परम्परा आजीवन चली (Kahani)

August 1990

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घीया मण्डी वाले वर्तमान “अखण्ड ज्योति संस्थान” में जनवरी 1944 में आने से पूर्व पूज्य गुरुदेव दो तीन मकान बदल चुके थे सभी मकान छोटे थे। परिवार में पाँच सदस्य थे माँ को मिलाकर और आने वालों की कमी नहीं थी। मकान की तलाश जारी थी। एक दिन उनके ढाई मित्रों में से एक ने बताया कि घीयामण्डी पर एक मकान सड़क पर है। टूटा-फूटा तो है। पर उसमें तीन जीने है 14 कमरे है व दो दालान है। किराया भी मात्र 14 रुपये महीना! मुँह में पानी आ गया ऐसा मकान तो मिलना चाहिए। पर उसके अभी तक खाली रहने का कारण भी बता दिया गया। कहा कि भुतहा मकान है। रात को रोज “छम छम’ आवाज होती है। आचार्य श्री ने हँसते हुए पूछा कि “बस छम छम मात्र से इतना लोग डर गए। हम नृत्य व संगीत दोनों का आनंद लेंगे पर रहेंगे वहीं।”

जनवरी 1944 बसंत पंचमी पर आर्यसमाजी पद्धति से हवन दालान में किया गया। सड़क पर बोर्ड लगा दिया गया अखण्ड ज्योति कार्यालय’ उस हवन के बाद न वहाँ भूत प्रेत नजर आए न वह आवाज ही सुनाई दी। पूरे मकान में प्रेस प्रकाशन व आवास की व्यवस्था हो गयी। भूत महाकाल के अग्रदूत को डरा भी कैसे सकते थे। जो अतीत को भूत मानता हो एवं वर्तमान में कर्मयोगी रह उज्ज्वल भविष्य का निर्माता हो वह भूत से भला क्या डरेगा?

औरों का आतिथ्य कर उन्हें अपनी आत्मीयता से सराबोर कर देना पूज्य गुरुदेव के जीवन की एक प्रमुख विशेषता रही है। जो भी जाता, उसे 1943 तक पहली वाली माताजी एवं उसके बाद सजल श्रद्धा की साकार मूर्ति वंदनीया माताजी स्नेहपूर्वक भोजन कराती। स्वयं वे पास बैठकर परिजन की समस्याएँ पूछकर उसे आश्वस्त कर उसका मानसिक उपचार भी करते रहते। 1954 तक तो तपोभूमि की व रहने की व्यवस्था भी नहीं हो पायी थी। घीया मण्डी वाले घर में ही उपलब्ध स्थान में वे परिजनों के सोने के लिए भी स्थान निकाल लेते। यही आत्मीयता-सघन सहृदयता उनकी एक मात्र पूँजी थी जिसके बल पर वे प्रज्ञा परिवार के एक एक सदस्य को चुन चुन कर एक माला में गूँथते रहे व विशाल गायत्री परिवार को जन्म दिया। यह एक रहस्य ही रहेगा कि दो सौ रुपये में वंदनीया माताजी कैसे घर का खर्च भी चला लेती थी एवं आतिथ्य भी पूरा कर लेती थी। एक ब्राह्मण का जीवन जीकर न्यूनतम में यह सब भी संभव है, यह ऋषि युग्म ने साकार कर दिखाया। आज शाँतिकुँज में भी वन्दनीया माताजी किसी को बिना भोजन कराये नहीं जाने देती। आतिथ्य परम्परा आजीवन चली व वह सूत्र संचालक के निर्धारणों का एक अंग बन गई।


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