समर्पण की परिणति प्रचण्ड आत्मबल

August 1990

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महान मार्गदर्शक का सर्वप्रथम अनुग्रह जो पहले दिन मिला, उसने पूज्य गुरुदेव से सम्पूर्ण समर्पण माँगा, भावी जीवन मानव मात्र के हित हेतु जीने के लिए माँगा। उनके मास्टर ने उन्हें सच्चे अर्थों में नग्न, निर्वस्त्र कर दिया। अपना कहने जैसा उनके पास कोई पदार्थ तो क्या, शरीर, मन, भावना, कामना कुछ नहीं बचा। एक अवधूत स्थिति में लाकर उन्हें छोड़े दिया गया।

पहला आदेश था चौबीस लक्ष के चौबीस गायत्री महापुरश्चरण अगले दिनों सम्पन्न करना। उनने कहा “चाहे कितनी भी प्रतिकूलताएँ आएँ, तुम्हें लक्ष्य अवश्य पूरा करना है। इस बीच कुछ समय स्वतंत्रता संग्राम में महत्वपूर्ण भूमिका निभानी पड़ सकती है, पर नियम भंग मत होने देना। जो भी समयक्षेप उधर हो उसकी पूर्ति कड़ी तपस्या करके बाद में कर लेना है ताकि इसकी पूर्ति पर तुमसे महत्वपूर्ण कार्य संपन्न कराये जा सकें। इस बीच चार बार हिमालय बुलाने की बात उनने कहीं। कभी एक वर्ष के लिए कभी कम अवधि के लिए।” हिमालय बुलाया जाना इसलिए जरूरी था कि वह सिद्ध आत्माओं की साधनास्थली है। हव ऐसा पारस है जिसका स्पर्श मात्र कर व्यक्ति तपे कुन्दन की तरह निखर जाता है।

स्थूल हिमालय तो हिमाच्छादित पहाड़ भर है जो पाकिस्तान से लेकर वर्मा की सीमा तक फैला है पर उनके गुरुदेव का आशय उस हिमालय से था जो उसका हृदय माना जाता है, उत्तराखण्ड का वह क्षेत्र जो दुर्गम है तथा यमुनोत्री ग्लेशियर से लेकर नन्दादेवी तक जिसका विस्तार है। यहीं वे ऋषि सत्ताएँ निवास करती हैं जिनका आध्यात्मिक प्रकाश अभी भी भारतीय संस्कृति के मूल्यों को जिन्दा रखे हुए है। कभी पं. मदनमोहन मालवीय जी ने बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय की स्थापना हेतु भूमिपूजन हेतु यहीं से स्वामी कृष्णश्रम जी को बुलाया था। परमहंस योगानन्द जी की पुस्तक “आटोबायोग्राफी ऑफ योगी” में लाहिड़ी महाशय के गुरु महावतार बाबा का जो उल्लेख किया गया है, वे भी यही सूक्ष्म शरीर धर कर रहते थे। थियोसोफी की संस्थापिका मैडम ब्लैवटस्की के अनुसार अदृश्य सिद्ध पुरुषों की पार्लियामेंट इसी दुर्गम क्षेत्र में है, जिसे अध्यात्म चेतना का ध्रुव केन्द्र “माना गया है यहीं सभी सूक्ष्म शरीर धारी ऋषि सत्ताएँ निवास करती है तथा यही देवताओं की क्रीड़ा स्थली भी है। पृथ्वी पर कभी स्वर्ग रहा होगा तो वह यहीं रहा होगा, ऐसे पूज्य गुरुदेव की अपनी बार-बार की हिमालय यात्रा के बाद मान्यता रही।

हिमालय निर्देश समय समय पर सूक्ष्म प्रेरणा के रूप में किये जाने की बात कह कर उस परोक्षसत्ता ने तीसरा निर्देश दिया कि जन्म जन्मान्तरों से पुण्य संग्रह करती जा रही देवसत्ताओं की पक्षधर जागृतात्माओं को संगठित कर एक माला में पिरोया जाना है। वे ही नवयुग निर्माण सतयुग की वापसी में प्रमुख भूमिका निबाहेंगी। इस के लिए उनने पूजा गृह में जल रहीं दीपक ज्योति को लक्ष्य कर “अखण्ड ज्योति” नाम से समय आने पर विचारक्राँति का सरंजाम पूरा करने वाली एक पत्रिका आरम्भ करने की बात कही व कहा कि उस दीपक को अब सतत् जलाते रहना। इसके प्रकाश से तुम्हें प्रेरणा मिलती रहेगी एवं समष्टिगत प्रवाह से वे तभी विचार प्राप्त होते रहेंगे जिनके माध्यम से अगले दिनों अध्यात्म तंत्र का परिष्कार नवयुग का सूत्रपात होना है। “अखण्ड दीपक ही समय-समय पर पर परोक्ष जगत से आने वाले दैवी मार्गदर्शन को तुम तक पहुँचायेगा, अतः जहाँ भी रखो, इसे अपने पास पूजा गृह में रखना। इसका दर्शन मात्र लोगों का कल्याण कर देगा।

चौथा मार्गदर्शन था चौबीस लक्ष के चौबीस महापुरश्चरणों की समाप्ति पर एक विशाल सहस्रकुंडीय महायज्ञ आयोजित करना ताकि दैवी सत्ता की अंशधारी आत्माएँ एक स्थान पर एकत्र हो सकें। इन्हीं में से गायत्री परिवार रूपी संगठन का बीजाँकुर उभरने व कालान्तर में वृक्ष का रूप लेने की बात वे बता गए। यह भी कह गए कि समय-समय पर वे बताते रहेंगे कि उन्हें कौन-सा कदम उठाना है? कब कहाँ स्थान परिवर्तन करना है, क्या कार्यक्रम कहाँ से आरंभ करना है। वे तो मात्र एक समर्पित शिष्य की तरह अपना कर्तव्य निबाहते रहें, शक्ति उन्हें सतत् उनके द्वारा प्राप्त होती रहेगी।

दिव्य प्रकाश धारी सत्ता ने निर्देश दिया कि जो आत्मबल का उपार्जन अगले दिनों होगा उसका नियोजन प्रतिकूलताओं से जूझने नवसृजन का आधार खड़ा करने तथा देवताओं की, ऋषियों की प्राणशक्ति का अंश लेकर जन्मी जागृतात्माओं का एक परिवार खड़ा करने के निमित्त करना है। उनका मूक निर्देश था कि “प्रस्तुत वेला परिवर्तन की है। इसमें अगणित अभावों की एक साथ पूर्ति करनी है, साथ ही एक साथ चढ़ दौड़ी अनेकानेक विपत्तियों से जूझना है। इस के लिए व्यापक स्तर पर ऋषि सत्ताओं द्वारा जो मोर्चे बन्दी पहले की जाती रही है उसकी झलक झाँकी भी तुम्हें दिखायेंगे तथा तुम्हें किस प्रकार यह सब करना है, यह भी सतत् बताते रहेंगे। आगे उन्होंने बताया कि “हम लोगों की तरह तुम्हें भी सूक्ष्म शरीर के माध्यम से अति महत्वपूर्ण कार्य करने होंगे। इसके लिए पूर्वाभ्यास हिमालय यात्रा द्वारा सम्पन्न होगा।”भौतिक दृष्टि से देखा जाय तो 15 वर्ष के किशोर को गुरुसत्ता द्वारा ऊपर दिये गये निर्देशों को घाटे का सौदा माना जाता। जो खेलने-खाने शौक मजे की उम्र है, उसमें प्रतिबन्ध किस बालक को अच्छे लगते है, उसमें प्रतिबन्ध किस बालक को अच्छे लगते है, किन्तु यही तो अन्तर होता है अवतारी सत्ताधारी महापुरुष एवं सामान्य नर तन धारी भौतिक ऐषणाओं में डूबे मनुष्य में। जो अपनी प्रसुप्त सुसंस्कारिता को जगाकर अपनी पात्रता विकसित कर लेता है स्वयं भगवान उसे ढूँढ़ने जा पहुँचते है। घुन लगा बीज तो कभी अंकुरित हो नहीं पाता, उलटे आसुरी माया के प्रपंचों में उलझकर ऐसा व्यक्ति शिश्नोदर परायण जीवन जीता स्वयं दुखी होता, दूसरों को त्रास देता जीवन यूँ ही गंवा देता है।

गुरुदेव को उनके पिता ने गायत्री रूपी कामधेनु का पयपान महामना मालवीय जी के माध्यम से करा के जो सबसे बड़ी शक्ति दी थी, वह थी ‘आत्मबल इसी को एक प्रकार से ब्रह्मवर्चस् भी कहा जा सकता है। जिसका आत्मबल विकसित हो गया उसकी आँतरिक प्रौढ़ता विकसित हो गया उसकी आँतरिक प्रौढ़ता विकसित हो जाती है, गुण-कर्म-स्वभाव का सर्वांगपूर्ण परिष्कार हो उसमें अनेक उत्कृष्टताएँ जड़ जाती हैं। इस तत्व के विकसित होते ही अनायास ही अंतःकरण से ऐसी अलौकिकताएँ फूट पड़ती है जिन्हें ऋद्धि सिद्धियों के नाम से संबोधित किया जाता रहता है।

संभवतः गुरुदेव के सूक्ष्म शरीरधारी मार्गदर्शक ने यही उचित समझा कि अपने सुयोग्य शिष्य से उसके उपासना गृह में साक्षात्कार कर उसके अंदर छिपे महामानव का, अवतारी सत्ता का उसे परिचय करा दिया जाय ताकि भविष्य में जो किया जाना है, उसके माध्यम से संपन्न होना है उसका पूरा खाका उसके दिमाग में बैठ सके। समस्त मानव जाति का व विश्व का कल्याण उन्हें जिस प्रयोजन में दिखा उसे पूरा करने प्रकाश पुँज के रूप में आए व तप साधना का आदर्श ही नहीं, अटूट विश्वास और प्रचण्ड साहस, पर्याप्त मनोबल देकर चले गए। दिव्य सत्ताओं का प्यार अनुदान भी विचित्र होता है। संभवतः यही शक्तिपात प्रक्रिया भी है।

शक्तिपात के संबंध में लोगों के मन में तरह तरह की भ्रान्तियाँ हैं। गुरु सिर पर हाथ रखता है व बिजली के प्रवाह की तरह से पूरे शरीर में करेण्ट दौड़ जाता है, गुरु की सारी शक्ति शिष्य में आ जाती है। यही कपोल कल्पित मान्यता जन सामान्य की है। कोई कहता है कि गुरु कुण्डलिनी जगाकर शिष्य को सारी शक्ति दे जाते है। उदाहरण के लिए वे रामकृष्ण-विवेकानन्द, नित्यानन्द मुक्तानन्द इत्यादि के प्रसंगों का हवाला भी देते हैं।

पर सबसे बड़ी बात जो साधारण जन समझ नहीं पाते, वह है अंतरंग की पवित्रता एवं पात्रता का विकास। मैले कपड़े पर नहीं रंग चढ़ता है? पात्र उल्टा रखा हो तो पानी उसमें कैसे भरे? खिड़कियाँ बन्द हों तो सूर्य किरणों ताप व पवन का अंदर प्रवेश कैसे हो? शिष्य जब अपना शिष्यत्व सार्थक कर देता है व गुरु यह समझ लेता है कि जो कुछ भी अनुदान दिया जा रहा है उसका दुरुपयोग नहीं होगा, समष्टि के हित हेतु ही प्रयोग होगा तो शक्ति संचार अवश्य होता हैं। किन्तु इस प्रक्रिया को इतना सुगम नहीं समझ लिया जाना चाहिए कि हम भी लाइन में लग जायें। गुरु का सिर का सिर पर हाथ भी स्पर्श स्पर्श हो गया तो निहाल हो जायेंगे।

हजारों वर्षों में कहीं एक गुरु ऐसा आता है जो शक्ति देने की पात्रता रखता है व ऐसा शिष्य पैदा होता है जो उसे संगृहीत कर उसे सुनियोजित दिशा दे सके। यदि शक्तिपात इतना सरल होता तो इतने धर्माधीशों, महामण्डलेश्वरों के रहते धर्मतंत्र इतना अशक्त मूढ़मान्यता ग्रस्त रहा होता? शक्ति संचार जब भी होता है शिष्य मुक्ति के लिए नहीं उसे कीर्ति के शिखर पर पहुँचाने के लिए नहीं अपितु उसके माध्यम से लोकहित का कर्तृत्व कराये जाने के लिए। विवेकानन्द को शक्ति बिजली के झटके के रूप में मिली कि नहीं, यह या तो स्वयं रामकृष्ण परमहंस बता सकते है या स्वामी विवेकानन्द। दोनों ने ऐसा नहीं कहा। हाँ विवेकानन्द को वास्तविक आत्मबोध, स्वयं की गरिमा का साक्षात्कार अवश्य रामकृष्ण ने करा दिया व कहा कि परोक्ष सत्ता सूक्ष्म जगत से सदैव तेरे साथ रहेंगी। वे ही तेरे से सब कार्य सिद्ध करायेंगी। विश्वधर्म सम्मेलन में संभवतः उसी सत्ता ने गेरुआ वस्त्रधारी एक रात्रि पहले रेलवे वैगन में ठिठुरकर सो रहे अकिंचन से ऐसी सारगर्भित वक्तृता करा ली कि विश्वभर में उनका डंका बज गया।

बसंत पंचमी के उस ब्रह्म मुहूर्त में गुरुदेव ने अपना तप, आत्मबल शिष्य पर उड़ेलकर उसकी चेतना को झकझोर दिया, आत्मबोध कराया एवं शिष्य ने अपना आपा, अस्तित्व ही उन्हें समर्पित कर दिया। समर्पण में स्वयं की इच्छा कैसी? जो मार्गदर्शक की इच्छा वही अपनी इच्छा। तर्क की वहाँ कोई गुँजाइश ही नहीं। कठपुतली तो बाजीगर के इशारे पर नाचती है। पोली बंशी कृष्ण के मुँह से लगी वही अलापती चली गयी जो तान छोड़ी गई। यह समर्पण ही गुरुदेव की वह सारी शक्ति सामर्थ्य दे गया जिसकी परिणति आज इतने बड़े युगान्तरकारी मिशन संगठन व विश्व व्यापी समुदाय के रूप में दिखाई देती है धन्य है वह गुरु हैं ऐसा शिष्य।

किसी भी बाह्य हलचल से बेखबर पूज्य गुरुदेव पलंग पर बैठे घुटनों पर पैड रखे लिख रहे थे। आस-पास कुछ पुस्तकें बिखरी पड़ी थी, जिन्हें कभी किसी विशेष संदर्भ की जरूरत पड़ने पर देख लेते।

अचानक उनने कलम रखी, जीभ को होठों पर फिराया। शायद प्यास अनुभव कर रहे थे। हाथ यंत्रचालित की भाँति मेज के कोने पर पहुँचा। कोने पर रखा गिलास उठा और अधरों पर जा लगा। जिह्वा ने स्वाद चखा कुछ विचित्र-सा था। मन जब तक चिन्तन की गहराइयों से उबरता, तब क्या सचमुच पानी नहीं है फिर क्या है यह? इतनी देर में मन प्रकृतिस्थ हो चुका था। गिलास को ध्यान से देखा-विश्वास हुआ यह पानी नहीं है। पर क्या है, यह नहीं सूझ रहा था। स्वाद अपरिचित जो था।

इशारे से घर के एक बालक को बुलाया पूछा-”आज पानी किसने रखा।” खोज खबर सुन माताजी स्वयं आयीं, पूरी बात स्पष्ट हुई, यह मौसमी का रस था, जो एक स्नेही शरीर शास्त्री की सलाह पर इसलिए रखा गया, ताकि अत्यधिक श्रम करने के कारण उनके शरीर स्वास्थ्य पर कोई विपरीत असर न पड़ें।

“ मौसमी का रस?” वह सकते में आ गए। कहने के ढंग से पास खड़े हुए अन्य स्वजनों के भी कान चौकन्ने हुए। बिना कुछ बोले नाली के नजदीक गए, मुंह में उंगली डाल कर उलटी की। गिलास के पानी से मुख साफ किया। स्वजनों को सम्बोधित करते हुए बोले’-”आग लगे ऐसी जिन्दगी को सम्बोधित करते हुए बोले-आग लगे ऐसी जिन्दगी में। सब कुछ त्याग कर आए कार्यकर्ताओं के बच्चों के लिए मैं दूध का इन्तजाम न कर सकूँ और स्वयं मौसमी का जूस पीऊँ। धिक्कार है ऐसे जीवन पर संवेदनशीलता उन समेत सभी की आँखों से आँसू बन कर बरस पड़ी।


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