होती हैं। इसी मनोविज्ञान के जादू ने लोगों को सम्मोहित किया व पुस्तक खूब बिकी। यह प्रसंग बिल्कुल अलग है कि उनमें से कितने सही अर्थों में ब्राह्मणत्व को प्राप्त कर गुरुदेव द्वारा गायत्री के तत्वदर्शन को आत्मसात कर पाए?

पूज्य गुरुदेव के पिताजी ने आगे और विस्तार से समझाते हुए बनारस से वापसी के मार्ग में बताया कि गायत्री को त्रिपदा-तीन चरणों वाली कहा गया है। इसी कारण उसमें तीन व्याहृतियां भी लगीं। त्रिपदा के कई अर्थ हो सकते हैं पर जो अर्थ अध्यात्म तत्वदर्शन में सही माना जाता है, उसका अभिप्राय यहीं है कि जीवन में श्रद्धा, प्रज्ञा, निष्ठा को बड़ी गहराई से उतारा जाय। पं. रूपकिशोर जो ने अपने जिज्ञासु पुत्र को मालवीय जी द्वारा बताये संकेतों-सूत्रों,को बड़े हृदयग्राही ढंग से समझाया। पूरी रेल यात्रा में इसी प्रसंग पर चर्चा होती रही। उनने कहा-” श्रद्धा “का अर्थ है परिपूर्ण विश्वास। ऐसा विश्वास जिसमें शंका-कुशल तर्क-वितर्क आदि की कोई गुंजाइश न हो। “प्रज्ञा”का अर्थ है-स्वविवेक हो सके। किसी से पूछने की कोई गुँजाइश ही न रहे। अपना आपा इतना संतुष्ट हो जाय कि मान्यता को यथार्थता के रूप में देखा जा सके। “निष्ठा”अर्थात् नियमित क्रिया, इतनी सुनिश्चित क्रिया कि उसे सर्वोपरि महत्व की माना जा सके। जिस प्रकार प्रातःकाल उठते ही कुछ खाने-पीने की इच्छा होती है, उससे भी अधिक व्याकुलता निर्धारित उपासनात्मक क्रिया-कृत्यों को करने के लिए उठे और खाया पिया तब जाय जबकि शारीरिक नित्यकर्म करने की तरह मन की मलीनता को स्वच्छ करने की तरह मन की भूख बुझाने के लिए संकल्पित साधना कृत्य पूरा कर लिया जाय”।

बालक श्रीराम पिता की मर्मस्पर्शी विवेचना को सुनते रहे कि “मनुष्य के तीन शरीर होते हैं। कारण शरीर, सूक्ष्म शरीर व स्थूल शरीर।

कारण शरीर भावनाओं का उद्गम है। यह भाव शरीर भी कहलाता है। भावना से ही पाषाण देवता बनते हैं। मीरा के गिरधर गोपाल, रामकृष्ण की काली इसीलिए चमत्कार दिखा सके कि उनके साथ साधक की श्रद्धा भावना अत्यन्त घनिष्ठतापूर्वक जुड़ी हुई थी। अध्यात्म में सारा चमत्कार श्रद्धा को है। इसीलिए महामना मालवीय जी ने कारण शरीर को बलिष्ठ बनाने का निर्देश दिया।

“प्रज्ञा सूक्ष्म शरीर में रहती है। प्रज्ञा अर्थात् हर बात में गहराई से प्रवेश कर समूची तर्क शक्ति का प्रयोग कर किसी निर्णय पर पहुँच जाना। जब विश्वास जम जाय, किसी अन्य के बहकाने-फुसलाने का कोई प्रभाव न पड़े तो समझना चाहिए कि “ऋतम्भरा प्रज्ञा”जाग पड़ी। इसके कारण विश्वास शिथिल नहीं होता व मान्यताएं नहीं डगमगाती”।

स्थूल शरीर में निष्ठा का विकास अर्थात् कार्य की नियमितता, सुव्यवस्था। शरीर का प्रत्येक अवयव इतना अभ्यस्त हो जाय कि काम को सुचारु रूप से किये बिना चैन न मिले। बिगुल बजते ही सैनिकों के ड्यूटी पर आ उपस्थित होने की तरह तत्परता हो। जिस कार्य कार्य में अनन्य निष्ठा होती है। उसमें मन न लगने, समय न मिलने जैसी बहानेबाजी की गुंजाइश नहीं रहती”।

आत्मिक प्रगति के लिए जिन तीन तत्वों का समावेश जीवन में करना पड़ता है उन्हें बड़े विस्तार से समझने पर बालक श्रीराम की जिज्ञासा अध्यात्म तत्वज्ञान के संबंध में और भी बढ़ने लगेगी। उनके पिता ने कहा कि गायत्री कामधेनु तो है ओर अमृतोपम दूध भी देती है पर उसे चारा, दाना-पानी की व्यवस्था भी चाहिए अन्यथा भूखी-प्यासी गाय से दोहनी भरकर दूध प्राप्त करने की आकांक्षा अपूर्ण ही बनी रहेगी।

स्वयं पूज्य गुरुदेव अपनी लेखनी से अपनी इस यात्रा के प्रसंग जो लिख गए हैं, उनकी ही लिपि में नीचे प्रस्तुत हैं।

“महामना मालवीय जी के सूत्रों की पिताजी ने जो व्याख्या की, वह मस्तिष्क से लेकर अन्तःकरण के कोने-कोने में समा गई। बार इस संदर्भ में और भी जिज्ञासाएँ उठती रहीं और उनका भीतर से ही समाधान होता रहा”। कितना सारगर्भित विवेचन अध्यात्म का उन्हें बाल्यकाल में ही प्राप्त हो गया था। संभवतः यज्ञोपवीत संस्कार के साथ द्विजत्व जो प्राप्त होता है, वह अन्तर्ज्ञान के रूप में पिताश्री की वाणी के माध्यम से उन्हें प्राप्त हुआ व फिर दो वर्ष बाद पिताश्री के स्वर्गवास के बद उनकी बराबर परीक्षा लेता रहा। अन्ततः पंद्रह वर्ष की आयु में उनकी पथप्रदर्शक गुरुसत्ता ढूँढ़ती हुई उनके पास पहुँच ही गई।


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