सत्याग्रही के नाते एक जुझारू योद्धा-श्रीराम ‘मत्त’

August 1990

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पूज्य गुरुदेव ने अवतारों की परिभाषा तीन प्रकार से की है संत, सुधारक, शहीद। तीनों ही परिभाषाएं अपने में अनूठी है। एक विचित्र समन्वय यह है कि इस निष्कलंक प्रज्ञावतार में इन तीनों ही स्वरूपों का सम्मिश्रण समुचित अनुपात में मिलता। “संत हृदय नवनीत समाना” उक्ति उनके जीवन में सार्थक होती है जब हम उनके बाल्यकाल व बाद के संस्मरण, इतना बड़ा गायत्री परिवार व उसके अभिभावक के रूप में अपनी अनुभूतियाँ लुटाते उन्हें पाते है। सुधारक तो वे जन्मजात थे ही। इसकी चिनगारी तो आँवलखेड़ा में ही दिखाई देती है जब वे छुआछूत का भेदभाव दूर करने से लेकर, मेहतरानी की सेवा व उनके टोले में पूजा पाठ करने तक का उपक्रम आरंभ कर देते है।

शहीद अर्थात् लगन, निष्ठा कि देश, समाज, धर्म, कर्तव्य के प्रति अपनी कुरबानी तक दे देने की ललक। उनके मार्गदर्शक ने उन्हें अपने महाअनुष्ठान में परिस्थितियों के अनुरूप समझौता कर वर्षों में कटौती कर लेने का संकेत कर दिया था। अतः वे उनके आदेश का पालन करते हुए स्वतंत्रता संग्राम में कूद पड़े। यह युगधर्म था। हजारों स्वयं सेवकों में एक न भी जाता तो किसी का कोई क्या बिगाड़ लेता। किंतु प्रेरणा औरों को भी तो देनी थी। अतः सत्याग्रही बनने का संकल्प पूरा करने के विचार को अमली स्वरूप दिया व वे घर से भाग खड़े हुए।

जिन परिस्थितियों में वे भागे वे संभवतः औरों के साथ रही होती तो न कर पाते। वे अपनी विधवा माँ के इकलौते बेटे थे। शादी हो चुकी थी। माँ चाहती थी वे भी पुरोहिताई करें व कुछ पिता की संपत्ति में अभिवृद्धि करें। ऐसे में “काँग्रेस” रूपी मौत के कुएं में कूदना आत्मघाती कदम ही था। सभी को भय था कि वे कहीं भाग न जायें अतः घर पर ताले डाल दिये गये। वे घर से पानी भरा लोटा लेकर शौच के बहाने निकले एवं घर से 17 किलोमीटर दूर आगरा पहले उल्टी दिशा में चल कर, फिर घूमकर लौटकर लगभग 12 घंटे पैदल चलकर स्वयं सेवक भर्ती कैम्प में पहुँचे। वहाँ वे अपने मित्र जगन प्रसाद जी रावत, ठाकुर ऊधमसिंह तथा ठाकुर गंगासिंह दहू से मिले। चारों तरफ जन संपर्क का माहौल बनाया एवं सभाओं में गर्म उत्तेजक भाषण देकर नये स्वयं सेवकों की भर्ती चालू कर दी।

मार्च-अप्रैल 1931 में वीर भगत सिंह को फाँसी लगते ही देश वातावरण आक्रोश से भर उठा। “सरफरोशी की तमन्ना” वाले देश भक्तों की भीड़ से जेल भर गयी। उनमें से एक हमारे पूज्य गुरुदेव भी थे जिन्हें सब श्रीराम ‘मत्त’ के नाम से जानते थे। कुछ दिन जल का यातनाएं सहकर बाहर निकले। आंवलखेड़ा के थाना अहारान के अंतर्गत एक कस्बा था “ जारखी”।सरकार वहाँ से जुलूस निकालने पर प्रतिबन्ध लगा रखा था। तिरंगा झंडा लेकर सरकार को चुनौती देकर निकलना एक दुस्साहसी का ही काम हो सकता था। जुलूस निकला। वँदेमातरम् के नारे गँज उठे। पुलिस ने डण्डों से पिटाई चालू की। झण्डा मत्तजी के हाथों में था। बेहोश होकर वे कीचड़ में गिर गये व पुलिस पीटती चली गई। प्रातः दाँतभिची स्थिति में उनके मित्रों ने उन्हें कीचड़ के जोहड़ से निकाला। डॉक्टरों ने जब औजारों से मुँह खोला तो तिरंगे झण्डे का टुकड़ा जो डण्डे की मार से हाथ से छूट गया था व उनने मुँह से दाँतों में भींच रखा था, फँसा पाया। यह स्थिति देखकर उनकी आजादी के प्रति यह लगन व उमंगें देखकर सब आश्चर्यचकित रह गये मत्तजी नाम तब और प्रख्यात हो गया।

सत्याग्रह आँदोलन के अंतर्गत टेलीफोन के तार काटने से लेकर पुलिस थानों पर छापे मार हमले बोलने तक का कार्य उनने व उनके युवा मित्रों ने किया। अपने छह-आठ वर्ष के इस जीवन काल में गुरुदेव का “योद्धा” वाला वह रूप उभर कर आता है जिसको हम परिमार्जित प्रौढ़रूप में बाद में पण्डों से संघर्ष करते हुए सहस्रकुंडीय यज्ञ में तथा पूरे समाज में संव्याप्त अनीति से मोर्चा लेते हुए युगनिर्माण के सूत्रधार के रूप में देखते हैं। अगणित चोटें खाई हैं इस आजादी के सिपाही ने जो बिना नाम व यश की आकाँक्षा के लड़ा व एक स्वयं सेवक मात्र रहना जिसने पसन्द किया।

अपने जीवनकाल के इस अध्याय पर पूज्य गुरुदेव अपनी आत्मकथा में जो लिखते हैं, वह उनकी लिपि में ही प्रस्तुत है-

ड़ड़ड़ड़

(अनुवाद) “देश के लिए क्या किया? कितने कष्ट सहे? सौंपे गये कार्यों को कितनी खूबसूरती से निबाहा इसकी चर्चा करना यहां सर्वथा अप्रासंगिक है। उसे जानने की आवश्यकता प्रतीत होती हो तो वे उत्तर प्रदेश सरकार के सूचना विभाग द्वारा प्रकाशित आगरा संभाग के स्वतंत्रता सेनानी पुस्तक पढ़ लें उसमें ढेरों महत्वपूर्ण कार्यों के साथ हमारे नाम का उल्लेख अनेक बार हुआ है। पर यहाँ तो केवल यह देखना है कि हमारे हित में-मार्गदर्शक ने किस हित को ध्यान में रखा?”

इस आत्म विवेचना में कितना भोलापन है व यश न लेने की, आत्मस्तुति न करने की एक ऐसी वृत्ति का दर्शन होता है जो आज कही दिखाई नहीं देती। उन दिनों दो दिन जेल काटने वाले भी आज मंत्री पद की शोभा बढ़ा रहे है, देश की भूखी जनता दाने-दाने को तरसती रहे, स्वयं अपने कोठे भरे जा रहे है पर निस्पृह लोकसेवी उन दिनों भी थे, इसकी साक्षी हैं पूज्य गुरुदेव जिनने अपनी इस आठ वर्ष की तपस्या का प्रतिदान न सुविधाओं के रूप में लिया, न पद-वैभव के रूप में। ताम्रपत्र लिया तो वह भी आज से दो वर्ष पूर्व जब शासन की ओर से एक मंत्री महोदय ने स्वयं निवास स्थान पर आग्रहपूर्वक समर्पित किया। पेंशन उनने शासन के हरिजन फण्ड या प्रधानमंत्री राहत कोष में प्रतिमाह जमा कर दिये जाने का अनुरोध किया जो कृतज्ञतापूर्वक शासन ने स्वीकार कर लिया। उनके मार्गदर्शक बहादुरी का जो इम्तहान ले रहे थे उसमें वे पूरी कसौटी पर खरे उतर रहे थे।

गुरुदेव बताते थे कि इस अवधि में जेल में व जेल से बाहर अनेक प्रकृति के लोगों से मिलना हुआ। इनसे बहुत कुछ सीखने को मिला। जेल में ही लोहे के तसले की पीठ को कागज, कंकड़ को फाउन्टेन पेन व “लीडर” की एक पुरानी प्रति को पाठ्य पुस्तक बनाकर साथियों से पूछते-पूछते अंग्रेजी सीख ली। उत्तर भारत की प्रायः सभी भाषाओं का अभ्यास जेल में रहते-रहते होता रहा। कई बार जिम्मेदारी के पद सौंपने के आग्रह हुए पर सदा स्वयं सेवक ही बने रहने का अनुरोध किया। कभी किसी पद की चाह नहीं की। केसकर साहब जो बाद में प्रसारण मंत्री बने को एक स्वयं सेवक की आवश्यकता थी। पालीवाल जी ने

मत्त जी से एक ढूंढ़ कर देने को कहा। उनने स्वयं को प्रस्तुत किया व उनकी व्यक्तिगत देखभाल से लेकर आने वालों से मिलने तक, छापा मारने वाली पुलिस से उन्हें बचा कर पीछे के दरवाजे से रवाना करने व स्वयं को छद्म वेश में रख गिरफ्तारी से बचने के सारे नाटक उनने किये।

काँग्रेस उन दिनों गैरकानूनी थी। कलकत्ता में 1933 में एक बड़ा अधिवेशन होने जा रहा था। देशभर से सत्याग्रही कलकत्ता रवाना होने लगे। सरकार ने बंगाल की सीमा में प्रवेश करने के लिए बड़ी संख्या में हर जिले की सी.डी.लगा रखी थी। बर्दवान स्टेशन पर हर डिब्बे की तलाशी लेकर गिरफ्तारियां की गयीं। आगरा से चला आखिरी जत्था श्री रावत जी, गोपाल नारायण, व श्रीराम मत्त का था। तीनों ने कई रेलें बदलीं पर अन्ततः आसनसोल स्टेशन पर आगरा के ही सब इंस्पेक्टर ने पहचान कर उतार लिया व उसी जेल में बन्द कर दिया जहाँ अन्य व्यक्तियों का आगमन थोड़ी देर में होना था। ये थे महामना मदन मोहन मालवीय, स्व. जवाहर लाल नेहरू की माता स्वरूप रानी, गाँधीजी के बड़े पुत्र देवीदास गाँधी, रफी अहमद किदवई, शोभालाल गुप्त, कन्हैयालाल खादीवाला, गोपीनाथ श्रीवास्तव इत्यादि। मालवीय जी व माता स्वरूप रानी सबके साथ बच्चों जैसा व्यवहार करते। जो कुछ मिलता-मिल बाँट कर खाते। शाम को सत्याग्रहियों को कबड्डी खिलाई जाती व फिर उपदेश-परामर्श का क्रम चल पड़ता था।

एक दिन मालवीय जी ने कहा-”यदि कांग्रेस को लोकप्रिय बनाना है तो हर घर से एक मुट्ठी अनाज या एक पैसा संग्रह करना चाहिए ताकि जनता यह समझे कि काँग्रेस हमारी है।” औरों के गले यह परामर्श उतारा कि नहीं किन्तु बालक श्रीराम मत को यह सूत्र समझ में आ गया एवं युग निर्माण योजना से लेकर गायत्री परिवार खड़ा करने तक इसी सूत्र को लोक व्यवहार में उतारा गया। परिणति स्वरूप मिली अपार जन श्रद्धा व प्रत्येक की घनिष्ठ आत्मीयता। करोड़ों की पूँजी से बने इस संगठन की प्रत्येक गतिविधि के मूल में यह अंशदान की मूल वृत्ति जिन्दा है व इसी ने करोड़ों भारतीयों का इसे एक संगठन बना दिया है।

आसनसोल जेल का प्रसंग चल रहा था। वहाँ से सरकार ने सभी को छोड़ दिया व सभी कलकत्ता पहुँचे। अन्य लोग तो मंच की तरफ बढ़ गये, पूज्य गुरुदेव उत्तर प्रदेश के ग्रामीण परिकर से आये सत्याग्रहियों के जत्थे में मिल गये, सबकी कुशल पूछी व उन्हीं के साथ लौट आए। आने के बाद पुनः”सैनिक” प्रेस में कम्पोजिंग, प्रूफ रीडिंग सम्पादन का काम सँभाल लिया। कई बार प्रेस पर छापा पड़ता क्योंकि श्रीकृष्ण दत्त जी पालीवाल इसके मालिक थे व सभी सेनानी उन्हीं के पास रह रहे थे। ऐसे में नियमित रूप से संयत भाषा में सेंसर से बचाते हुए पत्र निकालने का काम एक कुशल स्तर का सम्पादक हुए पत्र निकालने का काम एक कुशल स्तर का सम्पादक कर सकता था जिसे पूज्यवर ने बखूबी किया।

इन्हीं दिनों एक क्राँतिकारी काम उनने और किया। गाँधी इर्विन समझौते के अंतर्गत एक विषय लगान बन्दी का भी था। आगरा सबसे बड़ा जिला संयुक्त प्रान्त का था। लगान बन्दी संबंधी आँकड़े पन्त जी ने नैनीताल से मंगवाये। पूज्य गुरुदेव ने अकेले गाँवों में घूम-घूम कर किसानों के नाम, रकबा लगान की रकम आदि की पूरी छान-बीन कर सारे आँकड़े तैयार किये। इतनी विस्तृत, प्रामाणिक जानकारी पंत जी के पास पहुँची तब उन्हें यह मालूम हुआ कि यह काम श्रीराम मत्त नामक एक देहाती स्वयं सेवक का है जो उनके आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा। इन्हीं आँकड़ों के आधार पर पूरे प्राँत के उन सभी देशभक्त किसानों या गाँवों का लगान माफ कर दिया गया जिनने लगान बन्दी का ऐलान किया था। स्वयं महात्मा गाँधी ने इस कार्य की प्रशंसा करते हुए कार्यकर्ताओं से कहा था कि-”कांग्रेस को कार्यकर्ता चाहिए तो इस स्तर का।” गुरुदेव के जीवनवृत्त का यह 1936 तक का प्रसंग बड़े उतार-चढ़ावों व संघर्ष भरे घटनाक्रमों से भरा है। इसका वास्तविक मूल्याँकन जब होगा तब लोग जानेंगे कि एक सर्वोच्च स्तर का धर्मोपदेशक महर्षि अरविंद की तरह ऐसा क्राँतिकारी जीवन जीता रहा व हमें इसकी जानकारी भी नहीं थी।


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