भावों के उद्रेक को कुछ क्षण पश्चात स्वयं शान्त करते हुए बोले-नानक के जीवन की एक घटना सुनाता हूँ। सुनो-एक बार नानक देव किसी गाँव गए। इलाके के जमींदार ने उनके लिए पूरे रईसी स्वागत का सरंजाम जुटाया।
भोजन में दूध-घी अनेकों प्रकार के व्यंजन सभी कुछ थी। नानक गए, जाकर देखा और माफी माँग कर उलटे पैरों लौटे चले। साथ चल रहे मरदाना को यह सब विचित्र लगा। उसने टोका-विचित्र है, गुरुजी आप, यहाँ तो पेट में चूहे कुश्ती लड़ रहे हैं और आपने भोजन ही छोड़ दिया।
चुप रहने का इशारा कर, वह एक लोहार के यहाँ जा पहुँचे। बाजरे की सूखी रोटी नमक के साथ खाई, ठण्डा पानी पिया। मरदाना ने भी मरे मन से खाया। रह रह कर उसके मन में छोड़े गए व्यंजनों की खुशबू, लज्जतदार स्वाद कौंध उठता। पर करता भी क्या बेचारा, गुरु जो न कराए, सो थोड़ा। भोजन कर चुकने के बाद शिष्य की पीठ थपथपाते हुए नानक बोले-हम लोग लोक सेवा के अग्नि व्रत में दीक्षित है, यह याद रखो लोक सेवी की एक सर्वमान्य कसौटी है, उसके जीवन का निर्वाह सामान्य नागरिक जैसा हो। ऐसा न होने पर वह लोक जीवन से कोसों दूर हो जाएगा। इस प्रकार की दूरी रहने पर कहीं लोक सेवा बन पड़ेगी?
मरदाना अपना सिर थपथपाते हुए बोला-”कुछ-कुछ समझ रहा हूँ गुरुजी-मेरी अक्ल जरा मोटी है। गुरुजी की कहानी ने गम्भीर हो रहे माहौल को हल्का कर दिया। वह भी तनिक मुसकाए फिर पूर्ववत् गम्भीर हो बोले-यदि मैं ऐसी चीजों का उपयोग करने लगूँ तो लोकसेवी की सिद्धान्तनिष्ठा चकनाचूर हो जाएगी।” कहने के ढंग से सभी ने ऐसा महसूस किया कि जैसे सिख सम्प्रदाय के प्रवर्तक के रूप में बोल रहे हों। निःसन्देह अपनी इसी सिद्धान्तनिष्ठा के बल पर उन्होंने लोकसेवियों का वसुंधराव्यापी संगठन तैयार किया। लाखों हृदयों में आदर्श बन प्रतिष्ठित हुए।