शक्तिपीठों के उद्घाटन (Kahani)

August 1990

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मन की अनदेखी परतों में होने वाली हलचल को खुली किताब की तरह पढ़ लेना योगियों की प्रखर चेतना के ही बूते की बात है। उनमें प्रायः इसकी झलक मिलती रहती थी। बात सन 60 के दिनों की है। ग्वालियर से एक कार्यकर्ता घीया-मण्डी, मथुरा पधारे। आते ही उन्होंने निचली मंजिल के दफ्तर में सौ रुपये का अंशदान दिया, बाद में गुरु जी से मिले। कुशल वार्ता के बाद ही गुरुदेव ने उनसे भोजन के लिए आग्रह किया। भोजन का समय भी था, वह स्वयं भी खाना-खाने बैठ रहे थे।

आगन्तुक कार्यकर्ता बैठ तो गये, पर उनके मन में उथल-पुथल हो रही थी कि सौ रुपयों की रसीद तो मिली नहीं, पता नहीं गुरुदेव को मेरे इन रुपयों का पता चलेगा कि नहीं। मन में उठ रहे उनके भाव के साथ ही अपनी चर्चा रोककर वह बोल उठे-”पहले नीचे से जाकर सौ रुपये की रसीद ले आओ फिर हम दोनों आराम से भोजन करेंगे।” सुनने वाले को काटो तो खून नहीं, इस अनजानी बात को वह कैसे जान गए? झेंपते हुए वह उठा और रसीद ले आया। मन में थोड़ी ग्लानि के साथ यह विश्वास दृढ़ हो रहा था कि किसी के भी मन की गहराइयों में छिपी बातें उनके लिए स्पष्ट है।

शक्तिपीठों के उद्घाटन के समय पूज्य गुरुदेव एक परिजन के घर पहुँचे। घर में प्रवेश करते ही उन्हें सीधे उस विशाल कक्ष की ओर ले जाया गया जहाँ सभी संभ्रान्त व्यक्तियों को बिठाया जाता था। इसकी भव्यता व रौनक, सजावट देखते ही वे पलट पड़े। सहज, सरल भाव से उस परिजन से कहा-”बेटे! यहाँ मैं प्रवचन करने नहीं आया हूँ न आवभगत करवाने। मैं तो अपने बच्चों मिलने आया हूँ। क्या तुम्हारे यहाँ कोई खुली जगह नहीं है बैठने की।” इतना कहकर वे पास सटी एक छत की ओर चल दिये वहाँ कुछ लोहे के टूटे पाइप व एक पुराना तखत पड़ा था। उनने उसे बिछाने की चेष्टा की, इसी बीच हतप्रभ परिजन वे उनके परिवार के सदस्यों ने उसे बिछाकर उस पर दरी बिछा दी। एक व्यक्ति ने कूड़ा कोने में कर दिया। वहीं बैठ कर उनने सबकी कुशल-क्षेम पूछी व अपनी आत्मीयता के स्पर्श से सबको निहाल कर दिया। इसी सादगी व सरलता के कारण ही तो वे लाखोँ व्यक्तियों के हृदय के सम्राट बने।


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