गुरुवर! “आनंद” बन गये हो (Kavita)

August 1990

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आँख से झरता नहीं जल, हृदय में धन छा रहे हैं बरसना है मना फिर भी, अतल में गहरा रहे है॥

रह गया कुछ-जो नहीं तब, सामने हम कह सके थे। आज उसको प्राण जाने क्यों, स्वतः दुहरा रहे है॥

ज्वार ही आये हृदय में, धैर्य का भाटा न बैठा। प्राण फिर भी स्मृति का, मंथन किये ही जा रहे है॥ 

इस सफर में लक्ष्य तक तुम, साथ हो प्रेरक हमारे। बस इसी विश्वास पर पग, थक नहीं ये पा रहे है॥

है हमारे हृदय घायल, दे रहे आश्वस्ति फिर भी। कर रहे हम काम, पीड़ा को सयत्न दबा रहे है॥ 

खोलकर साँकल नये युग की, चले तुम गये गुरुवर। बैठने रहने के काबिल, हम उसे करवा रहे है॥

थे सामने तो लखकर, खिलता था कमल मन में। लेकिन सुदूर जाकर, मधु गंध बन गये हो॥

सुख, दुख सभी क्षणों में, संवेदना पिलाई। ठोकर अदृश्य भी तुम, मधु छंद बन गये हो॥

थे मने तो मन यह, दर्शन ही चाहता था। प्रभु! किन्तु दूर जाकर, उरस्पंद बन गये हो॥

दस लाख साथियों के, मन-प्राण में बसे हो। कुछ महारास जैसे, नंद नंद बन गये हो॥

“सत” का सबक पढ़ाया, “चित” में हुए समाहित। रख सूक्ष्म रूप गुरु! “आनन्द” बन गये हो॥


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