“पाती” जो सबके पास नियमित पहुँचती थी

August 1990

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बड़े-बड़े कार्य मात्र संकल्प बल के सहारे संभव हो पाते है। अखण्ड ज्योति का प्रथम पुष्प प्रकाशित करने का दुस्साहस करने के साथ उनने सबको पत्र लिखने के अलावा एक और काम किया था, सबके पते अपने हाथ से लिखे व डाकघर तक भी उन्हें पहुँचाया। प्रथम अंक में यह भी लिखा है कि “अगला अंक हम निश्चित तिथि पर ही छपाकर तैयार रख लेंगे और रजिस्ट्रेशन नंबर आए पत्रिका भेजने में तिगुना पोस्टेज लगेगा इसलिए अगले अंक के लिए पूरी फरवरी प्रतीक्षा करनी चाहिए। यदि फिर भी नंबर न आया तो 27 फरवरी को तिगुना पोस्टेज लगाकर भी “ज्योति” अवश्य भेज देंगे।” (पृष्ठ 3 जनवरी 1940)

पाठकगण कल्पना कर सकते है कि जिसने पत्नी के गहने व अपना सब कुछ बेचकर किराये पर छपाने की कहीं किसी तरह व्यवस्था की हो, वह हर पत्रिका पर तिगुना पोस्टेज भी देने को तैयार है पर पाठकों को “ज्योति” के प्रकाश से वंचित नहीं रखना चाहता न ही वह सरकारी तंत्र से कोई समझौता ही करना चाहता है। यह संकल्प किसी साधारण मानव का नहीं हो सकता। संकल्प, केवल संकल्प वह भी एकाकी संकल्प।

पूज्य गुरुदेव ने उन्हीं दिनों अपने स्वाध्याय के आधार पर अपनी पहली पुस्तक लिखी थी “मैं क्या हूँ।” यह पुस्तक अखण्ड ज्योति कार्यालय फ्रीगंज आगरा से उसी वर्ष प्रकाशित हुई थी। इस प्रथम चिन्तन नवनीत में उनके वही विचार उभर कर आये है जिन्हें वे व्यवहार के माध्यम से सबके समक्ष प्रकट कर रहे थे। वह था अपनी प्रसुप्त संकल्प शक्ति का जागरण और आत्मदेव की आराधना, जीवन देवता की साधना के बल पर प्रचण्ड पुरुषार्थ कर दिखाना। इस पुस्तक की कुछ पंक्तियाँ देखने योग्य हैं-

“साधारण और स्वाभाविक योग का सारा रहस्य उसमें छिपा है कि आदमी आत्मस्वरूप को जानें, अपने गौरव को पहचानें, अपने अधिकार की तलाश करें और अपने पिता की अतुलित संपत्ति पर अपना हक पेश करें। यह राजमार्ग है, सीधा-सच्चा और बिना जोखिम का। यह मोटी बात हर किसी की समझ में आ जानी चाहिए कि अपनी शक्ति और औजारों की कार्यक्षमता की जानकारी और अज्ञानता, किसी भी कार्य की सफलता असफलता के लिए अत्यन्त आवश्यक है।”

अपना यही संदेश तरह तरह से भिन्न भिन्न अवसरों पर अखण्ड ज्योति व पुस्तकों के माध्यम से दोहराते हुए वे मनुष्य को ईश्वर का अंश-अविनाशी राजकुमार आत्मा परमवैभवशाली परमात्मा की विभूतिवान संतान कहकर संबोधित करते रहे।

अपनी इस पुस्तक “मैं क्या हूँ” के अंश उनने अखण्ड ज्योति पत्रिका के प्रथम वर्ष के अंकों पर स्थान स्थान पर दिए हैं। इन लेखों में उनने संकल्पशक्ति को मनोबल भी कहा है। उससे आगे प्राणबल और आत्मबल की विवेचना की है। प्राणशक्ति को वे दूसरे मनुष्यों का कायाकल्प कर देने वाली और वातावरण को बदलने में समर्थ बताते है तो आत्मबल को पारस से भी ज्यादा क्षमतावान सिद्ध करते हैं। जो लोग पूज्य गुरुदेव के संपर्क में आए हैं, वे भली भाँति जानते हैं कि उनने समय समय पर तीनों ही सामर्थ्यों का उपयोग कर मनुष्य में छिपे देवत्व को जगाने की, प्रसुप्त को उभारने की चेष्टा की। अखण्ड ज्योति का शुभारंभ उनकी इन विभिन्न शक्ति रूपों का आरंभिक परिचय ही था।

“मैं क्या हूँ” सद्ज्ञान ग्रन्थ माला का आरंभिक पुष्प था। बाद में इस श्रृंखला में कई पुस्तकें जुड़ती चली गयीं यथा-ईश्वर कौन है, कहीं है, कैसा है? आगे बढ़ने की तैयारी, मरने के बाद हमारा क्या होता है? आन्तरिक उल्लास का विकास, सफलता के तीन साधन, योग के नाम पर मायाचार, बिना औषधि के कायाकल्प इत्यादि। ये सभी पुस्तकें तब की 6 आना सीरीज के नाम से प्रख्यात हुई व जहाँ पहुँची, चमत्कार दिखाती चली गयी।इन पुस्तकों के अंश समय समय पर अखण्ड ज्योति में छपते थे। अखण्ड ज्योति के प्रथम पृष्ठ से अंत तक सारी सामग्री पूज्य गुरुदेव की लिखी होती थी पर लोकरुचि को देखते हुए वे लेखकों के कल्पित नाम भी दे दिया करते थे। कभी कभी ये नाम वास्तविक भी होते पर उस व्यक्ति की पूर्वानुमति से वह अपने ही चिन्तन को अखण्ड ज्योति के प्रथम कुछ वर्षों में विभिन्न लेखकों के नाम देते रहे। जब बाद में पत्रिका ने अपनी जड़ें गहराई से जमा लीं तो उनने नाम देने का क्रम बन्द कर दिया। पर यह सिलसिला पंद्रह वर्ष तक चला। कई बार अन्य सहयोगियों, अपने अनुयाइयों को श्रेय देने के लिए उनने उनके नाम दिए।

लेखों को पढ़ने के बाद लगता है, मानों पाठकों को निजी तौर पर संबोधित करते हुए ये लिखे गये है। एक नमूना अगस्त 1940 की पत्रिका से उद्धृत है-”हमारा विश्वास है कि अखण्ड ज्योति के पाठक कुछ न कुछ भजन पूजा, साधना, अनुष्ठान करते होंगे। वे जैसा भी कुछ अपने विश्वास के कारण करते हों करें। परंतु एक साधना को करने के लिए हम उन्हें अनुरोधपूर्वक प्रेरित करेंगे कि वह दिन-रात में से कोई भी पंद्रह मिनट का समय निकालें और एकान्त में शान्तिपूर्वक सोचें कि वे क्या हैं? वे सोचें कि क्या वे उस कर्तव्य को पूरा कर रहे हैं जो मनुष्य होने के नाते उन्हें सौंपा गया था। मन से कहिए कि वह निर्भीक सत्यवक्ता की तरह आपके अवगुण साफ साफ बताए।” यह शैली ऐसी लगती है जैसे किसी को व्यक्तिगत पत्र लिखा जा रहा हो। हर पाठक इन्हें पढ़ने के बाद ऐसा अकुलाता था कि उनके संपर्क में आने के बाद निरन्तर संपर्क बनाये रखने को उत्सुक रहता था। इस लेखनी का चमत्कार कहें या उनकी प्राणशक्ति का। पर परिजन जरूरी चिट्ठी की तरह अपनी प्रिय अखण्ड ज्योति की प्रतीक्षा हर माह करते थे।

प्रारंभ के तेरह अंक गुरुदेव ने आगरा से प्रकाशित कर अपनी सत्ता के संकेतों पर श्रीकृष्ण की जन्मभूमि मथुरा को अपना निवास स्थान बनाया। प्रकाशन की सारी व्यवस्थाएँ नये सिरे से बनाई पर पत्रिका की छपाई व डिस्पेच में एक दिन की भी नागा नहीं होने दी। प्रारंभ के कुछ अंकों में आत्मविकास शारीरिक, मानसिक स्वास्थ्य संबंधी विज्ञापन भी दिए परंतु बाद में उनने पाठकों को लिखा कि “धार्मिक और आध्यात्मिक सामग्री प्रस्तुत करने वाली पत्रिका में विज्ञापनों का कोई औचित्य नहीं। कोई इतर विषय इसमें शोभा नहीं देता। अतः हम घाटा उठाकर भी पत्रिका बराबर भेजते रहेंगे व अधिक से अधिक ठोस लेखन सामग्री भी।”


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