आर्ष साहित्य का पुनरुद्धार

August 1990

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ज्येष्ठ सुदी 10 संवत् 2018 (गायत्री जयन्ती 1961) को चारों वेदों के साथ उपनिषदों के तीन खण्ड गायत्री तपोभूमि मथुरा से पूज्य गुरुदेव द्वारा सम्पादित हो पहली बार प्रकाशित हुए। उपनिषदों के ज्ञानखण्ड, साधनाखण्ड एवं ब्रह्मविद्या खण्डों में कुल 108 उपनिषद् थे जिनकी हिन्दी में सरल टीका पहली बार जनसमुदाय के समक्ष प्रस्तुत की गयी थी। इसकी भूमिका में पूज्य गुरुदेव लिखते है कि “उपनिषदों को जीवन का सर्वांगपूर्ण दर्शन ही कहना चाहिए। उनमें जीवन को शान्ति और आनन्द के साथ जीने तथा प्रगतिपथ पर निरन्तर आगे बढ़ते जाने की विद्या का भली भाँति विवेचन हुआ है। लौकिक और पारलौकिक, बाह्य और आन्तरिक, व्यक्तिगत और सामाजिक जीवन के दोनों ही पक्ष जिसके आधार पर समुन्नत हों, वह महत्वपूर्ण ज्ञान उनमें भरा हुआ है। इनकी एक एक पंक्ति में अमृत भरा प्रतीत होता है। इस शाश्वत ज्ञान के समुद्र में जितना गहरा उतरा जाय, उतना ही अधिकाधिक आनन्द उपलब्ध होता चलता है।”

इस भूमिका व समग्र आर्ष साहित्य को जब तत्कालीन राष्ट्रपति सर्वपल्ली डॉ. राधाकृष्णन को भेंट किया गया तो उनने कहा कि “यदि यह ज्ञान नवनीत मुझे कुछ वर्ष पूर्व मिल गया होता तो संभवतः मैं राजनीति में प्रवेश न कर आचार्य श्री के चरणों में बैठा अध्यात्म दर्शन का शिक्षण ले रहा होता”। यह तथ्य सर्वविदित है कि स्वयं श्री राधाकृष्णन ने भारतीय व पाश्चात्य दर्शन पर अनेकानेक टीकाएँ लिखी है जो कि विश्व भर में पाठ्य पुस्तकों के रूप में पढ़ाई जाती है।

पूज्य गुरुदेव के सम्पादन कार्य में सहयोगी एक प्रमुख कार्यकर्ता को अड्यार (मद्रास) में एक अधिवेशन को 1981 में संबोधित करने का व मद्रास विश्व विद्यालय के प्रोफेसर्स से बात चीत का मौका मिला तो वह यह जानकर हतप्रभ रह गया कि मात्र आचार्य जी का आर्ष वाङ्मय पढ़ने के लिए वहाँ के संस्कृत दर्शन व मनोविज्ञान विभाग के प्राध्यापकों ने हिन्दी बोली व इतनी सुन्दर टीका उन्हें कहीं देखने को नहीं मिली।

आर्ष ड़ड़ड़ड़ का पुनरुद्धार वस्तुतः पूज्य गुरुदेव की पूरे समाज को एक महत्वपूर्ण देन है, जिसका सही मूल्यांकन अभी किया जाना है। मध्यकाल के अंधकार युग में भारतीय समाज को जो सबसे बड़ी क्षति हुई थी वह थी उसके विद्या वैभव का लोप। आततायियों ने उन दिनों जगह जगह आग लगा कर सुरक्षित ग्रन्थों से भरे पुस्तकालय राख कर दिये। विद्या और ज्ञान की प्राचीन परम्परा के वाहक विद्वानों और मनीषियों को ढूंढ़-ढूँढ़ कर मौत के घाट उतारा गया। फिर भी उन दिनों ऐसे मनस्वी व साहसी भी थे जिनने प्राणों की बाजी लगाई और उन ग्रंथों को लेकर जंगलों में भाग गए, गिरि कन्दराओं में ड़ड़ड़ड़ स्थिति में रहकर उनने इस विरासत की सुरक्षा की व अवसर आने पर इस विद्या के पठन पाठन का सिलसिला पुनः शुरू किया। लेकिन यह क्रम सीमित ही रहा।

अधिकाँश ग्रन्थ जिनका उल्लेख हम आज उपलब्ध प्राचीन साहित्य में पढ़ते है, अपना अस्तित्व खो चुके है। आर्ष साहित्य भी विलोप का ग्रास होते होते बचा क्योंकि कुछ समर्पित देव संस्कृति के अनुरागियों ने इसे प्राणों से भी ज्यादा प्रिय मानकर बचाने की चेष्टा की। फिर भी यह कुछ स्थानों तक ही सीमित रहा। जन-जन तक न पहुंच पाया।

वाराणसी, प्रयाग, हरिद्वार, नदिया, अवन्तिका, द्वारिका, नासिक, पुणे, रामेश्वरम् पुरी, काँची, अयोध्या, मथुरा जैसे कुछ गिने चुने स्थान ही थे जहाँ कतिपय ब्राह्मण परिवार और प्राचीन वाङ्मय को सर्वोपरि महत्व देने वाले लोग आर्ष साहित्य को जानते और उसका अध्ययन करते थे। ब्रिटिश काल आया व प्राच्य साहित्य के प्रति रुचि वाले मैक्समूलर, मैकडाँनल, पालडासन, विलसन आदि मनीषियों ने इस साहित्य की ढूँढ़ खोज की लेकिन उससे भारतीय जनसाधारण को कुछ अधिक न मिल पाया।

पाश्चात्य विद्वानों को वेदों का सायण भाष्य ही उपलब्ध हो पाया था। महीधर, उब्बरष् रावण आदि के भाष्यों की उन्हें भनक भी नहीं थी। उन्नीसवीं सदी में स्वामी दयानन्द वे वेदों पर भाष्य लिखना शुरू किया। वे ऋग्वेद के छह मण्डलों का ही भाष्य कर निर्वाण को प्राप्त हो गए। उनके शिष्यों ने अन्यान्य ग्रन्थों का भाष्य चालू किया पर उन पर सदैव यही आरोप लगता रहा कि अपने विचारों व पूर्वाग्रहों को उनने आर्ष साहित्य पर जबरदस्ती थोपा है। मूर्तिपूजा को न मानने वाले आर्यसमाजियों ने जहाँ कहीं प्रतीक पूजा का उल्लेख आया, बिना उसका तात्विक विश्लेषण किए उसे काट ही दिया। वेदों में अवतार वाद का उल्लेख नहीं है तो आर्य समाज के विद्वानों ने राम, कृष्ण, आदि अवतारी सत्ताओं को भी साधारण मानव की भाँति निरूपित किया। साकार ध्यान, योग, भक्ति, तीर्थ, मन्दिर, सगुण उपासना आदि पर उनका दृष्टिकोण स्थूलवादी ही रहा।

एक तो वैदिक वाङ्मय बिल्कुल विलुप्त एवं जो भी सामने आया उसके प्रस्तुतीकरण को ले कर भी विवाद! महायोगी अरविंद, कुमार स्वामी और श्रीपाद दामोदर सातवलेकर ने भी आर्ष वाङ्मय के भाष्य किए लेकिन इनमें से किसी का भी भाष्य समग्र नहीं है। जिन जिनको अपनी इस पुरातन धरोहर से अवगत होने ज्ञानगंगा का अवगाहन करने की आकाँक्षा उठती थी उन्हें मन मार कर रह जाना पड़ता था।

पूज्य गुरुदेव ने स्वतंत्रता आन्दोलन के बाद से ही वैदिक साहित्य, आर्ष वाङ्मय को अपने मूल रूप में सरल हिन्दी टीका सहित प्रस्तुत करने की भूमिका मन में बनाली थी। उनकी मार्गदर्शक सत्ता द्वारा उन्हें सौंपे गए अनेक भागीरथी कार्यों में से एक आर्ष साहित्य को जन सुलभ कराना भी था। अध्ययन और सामग्री संकलन का कार्य इसी कारण उनने 1936-37 से ही आरंभ कर दिया था, जब वे आगरा में थे।

चारों वेदों के संहिता पाठ समग्र रूप में कहीं भी एक स्थान पर उपलब्ध नहीं थे। सार्वदेशिक आर्यसभा, वैदिक पुस्तकालय, काशी विद्वत्परिषद और वैदिक शोध संस्थान होशियारपुर जैसे कतिपय प्रकाशकों ने उन्हें अंश अंश में प्रकाशित किया था। संपूर्ण पाठ प्राप्त करने के लिए गुरुदेव ने काशी नदिया, पूना, नासिक की यात्रा की व अलग अलग मण्डल, अध्याय, सूक्त, मंत्र जैसा भी जहाँ से मिला लिया एवं क्रमबद्ध किया। यही कठिनाई उपनिषदों के संकलन में आई। मोटे तौर पर आठ नौ उपनिषद् ही प्रसिद्ध हैं, वही आसानी से मिलते है लेकिन पूज्य गुरुदेव को एक सौ आठ उपनिषदों के मूल पाठ जुटाने थे। प्रयत्नपूर्वक यह भी संकलित कर क्रमबद्ध किये गए। आर्ष साहित्य में वेद व उपनिषद् के अलावा, छहों दर्शन, अठारह पुराण बीस स्मृतियाँ, चौबीस गीताएँ, आरण्यक, ब्राह्मण, निरुक्त, व्याकरण आदि भी आते है। ये सभी आसानी से मूल रूप में उपलब्ध नहीं थे। पुराणों का कार्य सबसे अधिक दुरूह था। लगभग साठ पुराणों के नाम मिलते है। पुराण, उपपुराण और औपपुराणों का वर्गीकरण इन्हीं में से किया गया था। कुछ विद्वान जिन्हें प्रमुख पुराण मानते है, दूसरे उन्हें उपपुराण व कुछ उन्हें औपपुराण कहते है। पूज्यवर ने काशी के विद्वानों से संपर्क कर अठारह पुराणों की नामावली तय की। यद्यपि उन सब में परस्पर मत भेद था पर अन्तिम सम्मति उनकी ही उपयोगी और महत्वपूर्ण सिद्ध हुई।

संपूर्ण वाङ्मय जुटा लेने के बाद प्रत्येक ग्रन्थ पर भाष्य लिखने के लिए उन्हें एकान्त की आवश्यकता थी। पत्रिका और पुस्तकों का लेखन सम्पादन साधकों जिज्ञासुओं से संपर्क व दिशा निर्देशन, संगठन के संचालन आदि सभी कार्य अपने में महत्वपूर्ण थे। इन सबका सुनियोजन कर उपयुक्त व्यक्तियों को कार्यभार सौंप, वंदनीया माताजी को अखण्ड ज्योति के सम्पादन की गुरुतर जिम्मेदारी संभलवाई एवं एक वर्ष के लिए तप करने गंगोत्री गोमुख के दुर्गम हिमालय वाले क्षेत्र में चले गए। साथ में सारे आर्ष वाङ्मय का मूल संकलन भी ले गए ताकि तप से उद्भूत आत्मबल के प्रकाश में बाद में उत्तरकाशी में रहकर सारा भाष्य व टीका का कार्य सम्पन्न कर सके। “सुनसान के सहचर” पुस्तक यदि उनके हिमालय प्रवास के चिन्तन का नवनीत है तो समग्र आर्ष वाङ्मय उसके तुरन्त बाद उत्तरकाशी में मात्र छह माह की अवधि के उस पुरुषार्थ का सार है जो उनने लेखनी के माध्यम से एक मनीषी, ऋषि तत्वदर्शी की भूमिका निभाकर संपन्न किया।

सारे भाष्य को उनने क्रमबद्ध कर मथुरा भेजते रहने का क्रम चालू रखा। वह कम्पोज होता रहा किन्तु छपाई तभी हुई जब पूज्य गुरुदेव ने स्वयं आकर सारी अशुद्धियों को ठीक कर स्वयं प्रूफ पढ़कर प्रेस में दिया। यही सर्व शुद्ध भाष्य प्रथम संस्करण के रूप में दिया। यही सर्व शुद्ध भाष्य प्रथम संस्करण के रूप में गायत्री जयन्ती 1961 प्रकाशित हुआ। सर्व प्रथम वेद व उपनिषद् छपे, बाद में पुराण आदि अन्य ग्रन्थ। पुराणों ने थोड़ा समय जरूर लिया क्योंकि इन्हीं में मध्यकाल के टीकाकारों द्वारा अपना उल्लू सीधा करने के लिए जोड़े गए अनावश्यक अंश ज्यादा थे। इन अंशों को पहचानना व पूर्वापर संगति बिठाकर उन्हें संपादित करना एक दुष्कर कार्य था। किन्तु पूज्य गुरुदेव की अठारह से बीस घंटे नित्य काम करने की शैली ने इस कार्य को आसान कर दिया व समग्र आर्ष साहित्य पाँच वर्ष में छपकर जन सामान्य के सामने आ गया। बाद में अन्यान्य प्रकाशकों के पास संस्करणों के छपते रहने व प्रूफ रीडिंग में प्रमाद होने से अशुद्धियाँ बढ़ती गयी।

मूल ग्रन्थों का प्रथम संस्करण जिनके पास उपलब्ध है, उसे प्राप्त कर देखा जा सकता है कि आर्ष साहित्य के नाम पर पूज्य गुरुदेव के सम्पादित पाठ और अनुवाद ही आज आसानी से उपलब्ध है आर्ष साहित्य को जिसने जन सुलभ बना दिया, ऐसे युग पुरुष को हर संस्कृति प्रेमी नमन करने हेतु सहज श्रद्धावश प्रेरित हो जाता है। यदि मूल शुद्ध भाष्य जिसकी छपाई स्वयं पूज्य गुरुदेव की देख रेख में हुई पुनः उपलब्ध कराया जा सके तो यह शिष्य समुदाय की सच्ची श्रद्धांजलि होगी।


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