अवतारी पुरुष के अलौकिक कर्तृत्व

August 1990

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सामान्यतया साधना क्षेत्र में बाह्योपचारों की नकल होती देखी जाती है एवं जो भी बहिरंग उपचार कोई साधक करता दिखता है, एक समुदाय उसके पीछे चल पड़ता है। उन प्रतीकों के पीछे छिपी भावनाओं को, आत्मशोधन व जीवनसाधना के अनुशासनों को न समझा जाता है, न निर्वाह किया जाता है, फिर वे फलित हों कैसे?

पूज्य गुरुदेव को उनके मार्गदर्शक ने कहा कि-”तुम्हें अखण्ड घृतदीप हमारे अपने संबन्धों के रूप में स्थापित करना है ताकि कोई किसी को भूलने न पाए। हम जिस प्रकाश पुँज के रूप में आए थे, उसकी स्मृति सतत् बनी रहे।” पूज्य गुरुदेव ने अपने इष्ट का मार्गदर्शन सर माथे रखा तथा उसका निर्वाह करते चले गए।

जब 1941, 1951 व 1960 में पूज्य गुरुदेव हिमांचल यात्रा पर गए तब भी यह अनुशासन भली प्रकार पाला गया। वंदनीया माता जी अक्टूबर 1951 की अखण्ड ज्योति पत्रिका में लिखती हैं कि-अब अखण्ड ज्योति को संभालने का गुरुतम दायित्व मुझ पर आ गया है। सम्पादिका के रूप में यह उनका पहला अंक था क्योंकि इस बार पूज्य गुरुदेव का हिमांचल प्रवास एक वर्ष से अधिक था। जो तीन प्रमुख काम गुरुदेव वंदनीया माताजी को सौंप गए थे, उनमें पहला था-”अखण्ड घृतदीप को दस वर्ष और प्रज्ज्वलित रखा जाय। पहले यह अखण्ड दीपक मात्र 24 पुरश्चरणों के लिए था पर अब कार्य पूरा हो जाने पर भी उसका विसर्जन नहीं होना चाहिए। जिस प्रकार चालीस दिन में एक गायत्री अनुष्ठान (सवालक्ष का) पूर्ण हो जाता है, इसी प्रकार चालीस वर्ष तक जलते रहने पर अखण्ड घृतदीप भी “सिद्ध ज्योति” बन जाता है। जब तीस वर्ष यह दीपक जल चुका एवं सारे परिवार ने क्रमशः चौबीस घण्टे जागरण रखकर उसे जलाये रखा तो अब दस वर्ष के लिए ही इस अधूरा क्यों छोड़ा जाय?” (अखण्ड ज्योति अक्टूबर 1959 पृष्ठ 6,7,8)। चूँकि अभी 1971 के बाद के निर्धारणों का रहस्योद्घाटन पूज्यवर ने हिमालय यात्रा से लौटने के बाद तक के लिए सुरक्षित रखा था, स्थान परिवर्तन पर हरिद्वार में पुनः इसी ज्योति को अखण्ड जलाये रखने के प्रसंग की चर्चा यहाँ नहीं की थी। जो हो पूज्यवर के निर्देशों का वंदनीया माताजी ने अक्षरशः पालन किया। उसी के प्रकाश में वे अपनी गुरुसत्ता पूज्य गुरुदेव एवं परोक्ष सत्ता का दर्शन कर पूरा परिवार चलाती रहीं संपादन करती रहीं एवं सारे दायित्व वे निभाये जो उन्हें एक संस्था के संचालक के नाते करना था।

दूसरे निर्देश था कि इस दीपक के सम्मुख अब अखण्ड जप का आयोजन किया जाय और दस वर्षों में 24 लक्ष के 24 और अनुष्ठान कराने का उपक्रम बनाया जाय। तीसरा निर्देश था कि अखण्ड दीप और अखण्ड जप जहाँ रहें वहीं के संस्कार लेकर ही “अखण्ड-ज्योति “पत्रिका प्रकाशित हो।

अखण्ड अग्नियों व दीपकों का असाधारण आध्यात्मिक महत्व होता है। इस लेख में जहाँ से शुरुआत की गई थी, इसी प्रसंग को आगे बढ़ाने हैं कि जन सामान्य अनुकरण की प्रवृत्ति अपनाते हुए सारी सिद्धि का स्रोत एक दृश्य उपचार को मानते हुए अखण्ड दीपक या अग्नि प्रज्ज्वलित तो कर देते हैं पर उसका निर्वाह नहीं कर पाते। दीपक तभी सिद्ध हो पाता है जब तप साधना का पोषण सुपात्र साधन द्वारा किया जा रही हो। यह कोई छोटा-मोटा काम नहीं है कि किसी और से करा लिया जाय। जप-अनुष्ठान भी स्वयं करना पड़ता है, तप-तितीक्षा भी स्वयं करनी पड़ती है तथा आत्मशोधन को अनिवार्य अंग मानते हुए उसे सतत् निभाना पड़ता है। यही कार्य पूज्य गुरुदेव व वंदनीया माता जी ने किया तथा आज भी वह अखण्ड दीपक जो 64 वर्षों से जल रहा है, शांतिकुंज में स्थापित है। समस्त प्रेरणाओं व सिद्धियों का वह स्रोत है। उसके सामने अभी भी अखण्ड जप चलता है। उसके सान्निध्य में एक करोड़ गायत्री जप चलता है। उसके सान्निध्य में एक करोड़ गायत्री जप नित्य सम्पन्न होता है व नौ कुण्डीय यज्ञशाला में नित्य गायत्री यज्ञ में आहुतियाँ दी जाती है। इसी से यहाँ के प्रसुप्त बीजाँकुर फलित-पल्लवित हुए है। पूज्य गुरुदेव ने इसी के प्रकाश में सतत् लेखनी की साधना तथा अपनी उपासना सम्पन्न की। प्रस्तुत पंक्तियाँ भी उसी अखण्ड दीपक के प्रकाश में परोक्ष प्रेरणा से लिखी जा रही है। इसमें किसी का व्यक्तिगत पुरुषार्थ नहीं है, दिव्य धना का तपोबल जो पूज्य गुरुदेव रूपी ब्रह्मवर्चस् सम्पन्न महामानव के रूप में सिद्ध हुआ ही इसके मूल में कार्य कर रहा है वह आगे भी करता रहेगा।

यहाँ यह सब विस्तार से इसलिए लिखा गया है कि जो परिजन उस अखण्ड दीपक के दर्शन यहाँ आकर करते है, उसके मूलभूत तत्वदर्शन व परोक्ष सिद्धि के स्वरूप में भी समझें। अनुकरण में वे अपने यहाँ दीप जला लें तो फिर उसे “सिद्ध ज्योति” जैसा बनाने का पुरुषार्थ भी करें। यदि यह न बन पड़े जो कि असंभव ही है क्योंकि दीप जलाने के साथ जो तप साधना जुड़ी है, वह भी स्वयं की, वह कर पाना हरेक के लिए शक्य नहीं है, तो उस अखण्ड दीप व अखण्ड-ज्योति से लाभ उठायें जो क्रमशः प्रत्यक्ष अग्नि व लेखनी रूपी संजीवनी के रूप में उनके समक्ष प्रस्तुत है। तीर्थों का जो महत्व होता है, उससे कहीं अधिक महत्व ऐसी सिद्ध ज्योति का है जिसमें तिल-तिल कर एक साधक ने अपना जीवन होम किया व न केवल अपनी कुण्डलिनी जाग्रत की विश्वात्मा की कुण्डलिनी जगाने हेतु सूक्ष्मीकृत-घनीभूत हो जो अभी भी परोक्ष जगत में सक्रिय है।

बहुधा शांतिकुंज पत्र आते हैं व मथुरा भी आते थे कि हमारे निमित्त इतनी संख्या का इतना जप करा दें, हम बदले में इतनी राशि भेज देंगे। लिखने वाले यह नहीं जानते कि जप-अनुष्ठान किराये पर संभव नहीं होते। यह तो पण्डे-पुजारियों का, धर्माडम्बर रचने वालों का खोला धंधा है, जिसका गुरुदेव ने जीवनभर उपहास किया, खंडन किया। जप-तप स्वयं किया जाता है, हाँ! अनुष्ठान में कोई व्यवधान न आने पाए, कोई बाधक तत्व बीच में क्रम न तोड़ दे, इसका नियमित संरक्षण शांतिकुंज की ऋषिसत्ता करती रहेगी यह आश्वासन उनने सतत् दिया। यह आश्वासन अभी भी है वह आगे भी रहेगा कि कोई भी साधक स्वयं जप अपने यहाँ अथवा जहाँ कहीं करता है तो उसका संरक्षण-विपत्तियों का निवारण यहाँ की अलौकिक दिव्यसत्ता सदैव करती रहेगी। मूलभूत प्रसंग जो समझने का है, वह यह कि अपनी पवित्रता बढ़ाने पर, कषाय कल्मषों के परिशोधन पर अधिक ध्यान दिया जाय तथा भावनात्मक परिष्कार को अधिक बाह्योपचारों को कम महत्व दिया जाय। जप करते समय यदि मन गिनती में ही लगा रहा तो यह ईश्वर से सौदेबाजी हो गई। भगवान के यहाँ गायत्री माता के यहाँ ऐसा रजिस्टर नहीं है जिसमें जप की गिनती लिखी जाती हो। वहाँ तो सद्भावनाओं का, संवेदनाओं का, परिष्कृत उच्चस्तरीय आकाँक्षाओं का मूल्याँकन होता है वह कभी भी कोई सिद्धि पाएगा तो उसी बलबूते, यह प्रतिपादन पूज्य गुरुदेव जीवन भर करते रहे।

गुरुदेव के सिद्ध पक्ष पर चूँकि अब अनावरण का निर्देश मिल चुका है प्रस्तुत पंक्तियों को लिखने का किया जा रहा है व आगे भी इस अंक में स्थान-स्थान पर उनका उद्धरण है। गुरुदेव के निकट संपर्क में रहने वाले इस तथ्य को भली भाँति जानते थे कि वे एक शरीर में रहते हुए भी पाँच शरीरों जितना कार्य वे करते थे। भिन्न-भिन्न प्रकार के पाँच कार्यों का सम्पादन एक साथ कैसे होता था, यह रहस्यमय प्रसंग होता है और निकटवर्ती जानते है कि उनने अस्सी वर्ष की आयु में आठ सौ वर्षों का जीवन जिया है। पाँच काम पाँच शरीर से कैसे होते थे, इसका थोड़ा खुलासा करें। पहला तो, छः घंटे प्रतिदिन गायत्री माँ की उपासना जो आठ घण्टे शारीरिक श्रम व सात घण्टे मानसिक श्रम (चिन्तन, मनन, स्वाध्याय, लेखनी की साधना) के अतिरिक्त थी। यह सोचा जा सकता है कि 24 घंटे में 21 घंटे जब इसमें चले गए तो वे सोते कब थे। यही तो अलौकिक सिद्धि है जो किसी भी नाम से पुकारी जा सकती है पर उनके निकटवर्ती जानते हैं कि प्रातः 1 बजे से उठकर जो उनने कार्य आरंभ किया है तो उसे बिना विराम दिये सतत् रात्रि 10 बजे तक सम्पन्न किया है। यह संभव है तपोबल से अर्जित सामर्थ्य के सहारे।

दूसरा काम था एक हजार से अधिक परिजनों के पत्रों को जो नित्य आते थे, खोलना, पढ़ना व उन्हें 24 घंटे के भीतर ही जवाब देना। वह भी इतना सटीक, आत्मीयता भरा कि सामने वालों को यह लगता था कि जो भी कुछ वह पूछना, जानना, मार्गदर्शन पाना चाहता था वह उसे मिल गया, पिता की आत्मीयता मिल गयी, स्नेह की पूर्ति हो गई। हरिद्वार आने पर भी यह काम उनने सतत् किया पर सहायकों के माध्यम से वंदनीया माताजी का मार्गदर्शन 1972 के बाद साधकों को पहुँचने लगा। पत्रों का वर्गीकरण स्वयं गुरुदेव करते थे, क्या जवाब, किसको, किस प्रकार दिया जाना है, यह निर्धारण भी स्वयं करते थे। यह एक महत्वपूर्ण जिम्मेदारी वे वंदनीया माताजी व उनके सहायकों को सौंप गये है। परोक्ष मार्गदर्शन तो उनका है ही। उनके संगठन का मूलभूत आधार तो वे पत्र ही है जो उनने अगणित व्यक्तियों को लिखे, स्नेह के आधार पर जिन्हें उनने अपना बना लिया।

तीसरा काम जो एक काया से रहते हुए उनने किया वह था लेखन। अपने वजन की तौल से दुगुना वे लिखकर चले गए हैं। नियमित रूप से 3 घण्टे पढ़ना व 4 घण्टे पत्रिका व किताबों के लिए लिखना। खाना छूट गया हो पर उनने कभी लिखने की नागा नहीं की। सतत् स्वाध्याय द्वारा जो पढ़ा, दैवी सत्ता ने जो परोक्ष ज्ञान उन्हें दिया उसे वे बहुमूल्य विचारों के रूप में, सशक्त संजीवनी के रूप में लिपिबद्ध करते गये। एक बात और ध्यान रखने योग्य है कि पढ़ने के बाद कभी संदर्भ ग्रन्थ सामने नहीं रखते थे। इतनी विलक्षण स्मृति थी। लगभग ढाई हजार पुस्तकों के रूप में, अनूदित भाष्यों के रूप में स्वरचित प्रज्ञापुराण के रूप में इतना कुछ वे दे गए है वह आने वाले दस वर्षों के लिए इतना कुछ लिख कर दे गये है कि अखण्ड ज्योति सतत् प्रकाशित होती रहेगी; सदा ज्वलन्त देदीप्यमान बनी रहेगी। भले ही लेखनी किसी की भी हो विचार उन्हीं की प्रेरणा से आयेंगे। गीता विश्व कोष के रूप में विशाल महाग्रन्थ की रूप-रेखा वे बना गए है, वह भी अगले दिनों उनका सूक्ष्म व कारण शरीर लिखवाएगा तथा 14 खण्ड प्रज्ञा पुराण के भी।

चौथा काम था व्यक्तिगत संपर्क, शिक्षण एवं मार्गदर्शन-परामर्श। विश्राम कभी कुछ क्षणों का योगनिद्रा द्वारा किया हो तो ठीक है, नहीं तो अगणित व्यक्तियों से अपने अंतिम वर्षों के सूक्ष्मीकरण साधना के दिनों को छोड़कर नित्य वे मिलते ही रहे, उनमें प्राण फूँकते रहे, उनका मनोबल बढ़ाते रहे वह दैनन्दिन जीवन संबंधी मार्गदर्शन, साधना संबंधी मार्गदर्शन तथा परिस्थितियों के अनुकूल कैसे मनःस्थिति बदली जाय यह वह बड़े ममत्व व लगन के साथ बताते थे। कार्यकर्ताओं के हृदय के सम्राट उन्हें कहा जाय तो अत्युक्ति न होगी।

पांचवां कार्य था मिशन की गतिविधियों के लिए सतत् बाहर घूमते रहना व प्रचार कार्य को गति देना। प्रारंभ के कुछ वर्ष गाँधीजी के साबरमती आश्रम व कवीन्द्र रवीन्द्र के शाँतिनिकेतन में रहे। अड्यार भी वे गये तथा एनीबेसेंट की बनारस की लाइब्रेरी भी उनने पढ़ डाली। इसके अतिरिक्त जहाँ-जहाँ कार्यकर्ता सुदूर क्षेत्र में रहते थे, मिशन के विस्तार हेतु उनके पास जाने का क्रम बनाया। रास्ते में यात्रा में लिखते भी थे उपासना क्रम भी चालू रखते थे। 1971 की विदाई से 15 दिन पहले तक वे सतत् घूमते रहे थे व एक-एक दिन में 3-4 स्थानों के कार्यक्रम उनने निपटाये। न केवल सम्पन्न किया, वरन् जो मिलने आया उससे इतना समीप से मिले कि उसे लगा मुझसे अधिक उनका कोई और समीप नहीं है। 1980-81-82 में शक्तिपीठों के शिलान्यास व फिर प्राण प्रतिष्ठा हेतु निकले तो एक दिन में पाँच कार्यक्रम सम्पन्न कराते चले गये।

किसी भी कसौटी पर परख लिया जाय, कोई संगति दिनों व क्षणों की बैठती नहीं कि कैसे यह कार्य सम्पन्न किया जाता होगा। पर महाकाल की शक्ति तो ऐसी ही प्रचण्ड होती है। एक ही बार में वे पाँच जगह कैसे सक्रिय बने रहते थे, यह बात उनके कार्यकाल में उनके निकटवर्ती कार्यकर्ताओं ने कई बार पूछी। पर निर्देश न होने से, समाधान वही दे दिया गया जो ऊपर पाँच शरीरों से किये जाने वाले काम के रूप में दिया गया है। पर यदि परिजन वास्तव में सिद्ध पुरुष की सिद्धि सुनना, जानना चाहते हैं तो एक घटना सुन लें। मध्य प्रदेश (पश्चिम) के दौरे पर एक कार्यकर्ता उनके पीछे पड़ा कि गुरुदेव आप पाँच स्थान पर कैसे रहते है? उसकी जिद को पूरा करने व अपनी लीला दिखाने के लिए उनने उससे उसी समय बिलासपुर का एक टेलीफोन नंबर दिया व कहा कि कॉल मिलाकर पूछो कि वहाँ क्या चल रहा है? जवाब मिला गुरुदेव का पूर्व से कार्यक्रम था। वे प्रवचन देकर आये हैं व उनके यहाँ भोजन कर रहे हैं। फोन उन सज्जन के हाथ से नीचे गिर गया व उनने साष्टाँग दण्डवत् कर पूज्यवर से कहा-”अब कभी शंका नहीं करूंगा प्रभु।”

क्या कहेंगे आप इसे? क्या यह भी मैस्मरेज्म या हिप्नोटिज्म है। सिद्ध पुरुषों की लीलाएँ निराली होती हैं। वे सशरीर थे, तब न जाने क्या रहस्यमय रच गए हैं, सूक्ष्म शरीर से तो परिजनों को अभी और अधिक अनुभूतियाँ होंगी।


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