कल्कि अवतार का लीला संदोह

August 1990

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नैमिषारण्य में सूत शौनक वार्ता चल रही थी। समस्त अवतारों की कथा लीला संदोह सुनने के उपरान्त ज्ञान की अन्यतम जिज्ञासा वाले शौनक मुनियों ने महर्षि लोमहर्षक के सुपुत्र श्री सूत जी से प्रश्न किया-भगवन्। द्वापर तक की व तदुपरांत बुद्धावतार की कथा पूरी हो चुकी। अब कृपया यह बताइये कि कलियुग जब पराकाष्ठा पर होगा तो भगवान का जन्म किस रूप में होगा। उस समय ऐसी कौन सी दुरात्माएं होंगी जिन्हें मारने के लिए भगवान अवतार लेंगे। वह कथा भी हमें विस्तार से सुनाएं।

श्री सूत जी बोले-हे मुनीश्वरो-ब्रह्माजी ने अपनी पीठ से घोर मलीन पातक को उत्पन्न किया, जिसका नाम रखा गया अधर्म। अधर्म जब बड़ा हुआ तब उसका मिथ्या से विवाह कर दिया गया। दोनों के संयोग से महाक्रोधी पुत्र दम्भ तथा माया नाम की कन्या जन्मी। फिर दम्भ व माया के संयोग से लोभ नामक पुत्र और विकृति नामक कन्या हुई। दोनों ने क्रोध को जन्म दिया। क्रोध से हिंसा व दोनों के संयोग से काली देह वाले महाभयंकर कलि का जन्म हुआ। काकोदर कराल, चंचल, भयानक, दुर्गन्धयुक्त शरीर, द्यूत, मद्य, स्वर्ण और वेश्या में निवास करने वाले इस कलि की बहिन व संतानों के रूप में दुरुक्ति, भयानक, मृत्यु निरथ, यातना का जन्म हुआ जिसके हजारों अधर्मी पुत्र-पुत्री आधि-व्याधि, बुढ़ापा, दुख शोक,पतन,भोग-विलास आदि में निवास कर यज्ञ, तप,दान, स्वाध्याय, उपासना आदि का नाश करने लगे।

(कल्कि पुराण 1 से 22 श्लोक) उपरोक्त वर्णन पाठकों के मनोरंजन मात्र के लिए नहीं दिया गया। श्रुतियाँ देशकाल से परे होती हैं अतः उनमें वह सब भी दिया होता है जो भविष्य में संभावित है। कलियुग जिससे इस दिनों हम गुजर रहे हैं अपनी प्रौढ़ता के समापन काल पर है वह ऐसे मैं उस अवतार की प्रतीक्षा सबको है जो अविवेक दुर्बुद्धि, निष्ठुरता, अधर्म का नाश का धर्म की, सत्प्रवृत्तियाँ की स्थापना करेगा।

कल्कि अवतार की भाव भूमिका पर प्रकाश डालते हुए श्री सूत जी आगे लिखते हैं कि “देवता धरती को आगे करके ब्रह्माजी के पास गए और उन्हीं से भूमण्डल पर हो रहे अत्याचारों कष्टों का वर्णन करवाया। ब्रह्माजी सब को लेकर विष्णुलोक गए। विष्णु जी ने सब कुछ सुनकर आश्वासन दिया कि हम तुम्हारे कष्ट दूर करने के लिए अवतार लेने आ रहे हैं। फिर देवताओं से कहा कि “तुम मेरी सहायतार्थ पृथ्वी पर जाकर जागृतात्माओं व प्रज्ञा परिजनों के रूप में जन्म लो।”

उपयुक्त कथानक अधर्म पृथ्वी पर बुरी तरह संव्याप्त हो गया तब विधि व्यवस्था (ब्रह्मा) ने एक सर्वांगपूर्ण मानवीय सामर्थ्यों से सम्पन्न सत्ता का प्राकट्य किया जिसने संघ शक्ति का सहारा लेकर दुर्बुद्धि से मोर्चा लिया एवं सतयुग की स्थापना की।

कल्किपुराण में उल्लेख आता है कि-”भगवान कल्कि सम्भल ग्राम में विष्णु यश शर्मा के घर जन्म लेंगे, सावित्री उपासक होंगे। महेन्द्र पर्वत के निवासी भगवान परशुराम उनके गुरु होंगे? मथुरा का राज्य सूर्य केतु को सौंपकर वे हरिद्वार में पत्नी सहित निवास करेंगे, बौद्धों से संग्राम कर उन्हें पराजित कर संसार में धर्म की संस्थापना का काम पूरा करेंगे। सच्चे ब्राह्मणत्व की प्रतिष्ठा वे करेंगे तथा निष्कलंक कहलायेंगे।”

कुविचारों का समूलोच्छेदन करने वाली यह शक्ति एक श्रद्धा पर आधारित विचार प्रधान संस्थान के रूप में जन्मेगी और सारे विश्व में विचारक्रांति उत्पन्न कर देगी

उपरोक्त अलंकारिक विवेचना व घोषणाओं से स्पष्ट होता है कि “यदा यदा हि धर्मस्य”-की अपनी प्रतिज्ञा निबाहने को संकल्पित भगवत् सत्ता का

अवतरण काल यही है जिससे हम गुजर रहे हैं। वस्तुतः वह अवतार लेकर स्थूल काया से वह सब कुछ कर चुका जो एक अवतारधारी सत्ता को करना था,अब वह सूक्ष्म रूप में संव्याप्त हो देव अंशधारी सत्ताओं को प्रेरित अनुप्राणित कर अपनी लक्ष्य सिद्धि की ओर बढ़ रहा है।

भीष्म पितामह महाभारत में कहते हैं “कृष्णावतार का स्वरूप व उद्देश्य मैं तुम्हें समझा चुका अब कलियुग के बारे में बताता हूँ। कलियुग के अन्त में जब धर्म की शिथिलता आने लगेगी, पाखण्ड बढ़ जाएगा तब धर्म की वृद्धि और सच्चे ब्रह्मत्व की प्रतिष्ठा के लिए भगवान पुनः अवतार लेंगे!वे भगवान के समान यश वाले “विष्णु यशा” होंगे। भगवान के अनेक देवतागण भी अपनी शक्तियों सहित पृथ्वी पर उनके सहायक बनकर आते हैं, ऐसा पुराणों ने गाया है”।

आज की परिस्थितियां ठीक अवतार के प्रादुर्भाव के अनुरूप हैं। जब सदाचरण का कोई महत्व न रह जाए, संसार की सभी धार्मिक व्यवस्थाएं अस्त व्यस्त हो जाएं, तब मानना चाहिए कि अब कलियुग पूरी तरह प्रौढ़ हो गया और इस प्रौढ़ हुए कलिकाल में ही कीचड़ में कमल की भाँति निष्कलंक अवतार के प्रकट होने की संभावना मानना चाहिए। अवतार आते रहे हैं, आयें हैं और आते रहेंगे। उनकी पहचान संसार न करे तो वह अपनी पहचान स्वयं ही अपने कर्तव्यों, कर्मों की प्रचण्डता द्वारा अन्यान्यों को करता है। वह अपने पीछे निर्धारणाएं, व्यवस्थाएं बनाकर जागृतात्माओं को उस काम को पूरा करने के लिए छोड़ जाता है। बहुधा अवतार के जाने के बाद ही उसका मूल्याँकन होता है।

शास्त्रकारों की, श्रुति रचने वालों की शैली यद्यपि अलंकारिक होती है तो भी वह थोड़ा सा बुद्धि पर जोर डालने पर समझ में आ जाती है। कल्कि पुराण का कहना है कि वह सत्ता मनुष्य काया में होते हुए भी वंश कुल, गोत्र, कर्म, विचार भाव, व्यवसाय, स्वभाव आदि से पूर्ण निष्कलुष होगा। पाप, लोभ, मोह उसे स्पर्श भी न कर पायेंगे, असत्य व अधर्म उसके पास भी न आ पायेंगे। वह पूर्ण ज्ञानी, पूर्ण सन्त व बालकों के समान निर्मल अन्तःकरण स्वभाव वाला होगा। यह सारी बातें पूज्य गुरुदेव के जीवन क्रम से संगति खाती हैं, यद्यपि वे जीवन भर अवतार की बात का खण्डन ही करते रहे।

ग्रन्थ में उसके एक गाँव में जन्म लेने, उसके पिता के यशस्वी (विष्णु यशा) होने, माता सुन्दर बुद्धि वाली (सुमति) होने की बात कही। ज्ञान गंगा से वह अपने चित्त को निर्मल कर सावित्री साधना में प्रवीण पारंगत बनेगा, यह बात भी कही गयी है। उपनयन संस्कार के बाद, ब्रह्म संस्कार, गायत्री उपासना व वेदाध्ययन करने का प्रसंग भी आया है। पुराण के पैंतीसवें श्लोक से चालीसवें श्लोक तक कल्कि द्वारा पिता से वेद, सावित्री ब्राह्मणत्व, यज्ञोपवीत, गायत्री ब्रह्म विद्या आदि की व्याख्या पूछी गयी है। सच्चा ब्राह्मणत्व क्या होता है व उसकी उपासना कैसे की जाती है? यह समझाया

ब्राह्मण बालक को गुरुकुल अध्ययन के लिए तत्पर होते समय भगवान परशुराम को (परोक्ष सूक्ष्म सत्ता धारी मार्गदर्शक) दर्शन होता है। वे दर्शन ही नहीं देते, आत्मज्ञान की साधना के लिए अपने साथ हिमालय ले जाते हैं। समस्त वेदों का ज्ञान प्राप्त कर वे शिवजी की भस्म रूपी ज्ञान गंगा तथा परशु (विचारों की तीक्ष्णता रूपी अस्त्र) लेकर संसार के उद्धार के लिए चल देते हैं।

कल्कि लौटकर अपने ईश्वरीय ऐश्वर्य को प्रकट करते हैं एवं सारे देश में यज्ञ, दान, तपस्या और व्रत करने वाले ब्राह्मण क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र भगवान के कृपा पात्र बनते हैं। ये सभी सहायक भारतवर्ष के प्रत्येक प्रान्त से, सभी धर्म सम्प्रदायों से व विश्व भर से आते हैं व युग निर्माण की प्रक्रिया के प्रभाव से सब की बुद्धि सात्विक, ईशपरायण बनती चली जाती है। भगवान कल्कि राजसूय व अश्वमेध रचकर यज्ञ भावना का विस्तार करते हैं तथा सभी सहायकों, शुद्ध अन्तःकरण वालों को आत्मस्वरूप बताते हुए मृत्यु के बाद उन्हें स्वयं में एकाकार करने का आश्वासन दे देते हैं। वे लौकिक नहीं, आध्यात्मिक इच्छाओं की पूर्ति की ही कामना करने वाला एक समाज अपने सूक्ष्म चिन्तन से विनिर्मित कर देते हैं। स्त्रियों को वे नव जागरण की प्रेरणा देते हैं वह उनसे नेतृत्व कराते हैं। “कीकटपुर” अर्थात् संकीर्ण स्वार्थी मनोवृत्ति में निवास करने वाले बौद्ध अर्थात् तार्किक, घमण्डी, शिक्षित किन्तु स्वार्थपरायण बुद्धि वाले व्यक्तियों से वे युद्ध करते हैं। आस्था संकट से जूझते हुए वे ज्ञान रूपी परशु से उनका सिर काटते हैं अर्थात् विचार क्रांति द्वारा उनके विचारों को बदलकर उन्हें समर्पण अपनाने, क्षुद्र बुद्धि छोड़ सबके हित की बात सोचने के लिए बाध्य कर देते हैं।

अध्यात्म तत्व ज्ञान का वे ऐसा वैज्ञानिक विवेचन प्रस्तुत करते हैं कि हर नास्तिक (बौद्ध) उन्हें पढ़ता हुआ बदलता चला जाता है। विचारों को विचारों द्वारा काटकर वे एक प्रकार का ज्ञान यज्ञ रच देते हैं। घर-घर फैले भौतिकवाद से जूझकर धर्म तंत्र का परिष्कार इस प्रकार उनके माध्यम से सम्पन्न होता है। पाठकगण उपरोक्त विवेचन पर ध्यान दें कि यही रीति नीति पूज्य गुरुदेव की जीवन भर रही है। उनने क्राँतिकारी जीवन जिया है, परम्पराओं से मोर्चा लिया है एवं अध्यात्म तत्वज्ञान की स्थापना करने के लिए विज्ञान एवं अध्यात्म का समन्वय किया। प्रचुर परिमाण में साहित्य रचकर ज्ञान यज्ञ के माध्यम से उनने लाखों व्यक्तियों के विचार बदले हैं, उन्हें संकीर्ण स्वार्थान्धता से भरे जीवन से मोड़कर औदार्य भरी हंसती-हंसती, खिलती-खिलती जिन्दगी जीन सिखाया है।

गुरुदेव की ज्ञानयज्ञ, बाजपेय यज्ञ की श्रृंखला लम्बे समय तक चली। सहस्रकुंडीय महायज्ञ के माध्यम से अश्वमेध यज्ञ उनने पहले मथुरा में व फिर 1971 में पूरे भारत भर में पाँच स्थानों पर रचा। मथुरा की व्यवस्था सूर्यकेतु (उचित पात्रता वाले आत्मीय परिजन) को सौंपकर वे सपत्नीक उग्र तपश्चर्या हेतु हरिद्वार में गंगातट पर सप्त सरोवर क्षेत्र में आ गए (गंगा तीरे हरीद्वारे निवासं संकल्पयत)

हिमालय में अपने गुरु के दर्शन व तपश्चर्या करके आने के उपरान्त वे हरिद्वार में ऋषियों के अंशों से उत्पन्न आत्माओं से मिले व उनसे प्राण प्रत्यावर्तन जीवन शोधन साधना करा के अपने कार्य को उनके माध्यम से आगे बढ़ाने का संकल्प दिलाते हैं। वे एक विशाल परिवार की, जो मात्र सत्प्रवृत्तियों की स्थापना को कृतसंकल्प है, संरचना कर अपना कार्यभार अपनी धर्मपत्नी को सौंपकर स्वयं सूक्ष्म शरीर से गतिशील व सर्वव्यापी बनने महाप्रयाण कर जाते हैं।

अवतारों का स्वरूप एक विचार प्रवाह के समान होता है। मानवी काया में अवतार के दर्शन करने

वालों को यह देखना चाहिए कि क्या किसी एक महाप्राज्ञ की विचार चेतना से अनुप्राणित हो श्रेष्ठ सज्जनों के समुदाय को उत्तम चरित्र एवं उदात्त प्रयास के विकास विस्तार हेतु गतिशील देखा जा सका? यदि ऐसा कुछ दिखाई पड़े तो इसे अवतार की प्रेरणा ही मानना चाहिए। पूज्य गुरुदेव का कहना था कि यदि इस समय सब अवतार को खोजने लगें जो अगणित श्रेयाधिकारी खड़े हो जायेंगे।

वे कहते थे कि जब भी समाज में संत, सुधारक और शहीद बढ़ने लगें, समझना चाहिए कि इसका सूत्र संचालन परोक्ष रूप से अवतारी सत्ता ही कर रही है। सन्त वे जो सज्जनता से भरा, ब्राह्मणोचित जीवन जीकर प्रकाश स्तंभ का काम करते हैं। निराश व्यक्तियों में प्राण फूँकते हैं। संत हर प्रतिकूलता का हंसकर सामना कर आदर्शों का परिपालन करते हैं। इससे ऊंची श्रेणी सुधारक की है। सुधारक को न केवल अपना आपा सुधारना पड़ता है दूसरों को बदलने के लिए प्राणशक्ति का उपार्जन करना पड़ता है। उनका चरित्र ऊंचा, साहस अधिक प्रखर व पुरुषार्थ अधिक प्रबल होता है। वे एक हाथ में शास्त्र व दूसरों में शस्त्र लेकर चलते हैं। विचारक्रांति की मशाल यही जलाते हैं।

“संत, सुधारक के बाद तीसरा चरण है शहीद। शहीद वे जो ‘स्व’ का ‘पर’ के लिए सब कुछ समर्पित कर दें। यही समर्पण है, शरणागति है। स्वजनों का परामर्श न मानकर वे अवतार चेतना की प्रेरणा से सारा कार्य करते हैं। मानसिक शहादत ही सच्ची शहादत है। जिसमें परमार्थी महत्त्वाकांक्षाएं ही प्रधान हो जाती हैं एवं संकीर्ण स्वार्थपरता का अन्त हो जाता है”। (अखण्ड ज्योति पृष्ठ 7 से 9 अगस्त 1971)

पूज्य गुरुदेव की अवतार चेतना की परिभाषा के अनुरूप निराकार प्रज्ञावतार के प्रवाह को इन दिनों चारों और संव्याप्त देखा जा सकता है। इतना सब कुछ सम्पन्न कर दिखाने वाला वह युगपुरुष जब आज हमारे बीच नहीं है, सूक्ष्मीकृत घनीभूत हो परोक्ष जगत में क्रियाशील है, हम देहधारी उनके अनुचर अब तो उनका सही मूल्याँकन कर सकते हैं। “सुदृढ़ संगठन का स्वामी, स्वयं अपनी संहिताएं निश्चित करने वाला नीति पुरुष, वैज्ञानिक, मनीषी, आस्था संकट को मिटाकर भाव चेतना को जगाने वाला सत्पुरुष ही इस युग का कल्कि अवतार होगा”, “यह निर्धारण सन 1939 में उत्तराखण्ड के महात्माओं की एक बैठक में निश्चित हो”,काल गणना व कल्कि अवतार “ नामक पुस्तक रूप में प्रकाशित हुआ था। उसमें लिखा है “उसके मस्तिष्क की दो भौंहों के बीच चन्द्रमा होगा। विशुद्ध भारतीय वेशभूषा, पहनेगा, स्वभाव से बालकों जैसा निर्मल, योद्धाओं जैसा साहसी तथा वेदों-शास्त्रों का प्रकाण्ड पण्डित होगा। 24 अक्षर का उसके जीवन में बड़ा महत्व होगा। चौबीस अक्षर वाले मंत्र का जाप कर वह 24 वर्ष तक तप करेगा तथा वही चौबीसवाँ अवतार होगा। सारे विश्व पर उसका प्रभाव छा जायेगा”।

अवतारों को प्रायः जीवनकाल में पहचाना नहीं जाता। राम पर भी लाँछन लगे व कृष्ण को भी किसी ने नहीं बख्शा। हम सब को इस पर गर्व होना चाहिए कि हमारे बीच एक देवसत्ता आई व अपनी लीला दिखाकर चली गई। चलेंगे सब अब उसी की नीति पर। कहीं हम प्रमादग्रस्त न हो जायें व लोग यही न कहने

लगें कि अवतार सत्ता आई व उनके साथ रहने वाले ही उन्हें न पहचान पाये। कर्तृत्व व यशोगाथा हमारे सामने है। करना सिर्फ यह है कि उनके विचारों का विस्तार विश्व के कोने-कोने तक, हम सब उनसे जुड़ने वाले व भविष्य में उन्हें पहचानने वाले, करके दिखायें।


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