तब वह टूण्डला जेल में राजनीतिक बंदी के तौर पर थे। अवस्था कम होने के कारण जेलर ने उन्हें प्रौढ़ व्यक्तियों के साथ रखने के बजाय-किशोरों बालकों के साथ रख दिया था। इनमें से प्रायः सभी अपराधी श्रेणी के थे। वह अपने प्रेम भरे बर्ताव से उनमें बुराइयों के प्रति वितृष्णा, अच्छाइयों के प्रति अनुराग जगाने की कोशिश में लगे रहते। उद्दण्ड, आवारा कहे जाने वाले ये लड़के भी उनके अपनत्व से प्रभावित हो उनके आज्ञाकारी बनने लगे थे।
ऐसे ही एक दिन उनका शिक्षण चल रहा था। इतने में जेलर अपने साथी के साथ आया और ओट में खड़ा सुनता रहा। दानों चकित थे। मित्र ने आश्चर्यपूर्ण स्वर में जेलर से पूछा-”अरे, यह सुकरात है क्या? जेल में भी ज्ञान सिखा रहा है।” “न भी है तो आगे चल कर बन ही जायेगा,” जेलर का जवाब था। उस दिन वह इतना प्रभावित हुआ कि उन्हें बच्चों का शिक्षक नियुक्त कर दिया। यह थी उनके लोक शिक्षण की नींव। जिस पर आगे चलकर लोकशिक्षण का एक व्यापक तंत्र खड़ा हुआ।