तीर्थों के विषय में हर व्यक्ति की मान्यता भिन्न-भिन्न प्रकार की है। कोई इन्हें पर्यटन स्थली मानता है, कोई इनकी दर्शन झाँकी से मिलने वाले कौतुक को ही सब कुछ समझता है, कोई इन्हें इनकी पृष्ठ भूमि से जोड़ कर सुसंस्कारित स्थान मानते हैं जहाँ महामानवों ऋषियों ने या देव मानवों ने अपने श्रेष्ठ कृत्यों द्वारा कुछ महत्त्वपूर्ण स्थापनाएँ समय समय पर कीं। गायत्री तीर्थ में ऋषि परंपराओं का बीजारोपण करते समय पूज्य गुरुदेव ने इन सब पक्षों का ध्यान रखते हुए ही उसकी उपमा एक नर्सरी, एक टकसाल, एक ऐसे कारखाने से दी थी जहाँ से महामानव रूप पौध समाज के कोने कोने में भेजी जानी थी, वे सिक्के ढलने थे जिन्हें हर कसौटी पर खरा उतरना था।
भव्य निर्माण, मठ, मन्दिर तो अनेकों बने हुए हैं व बनते रहते है। किन्तु उनकी सार्थकता तभी है, जब उनमें काम करने वाले प्राणवान हो, किसी श्रेष्ठ उद्देश्य के साथ जुड़े हों। यह चिन्तन तपस्वी, मनस्वी ऋषि प्रवर के मन को सदैव मथता रहा कि समाज में जो सत्प्रवृत्तियाँ फैलानी हैं, दुष्प्रवृत्तियों के बाहुल्य से मोर्चा लेना है, उसके लिए जिस स्तर के व्यक्तियों की आवश्यकता पड़ेगी उन्हें उन्हें उपयुक्त वातावरण में श्रेष्ठ स्तर का शिक्षण भी देना पड़ेगा। उनकी सुसंस्कारिता तभी अंकुरित, पल्लवित होगी जब उन्हें उर्वर भूमि में सभी अनुकूल परिस्थितियाँ मिलें।
अखण्ड ज्योति परिवार की स्थापना एक साधारण मनोरंजन करने वाली पत्रिका के सदस्यों का परिकर बनाने के लिए नहीं की गयी थी अपितु इसके संपर्क में आने वाली हर संस्कारवान आत्मा को सत्परामर्श व स्वाध्याय हेतु श्रेष्ठतम पाठ्य सामग्री प्रदान की गयी थी। जो साहित्य विगत पचास वर्षों में पूज्य गुरुदेव ने लिखा वह युग साहित्य कहलाया जिसमें सामयिक समस्याओं का समाधान व उलझनों का हल परिस्थितियों के अनुरूप किया गया था। जब उनने इसी अखण्ड ज्योति के पृष्ठों पर (अप्रैल अखण्ड ज्योति 1980, पृष्ठ 33 से 56) प्रेरणाप्रद वातावरण में देवस्तर की ढलाई हेतु बसने वाले देव परिवार का अंग बनने के लिए जागृतात्माओं को निवास आमंत्रण भेजा, तब यही परिकल्पना उनके मन में रही कि गायत्री नगर को गुरुकुल, आरण्यक स्तर का बनाया जाय, जहाँ रहकर अखण्ड ज्योति युग निर्माण योजना एवं युग शक्ति गायत्री के पाठक-गुरुदेव के सभी मानस पुत्र तीर्थ कल्प का भी लाभ ले सकें तथा अपनी प्रतिभा का परिष्कार कर उन महामानवों की पूर्ति कर सकें जिनके अभाव से ही समाज में सारी समस्याएँ पनपी हैं।
पूज्य गुरुदेव इस अंक में इसी स्तम्भ में लिखते है कि “धर्म और अध्यात्म के चमकीले बोर्ड वाले स्टालों की सजधज समाज में कम नहीं है। कलेवर की दृष्टि से धर्माडम्बर किसी अन्य से पीछे नहीं। इतने पर भी प्रभावी वातावरण का अभाव अभी भी जहाँ का तहाँ है। सुविधा सम्पन्न धर्म स्थान देखे जाते हैं पर उच्चस्तरीय आत्माओं का निवास न होने के कारण वहाँ भी ऐसा कुछ नहीं दीखता जिसमें अनगढ़ों को भी ढलने का बदलने का अवसर मिले।। इस अभाव के रहते उस ऊर्जा की कमी खटकती ही रहेगी जिससे धान पकते और अण्डों से चूजे निकलते हैं।
ऊपर जो वर्णन पूज्य गुरुदेव द्वारा किया गया है वह कितना वास्तविकता से भरा है इसका सहज अध्ययन तीर्थ स्थानों पर जा कर किया जा सकता है। पूज्य गुरुदेव का अध्यात्म प्रगतिशील कर्मयोग परक अध्यात्म रहा है जिसमें व्यक्ति मात्र बाबाजी न बनकर बैठे अपितु विश्व उद्यान को सींचने, समुन्नत बनाते में अपनी और से कोई कसर न छोड़े। इस अध्यात्म को जिन्दा कौन करे?मात्र प्रखर प्रतिभा सम्पन्न सुसंस्कारित व्यक्ति ही ऐसा कर सकते हैं व ऐसे देवमानवों के निर्माण हेतु एक गलाई-ढलाई के लिए उपयुक्त स्थान चाहिए था। जहाँ वे जैसा चाह रहे थे वैसा निर्माण कर सकें। भवनों का निर्माण। ऐसे व्यक्ति जो युग नेतृत्व कर सकें, मल्लाह की भूमिका निभा सकें, दूसरों का मार्गदर्शन कर सकें।
वातावरण कैसे श्रेष्ठ बनाया गया इस के लिए वे लिखते हैं कि जहाँ सहज ही श्रेष्ठता के अनुगमन उमगने लगे उत्कृष्टता के उदाहरणों का जहाँ बाहुल्य हो, वहीं देव वातावरण है व जहाँ ऐसा प्रभाव होगा वहाँ के संपर्क में आने वाले व्यक्ति देवों जैसा उत्कृष्ट स्तर का दृष्टिकोण अपनाते देखे जाएंगे। वातावरण को श्रेष्ठता से अनुप्राणित करने के लिए ही गायत्री तीर्थ को तप की ऊर्जा से संस्कारित कर यहाँ देवी संरक्षण उपलब्ध कराया गया तथा ऋषि परम्पराओं की स्थापना कर उन प्रचलनों को आरंभ किया गया जो सतयुग की वापसी में सहायक सदा से रहे हैं
गायत्री नगर को युगशिल्पियों का प्रशिक्षण संस्थान बनाया गया-बौद्ध विहारों और संधारामें जैसा। मात्रा बसने के लिए, समय गुजारने के लिए धर्मशाला नहीं बनायी गयी, अपितु साँचे की भूमिका निभा सकने वाले प्राणवानों को जो स्वयं “डाई” बन सकें व दूसरों को भी अपने जैसा बना सकें, प्यूपील्स टीचर (शिक्षकों के भी अध्यापक)की भूमिका निभा सकें, ऐसी प्रतिभाओं को रहने हेतु आमंत्रित किया गया। ऐसे प्राणवान आत्मनिर्माण और लोककल्याण की दुहरी साधना साथ कर सकें, इसलिए उन्हें परमार्थ कार्य में नियोजित होने को आमंत्रित किया गया।
इसके लिए पूज्य गुरुदेव ने शर्त रखी कि जो अपनी भौतिक महत्वाकाँक्षाओं को नियंत्रित कर ब्राह्मणोचित निर्वाह में तपोमय जीवन जी सकें तथा परमार्थ हेतु अपना 12 से 18 घण्टे का श्रम समाज के नवनिर्माण हेतु लगा सकें वे ही आएँ। कहना न होगा कि जो भी आए उन्हें पूरी कसौटी पर कसकर प्रशिक्षण प्रक्रिया से गुजारने के बाद रहने का अवसर दिया अपने पद सम्मान, वैभव को लात मार कर यहाँ का सीधा सरल, जीवन स्वीकार किया। पूज्य गुरुदेव के निर्देशों के अनुरूप स्वयं।के जीवन को, अपने परिवार को ढाला एवं देखते देखते उच्चशिक्षित, प्रतिभावान अढ़ाई सौ व्यक्तियों का एक देव परिवार यहाँ बस गया।
पूज्य गुरुदेव ने आध्यात्मिक साम्यवाद की परिकल्पना को कण-कण में संचरित किया है। यहाँ वरिष्ठता की एक ही कसौटी है विनम्रता, स्वयं पर अंकुश व कर्मनिष्ठ जीवनचर्या। अभी इनकी संख्या बढ़ेगी, और भी नये देवमानव परिवार आयेंगे तथा तीर्थ क्षेत्र का विस्तार होगा। पर करोड़ों व्यक्तियों की दृष्टि केन्द्रित होगी आरण्यकवासी इन कार्यकर्ताओं पर। इसमें कोई संदेह नहीं कि पूज्य गुरुदेव द्वारा जिये गये जीवन, उनके द्वारा निर्धारित आदर्शों को ही जीवन में उतार कर वे अपना लोकसेवा के क्षेत्र में पदार्पण सार्थक कर सकते हैं। जो इनका निर्वाह नहीं कर पायेगा, महाकाल उनके स्थानापन्नों की व्यवस्था भी कर लेगा किन्तु भगवान का यह कार्य रुकेगा नहीं, सतत् बढ़ता ही रहेगा।