चीर भूमि का पेट, किया श्रम से गेहूँ उत्पन्न कहाँ चला जाता है, मेरा कष्ट उपार्जित अन्न?
मैं, मेरे पशु, सुत, जन, दारा, करते हैं उपवास। कौन हड़प जाता है, मेरी रोटी, मेरे ग्रास?
लकड़ी, अन्न, तेल, घी, सब्जी, दाल, रुई, गुड़, राव। पैदा करता, फिर भी रहता, इनका मुझे अभाव!!
यह क्या? जादू? गोरखधंधा? भूल भुलैया जाल! श्रम-जीवी भूखा; बैठा ठाला मालामाल!!
एक-एक के बाद अहो कितनी, अनन्त आपत्ति! गिरा-गिरा कर लात लगाती जगाती कोई शक्ति?
-श्रीराम ‘मत्त’
मत्त-प्रलाप