गुरुसत्ता से साक्षात्कार, आध्यात्मिक परिणय

August 1990

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दैवी सत्ता का प्राकट्य जब किसी महामानव के जीवन में होता है तो सोने में सुगन्धि का काम करता है। परोक्ष मार्गदर्शक सूक्ष्म शरीरधारी ढूँढ़ते भी उन्हें ही हैं, जिनके माध्यम से उन्हें मानव मात्र के कल्याण हेतु सारा ढाँचा विनिर्मित करना होता है। समष्टिगत चेतना का अवतरण जिस स्थूल तनधारी में होता है, फिर वह सामान्य न रह कर असामान्य अवतारी पुरुष हो जाता है। क्रिया कलाप तो उसके चर्मचक्षुओं से सामान्य ही जान पड़ते हैं किन्तु वह जो कुछ कर्तृत्व करता चला जाता है, वही उस युग की नीति का आधार बन जाता है। युग परिवर्तन ऐसी ही आत्मबल आत्माओं के बलबूते बन पड़ता है।

पूज्य गुरुदेव के बाल्यकाल में ही पन्द्रह वर्ष की आयु के बाद आए वसंतपर्व के ब्रह्ममुहूर्त में पूजा की कोठरी में एक प्रकाश पुँज प्रकट हुआ। उस दिव्य प्रकाश से सारी कोठरी जगमगा उठी। प्रकाश के मध्य एक योगी का सूक्ष्म छाया शरीर उभरा। इस प्रकाश के प्रकटीकरण की प्रक्रिया का आत्मबोध अंतःस्फुरणा, गुरुदर्शन, आत्म साक्षात्कार कुछ भी नाम जा सकता है, पर उस दिन प्रकट वह प्रकाश ही उनका मास्टर, मार्गदर्शक उनकी परोक्ष सत्ता बन गया। इसकी भौतिक रूप से व्याख्या की जाय तो इसे दुर्गम हिमालय से प्रकटी उस चिनगारी से भी जोड़ा जा सकता है जहाँ ऋषिसत्तायें सूक्ष्म शरीर में निवास करती हैं। हिमालय से विराट व्यक्तित्व वाले पूज्य गुरुदेव ने अपने आध्यात्मिक पिता के रूप में स्वयं हिमालय के उस क्षेत्र की जो उत्तराखंड क्षेत्र में स्थित है, हिमालय का हृदय कहा जाता है। यह परोक्ष चेतना पन्द्रहवें वर्ष पूरा होने के तीन माह बाद ही बसंत पर्व के दिन युवा श्रीराम के पूजा गृह में प्रकट हुई, स्थूल शरीर एक ऐसे कृशकाय सिद्धपुरुष के रूप में है जो अनादिकाल से एकाकी, मग्न, मौन, निराहार रहकर अपनी तप ऊर्जा द्वारा अपने को अधिकाधिक प्रचण्ड प्रखर बनाते चले आ रहे हैं। एक दिगंबर देहधारी हिमराशि के मध्य खड़ी दुर्बल काया-यह तो स्थूल रूप में उपलब्ध उनका एक मात्र चित्र है जो अपनी पहली हिमालय यात्रा के समय उनके आग्रह पर स्वयं पूज्य गुरुदेव को प्रकट रूप में उनने प्रदान किया यही चित्र गायत्री परिवार में दृश्य प्रतीक के रूप में उपलब्ध है। नाम है-स्वामी सर्वेश्वरानन्द किन्तु इससे भी अधिक महत्वपूर्ण है उनका सूक्ष्म अस्तित्व जिसमें वे गति, काल, दिशा से परे सतत् परिभ्रमण प्राणधारी आत्माओं को मार्गदर्शन देते दिखाई देते हैं। वे ही अपने सूक्ष्म रूप में दिव्य प्रकाश के रूप में उनके समक्ष आए एवं उनके कौतूहल को समाप्त करते हुए बोले-”हमारे तुम्हारे जन्म जन्मान्तरों के संबंध हैं। तुम्हारे पिछले जन्म एक से एक बढ़ कर रहे हैं किन्तु प्रस्तुत जीवन और भी विलक्षण है। इस जन्म में समस्त अवतारी सत्ताओं के समतुल्य पुरुषार्थ करना है, भारतीय संस्कृति के नवोन्मेष हेतु एक विशाल संगठन देवमानवों का खड़ा करना है तथा इसके लिए प्रचण्ड तप पुरुषार्थ करना है”।

पूज्य गुरुदेव के बाल्यकाल में ही पन्द्रह वर्ष की आयु के बाद आए वसंतपर्व के ब्रह्ममुहूर्त में पूजा की कोठरी में एक प्रकाश पुँज प्रकट हुआ। उस दिव्य प्रकाश से सारी कोठरी जगमगा उठी। प्रकाश के मध्य एक योगी का सूक्ष्म छाया शरीर उभरा। इस प्रकाश के प्रकटीकरण की प्रक्रिया का आत्मबोध अंतःस्फुरणा, गुरुदर्शन, आत्म साक्षात्कार कुछ भी नाम जा सकता है, पर उस दिन प्रकट वह प्रकाश ही उनका मास्टर, मार्गदर्शक उनकी परोक्षसत्ता बन गया। इसकी भौतिक रूप से व्याख्या की जाय तो इसे दुर्गम हिमालय से प्रकटी उस चिनगारी से भी जोड़ा जा सकता है जहाँ ऋषिसत्ता सूक्ष्म शरीर में निवास करती हैं। हिमालय से विराट व्यक्तित्व वाले पूज्य गुरुदेव ने अपने आध्यात्मिक पिता के रूप में स्वयं हिमालय के उस क्षेत्र की जो उत्तराखंड क्षेत्र में स्थित है, हिमालय का हृदय कहा जाता है। यह परोक्ष चेतना पन्द्रहवें वर्ष पूरा होने के तीन माह बाद ही बसंत पर्व के दिन युवा श्रीराम के पूजा गृह में प्रकट हुई, स्थूल शरीर एक ऐसे कृशकाय सिद्धपुरुष के रूप में है जो अनादिकाल से एकाकी, मग्न, मौन, निराहार रहकर अपनी तप ऊर्जा द्वारा अपने को अधिकाधिक प्रचण्ड प्रखर बनाते चले आ रहे हैं। एक दिगंबर देहधारी हिमराशि के मध्य खड़ी दुर्बल काया-यह तो स्थूल रूप में उपलब्ध उनका एक मात्र चित्र है जो अपनी पहली हिमालय यात्रा के समय उनके आग्रह पर स्वयं पूज्य गुरुदेव को प्रकट रूप में उनने प्रदान किया यही चित्र गायत्री परिवार में दृश्य प्रतीक के रूप में उपलब्ध है। नाम है-स्वामी सर्वेश्वरानन्द किन्तु इससे भी अधिक महत्वपूर्ण है उनका सूक्ष्म अस्तित्व जिसमें वे गति, काल, दिशा से परे सतत् परिभ्रमण प्राणधारी आत्माओं को मार्गदर्शन देते दिखाई देते हैं। वे ही अपने सूक्ष्म रूप में दिव्य प्रकाश के रूप में उनके समक्ष आए एवं उनके कौतूहल को समाप्त करते हुए बोले-”हमारे तुम्हारे जन्म जन्मान्तरों के संबंध हैं। तुम्हारे पिछले जन्म एक से एक बढ़ कर रहे हैं किन्तु प्रस्तुत जीवन और भी विलक्षण है। इस जन्म में समस्त अवतारी सत्ताओं के समतुल्य पुरुषार्थ करना है, भारतीय संस्कृति के नवोन्मेष हेतु एक विशाल संगठन देवमानवों का खड़ा करना है तथा इसके लिए प्रचण्ड तप पुरुष करना है”।

उनके इस असमंजस को, चिन्तन चेतना को उस सूक्ष्म शरीरधारी सत्ता ने पढ़ लिया व कहा कि “देवात्माएँ हैं, उनकी अच्छी तरह जाँच-पड़ताल करती हैं। शक्ति सम्पन्न महामानव अकारण अपनी सामर्थ्य किसी निरर्थक व्यक्ति के निमित्त नहीं गँवाते। सूक्ष्म शरीरधारी होने के नाते जो काम हम नहीं कर सकते वह स्थूल शरीर के माध्यम से तुम से कराएँगे। समय की विषमताओं को मिटाने के लिए तुम्हारा प्रयोग करेंगे। देखते में तो यों तुम्हारा दृश्य जीवन साधारण व्यक्ति के समान होगा पर कर्तृत्व सभी असाधारण होंगे। तुम से सीमित आयु में हम कई सौ वर्ष का कार्य करा लेंगे व समय आने पर तुम्हें वापस बुला लेंगे ताकि हमारी ही तरह युगसंधि वेला में प्रचण्ड पुरुषार्थ सम्पन्न कर प्रत्यक्ष शरीरधारी देवमानवों को नवयुग की पृष्ठभूमि बनाने हेतु पर्याप्त शक्ति मिले। दृश्य कर्तृत्व जो तुम्हें करना है उसके लिए पर्याप्त आत्मबल, ब्रह्मवर्चस चाहिए जो तप द्वारा ही संभव हो सकता है।

अपनी गुरुसत्ता व अपने बीच वार्तालाप के इस प्रसंग को पूज्य गुरुदेव ने स्वयं अपने निकटतम कार्यकर्ताओं से वार्तालाप के दौरान सुनाया था। जो समयानुसार प्रकाशित होना था, उसे वे समय समय पर बताते रहे। लिपिबद्ध यह अभिव्यक्ति उन्हीं की अनुभूति है। कई प्रसंग ऐसे हैं जो प्रकाशित नहीं हुए क्योंकि उन पर विराम लगा दिया गया था। अब उनके निर्देशानुसार ही उनका अनावरण किया जा रहा है। स्वयं पूज्य गुरुदेव कहते थे कि हमने मात्र जिज्ञासुओं के समाधान हेतु रामकृष्ण परमहंस, समर्थ रामदास, कबीर के रूप में संपन्न कर्तृत्व का अपनी कलम से उल्लेख किया है पर कोई उनसे स्थूल संगति न जोड़ने लगे। मात्र इन्हीं तीन बंधनों में बाँधने न लगे इन अलंकारिक विवेचनों से तात्पर्य यही है कि जो भी पहले कर्त्तृत्व बन पड़ा इन प्रकट व अप्रकट रूप से कई अवतारी सत्ताओं के द्वारा बन पड़े कार्यों के समकक्ष था व आगे जो किया जाना या इससे भी कई गुना था। “आगे जब भी हमारा मूल्याँकन किया जाएगा तो लोग समझेंगे कि हमने कितने महापुरुषों के रूप में जीवन इस अस्सी वर्ष की आयु में ही जिया है। इतना कुछ करके पहले से ही रख दिया है, सब कुछ अपनी परोक्ष सत्ता के मार्गदर्शन में कि वर्षों शोधकर्ता उसका मूल्याँकन करके स्वयं को बड़भागी मानते रहेंगे।

पूज्य गुरुदेव की इस सूक्ष्म मार्गदर्शक सत्ता के संबंध में जो हिमालयवासी है, विवरण कई ग्रन्थों में मिलते हैं। इस्लाम धर्म का एक ग्रन्थ है-”तजकर रसुल गोशिया” जो हिजरी सन् 1289 में दिल्ली के प्रसिद्ध गौस अलीशाह के परिशिष्ट श्री गुलहसन ने लिखा है। यह पुस्तक आज भी श्री दीपसिंह हिम्मतसिंह राज लौटा पो. आँकलाव गुजरात में उपलब्ध है। इस पुस्तक के पृष्ठ क्रमाँक 48 पर दादागुरु रूपी सूक्ष्म शरीर सत्ता का स्पष्ट उल्लेख है कि 150 वर्ष पूर्व श्री गुलहसन साह की मुलाकात स्वामी श्री श्रवणनाथ के माध्यम से हरिद्वार में श्री सर्वेश्वरानन्द जी से हुई थी। वे इच्छानुसार जब चाहते अपना वयोवृद्ध शरीर छोड़ कर 12 वर्ष के बालक बन जाते थे। उनके अनेकानेक दृश्य चमत्कारों का वर्णन श्री शाह ने किया है।

वस्तुतः ऐसे सन्तों की आयु का कोई अनुमान नहीं लगाया जा सकता वे चमत्कारों को देखने की ललक में आतुर सामान्य व्यक्तियों की भीड़ देख स्वयं ही सूक्ष्म शरीरधारी हो दुर्गम हिमालय प्रस्थान कर जाते हैं। मात्र समष्टिगत हित हेतु अपने सुपात्रों का चयन करने भूलोक पर आवागमन करते रहते हैं। भूख प्यास आदि लौकिक बंधनों से वे मुक्त होते हैं।

पायलट बाबा रचित ग्रन्थ “हिमालय कह रहा है” (1982) में पृष्ठ 145, 236, 571, 572, 589 पृष्ठों पर विस्तार से योगीराज श्री सर्वेश्वरानन्द जी का उल्लेख आया है। स्वयं पूज्य गुरुदेव अपनी गुरुसत्ता के दृश्य रूप के संबंध में कभी कुछ न लिखा, न कहा। अपने हर कार्य को उनके मार्गदर्शन में सम्पन्न वे मानते थे। अपने हर कार्य का उपलब्धि का श्रेय सदैव परोक्ष सत्ता को देते थे। यह विनम्रता भी हो सकती है व महामानव के रूप में उनकी श्रेय स्वयं न लेने की नीति भी। किन्तु इससे इनकार नहीं किया जा सकता कि जिस प्रकाशपुँज ने उनसे उनके जीवन के पन्द्रहवें बसंत में साक्षात्कार किया था, वह निश्चित ही उनकी गुरुसत्ता थी जो उनकी ही तलाश में थी व उस पावन दिन उनसे एकाकार हो उन्हें विलक्षण अवतारी सत्ता बना गई।

एक गायत्री परिजन की अनुभूति के माध्यम से थोड़ा स्पष्टीकरण ऊपर व्यक्त किये गये कथन का करना चाहेंगे। स्वयं गुरुदेव कहते थे कि हमारी मार्गदर्शक सत्ता सदैव हमारे साथ रहती है व हमारे आगे पायलट की तरह चलती रहती है व हमारे आगे पायलट की तरह चलती रहती है। उसी सत्ता को, जिसे हम सभी दादागुरु कहकर पुकारते हैं, देखने की जिज्ञासा गुजरात के नवसारी के श्री मगन भाई गाँधी न की। गुरुदेव ने कहा कि “मुझे देखकर मेरे ही अंदर उनकी अनुभूति कर लें। किन्तु वे जिद पर अड़े रहे। अंततः पूज्य गुरुदेव ने उत्तरकाशी में अमुक स्थान पर अमुक दिन अमुक रूप में उनके अन्न क्षेत्र में दिखाई देने की बात बताई व कहा कि इसके बाद गहराई में मत जाना। वे मन्तव्य समझ नहीं पाए उत्तरकाशी मैं बताए गये दिन वे प्रतीक्षा करते रहे। जैसी शक्ल बतायी गयी थी, उसी शक्ल के धवल केशधारी बाबा प्रकट हुए, सफेद वस्त्रों में थे, शिक्षा ली व गंगा किनारे नीचे तेजी से उतर गए। मगन भाई ने पीछा किया। उन्हें आश्चर्य हो रहा था कि इतनी तीव्रगति से चलकर वे किधर निकल गए। वे एक कंदरा के समझ खड़े चारों ओर दृष्टि दौड़ाने लगे तभी झाड़ी के पीछे से कुछ आवाज आई। पहुंचे तो देखा वे ही श्वेत केशधारी बाबा बैठे हैं। किन्तु यह क्या। जैसे ही उनने अपना स्मित मुख मण्डल मगन भाई की ओर किया वे देखकर आश्चर्य चकित रह गए कि ये तो अपने गुरुदेव स्वयं हैं पं. श्रीराम शर्मा आचार्य, जिनसे वे कोठरी में 5 दिन पूर्व मुलाकात कर सारा अता पता नोट करके लाए थे। गुरुदेव ने कहा “अब आगे से अविश्वास न करना, नहीं संत बाबाओं के पीछे भागना। इतना कहकर वे अन्तर्ध्यान हो गए।

सारी यात्रा छोड़ कर मगन भाई वापस हरिद्वार लौटे, बार-बार गुरुदेव के चरणों पर गिरकर क्षमा माँगी व कहा कि मुझ नादान को सजा दीजिए क्योंकि उसने गुरुसत्ता पर अविश्वास किया। गुरुदेव ने प्यार से समझा भर दिया समाधान हो गया।

यहाँ प्रकाश पुँज के प्रकटीकरण के बात के प्रसंग को वही छोड़ उपरोक्त विवरण इसलिए देना पड़ा कि परिजनों में चमत्कार संबंधी कई किम्वदन्तियाँ प्रचलित हैं। उन्हें विराम देने के लिए इतना ही लिखना पर्याप्त है कि गुरुसत्ता व उनकी मार्गदर्शक सत्ता का साक्षात्कार उनके आध्यात्मिक विवाह के रूप में सम्पन्न हुआ व दूध-पानी की तरह गुरु-शिष्य की सत्ता मिलकर एक हो गयी दोनों एक रूप हो गए।


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